मनुष्य को यदि जन्म से ही अकेला छोड़ दिया जाय तो वह बुद्धि और भावना की दृष्टि से नितान्त पशु सदृश होगा। उसमें मनुष्योचित स्वभाव, संस्कार, विचार एवं क्रिया-कलाप को काई चिन्ह न मिलेगा। हम आज जो कुछ भी हैं सामाजिक अनुदानों की विभूतियों से लाभान्वित होने के कारण हैं। विशाल मानव समुदाय की सदस्यता का जो लाभ मिला है उसी के कारण हम विविध प्रकार की भौतिक और आत्मिक उपलब्धियां प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं।
थोड़ा अधिक विचार पूर्वक देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य लगभग पूर्णतया परजीवी है। उसकी जीवन प्रक्रिया दूसरों की सहायता से चल रही है। हम दूसरों का उगाया अन्न खाते हैं। दूसरों के तैयार किये कपड़े पहनते हैं। दूसरों के बनाये घरों में निवास करते हैं। दूसरों की बनाई भाषा बोलते हैं। दूसरों की लिखी पुस्तकों के सहारे अध्ययन करते हैं। जिन उपकरणों का हम उपयोग करते हैं उनमें अपने बनाये हुए कितने होते हैं मित्र मण्डली, परिवार के सदस्य, हित सम्बन्धी, सभी तो दूसरे हैं उन्हीं के सहारे दैनिक जीवन में व्यवस्था ओर सरसता रहती है। आजीविका के लिये दूसरों के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ता है। मानवी बुद्धिमत्ता को बहुत महत्त्व दिया जाता है सो ठीक है पर यह ध्यान रखना चाहिए कि सहयोग की मूल प्रवृत्ति ने ही बुद्धिमत्ता को विकसित किया है। मस्तिष्क कितना ही तीव्र क्यों न हो यदि उपयुक्त वातावरण न मिले, जन सहयोग उपलब्ध न हो तो मस्तिष्कीय क्षमता ऊपर से उगे अंकुर की तरह मुरझा कर नष्ट ही हो जायेगी। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की जो अतिरिक्त विशेषता है उसे बुद्धिमत्ता पूर्वक सहकारिता के नाम से ही पुकारा जाना चाहिए।
समाज में जो कुछ भौतिक और आध्यात्मिक विशिष्ट उपलब्धियाँ दृष्टिगोचर होती है वे सृजनशील व्यक्तियों द्वारा अगणित पीढ़ियों द्वारा उपार्जित और प्रदत्त अनुदान है। किसी ने आग को खोजा, किसी ने कृषि किसी ने पशुपालन, किसी ने चिकित्सा किसी ने वस्त्र, किसी ने भाषा का सृजन किया। साहित्य की तरह विज्ञान की भी अगणित धारायें है। उनका क्रमिक विकास सृजनशील मस्तिष्क ही करते आये हैं। शासन, नीति, शास्त्र, धर्म, और अध्यात्म का ढाँचा भी दूरदर्शी और चिन्तनशील मनुष्यों ने ही किया हैं। हमारी आज की चिन्तन प्रक्रिया ऐसी लगती है मानों वह स्वतन्त्र एवं उपार्जित है पर सच तो यह है कि हम किन्हीं अन्य लोगों द्वारा सृजन किये विचारों की लहरों पर ही बैठते रहते हैं विशुद्ध स्वतन्त्र चिन्तन तो कदाचित ही किसी के पल्ले पड़ता है।
न्याय और औचित्य सम्बन्धी हमारी मान्यताएँ भी अपनी नहीं है। उन्हें सामुदायिक प्रवाह ने नदी नहरों की तरह बनाया है हम तो उसके बहाव में घास फूस की तरह तिनके भर हैं। व्यक्ति के विकास में समाज का असाधारण योगदान ह- यह सुनिश्चित है, पर यह बात उससे भी अधिक सही है कि समाज का जैसा भी कुछ भला बुरा ढाँचा सामने है उसे सृजनशील व्यक्तित्वों ने ही खड़ा किया है। समाज बड़ी बात है पर उससे भी बड़ी बात है सृजनशील व्यक्तित्वों की सत्ता।
हम इस सुन्दर संसार को अगणित सुविधा साधनों से भरा पूरा देखते हैं और सुख सन्तोष के प्रचुर आधारों का उपयोग उपभोग करते हैं बारीकी से देखें तो इन उपलब्धियों के पीछे किन्हीं सृजनशील व्यक्तित्वों के अथक और तत्पर प्रयत्न ही झाँकते दिखाई देंगे।
निस्सन्देह हम प्रगति और समृद्धि के युग में रह रहे है। वैज्ञानिक आविष्कारों की धूम है। समृद्धि के साधन बढ़ रहे, शिक्षा एवं विचार विस्तार का क्षेत्र भी सुविस्तृत हो रहा है, पर यह सब कुछ मशीनी ढंग से हो रहा है। यह सब प्रसन्नता के कारण हैं पर साथ ही यह दारुण दुःख भी बड़ा रहता है कि युग की परिस्थितियों पर दूरगामी चिन्तन करने वाले और समाज को दिशा देने वाले सृजनशील व्यक्तित्वों की संख्या घटती चली जा रही है। मस्तिष्क विकसित होते रहे किन्तु ऊर्ध्वगामी प्रखरता सम्पन्न व्यक्तित्व घटते रहे तो हमारी सारी समृद्धि अन्ततः विपत्ति के रूप में ही परिणत होगी। अदूर-दर्शी बुद्धिमत्ता की अपेक्षा निपट मूर्खता कम विनाशक होती है। चतुर किन्तु दुष्ट से बढ़कर कदाचित ही कोई विनाशक तत्त्व इस धरती पर हो सकता है।
धरती के कोने कोने में आबादी आँधी तूफान की तरह बढ़ रही है। किन्तु ऐसे लोगों की संख्या निरन्तर घटती चली जा रही है जो समाज को नैतिक और आत्मिक उपलब्धियाँ प्रदान कर सकें। धन उपार्जन और विज्ञान के विकास पर लोगों का ध्यान केन्द्रित है। फलस्वरूप विभूतिवान् व्यक्तित्वों का प्रवाह उसी दिशा में मुड़ चला है। लगता है नैतिक और सामाजिक मूल्यों की उपयोगिता भूला दी गई है और उस क्षेत्र में बढ़ चढ़ कर काम करने की आवश्यकता नहीं समझी जा रही है। अब ऐसे अग्रणी लोग उँगलियों पर गिने जाने जितने ही मिलेंगे जिनका व्यक्तित्व मानवी चिन्तन को अधिक पवित्र और अधिक लोकोपयोगी बनाने की तप साधना में निरत हो।
उद्योग और विज्ञान के क्षेत्र में संगठित संस्थानों का बोल बाला है। उनके अंतर्गत काम करने वाले व्यक्ति क्रमशः उपकरण मात्र बनते चले जाते हैं। अच्छे वेतन और अच्छे पुरस्कार की लालसा से वे काम करते हैं और साथ के साथ अपने कर्तव्य का मूल्य चुकाते रहते हैं। ऐसी दशा में न तो वे स्वयं अनुभव करते हैं और न समाज ही ऐसा मानता है कि उनने किसी आदर्श की स्थापना की अथवा कोई अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया। इस प्रकार की अन्तर्दृष्टि के बिना व्यक्तित्वों में महानता उभरती ही नहीं। हम देखते हैं कि महान् व्यक्तित्वों की दृष्टि से यह धरती क्रमशः बंध्या होती चली जा रही है।
कला के क्षेत्र में अब सच्चे कला साधकों का अभाव होता चला जा रहा है। चित्रकार, साहित्यकार, कवि और गायकों के क्षेत्र में जब इस उद्देश्य से दृष्टि दौड़ाई जाय कि किसकी उद्देश्य पूर्ण साधना थी तो निराशा ही हाथ लगेगी। प्रलोभन के लिए उछल कूद करने वालों की संख्या बढ़ी है पर इससे कला का स्तर तनिक भी ऊँचा नहीं उठा। उसके प्रति विचारशील वर्ग के आकर्षण में बुरी तरह गिरावट आई है। आश्चर्य नहीं कलाकार और कला प्रेमियों को अगले दिनों बाजारू कहा जाने लगे।
शासन तन्त्र चलाने वाले राजनीति के क्षेत्र में बहुत हैं पर जनता के हृदय पर शासन करने की विभूति से वे लोग क्षीण होते चले जा रहे हैं। लोकमानस में से स्वतन्त्र चेतना, दूरदर्शिता और न्याय बुद्धि की मात्रा घट जाने का परिणाम यह हुआ है कि राजसत्ताओं की जड़ें खोखली हो रही है। गृह कलह और अन्तर्द्वन्द्वों में राष्ट्रीय सामर्थ्य का जिस तरह क्षरण हो रहा है उसे देखते हुए लगता है कि सृजन के लिए भावनात्मक उभार की मात्रा नगण्य सी ही बच पायेगी।
यही बात धर्म क्षेत्र के बारे में है। जगद्गुरु अथवा अवतारी कहलाने की धृष्टता पूर्ण आतुरता कितनों को ही व्यग्र किये हुए है। मठाधीशों के वैभव बढ़ रहे है। पर उज्ज्वल चरित्र, अगाध ज्ञान और सेवा साधना के आधार पर जन-साधारण की सहज श्रद्धा अर्जित करने वाले धर्मात्मा आज कहाँ हैं?
जहाँ प्रखर व्यक्तित्व होंगे वहाँ समाज का स्तर समुन्नत होगा और जहाँ समुन्नत समाज होगा वहाँ विभूति वान व्यक्तित्व आगे आयेंगे। दोनों के परस्पर आदान-प्रदान से ही शान्ति ओर समृद्धि की आधार शिला रखी जाती है न कि साधनों के अभिवर्धन होने से।
हमें विशेषतया मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य का, विश्व-व्यापी सुख-शान्ति का-चिन्तन करते हुए तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए। विभूतिवान् व्यक्तित्वों का अभिवर्धन करने पर यदि समुचित ध्यान दिया जाये तो ही वह सब प्राप्त हो सकेगा जिसकी कि आज वस्तुतः आवश्यकता है।