बहुत बह चुकी धरा आषाढ़ी, मेघ बनो-छा जाओ। और संस्कृति के हित कोई सन्देशा भी लाओ॥
सिन्धु तुम्हारी तरण शक्ति को, नाप नाप कर हारा। और झुका तूफान अदब से साहस देख तुम्हारा॥
भग्न हुई प्राचीन अनय की खण्डहर हुए महल है। गढ़ ढह गई, विषमताओं का मनुज हुए निर्बल है॥
तनिक और जूझो कि असद् के प्राण अभी बाकी हैं। कभी पिया था, गरज -गरज के पात्र आज बन जाओ॥
नींव रखो नवयुग की जिसमें कही न दानवता हो। ओर विजय लक्ष्मी बन शासन करती मानवता हो॥
इन्हीं खण्डहरों की ईंटों से ऊँचा बने शिवाला। जिसमें हो भगवान-मनुज को हरी समझने वाला॥
झुलस रहा संसार, तपन हर क्षण बढ़ती जाती है। अन्तर रस बनकर जन-जन के अधरों पर मुस्काओ।
कह दो संस्कृति कि सीता से विरह काल अब बीता। हल चला लावण्य और देवत्व मनुज का जीता॥
एक हाथ में शास्त्र-दूसरे कर में शस्त्र तुम्हारे। आने दो प्रकाश-खुले है नूतन युग के द्वारे॥
यज्ञ हुआ प्रारम्भ मगर पूर्णाहुति तो बाकी है। उसे करो सम्पन्न और युग निर्माता कहलाओ।
*समाप्त*