अब से कोई साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व सन् 1607 में जर्मन विज्ञानी कैप्लर ने दिन-दोपहर एक तारे को चमकते देखा था। यह उसका मस्तिष्कीय भ्रम तो नहीं है, यह जानने के लिए उन्होंने उसे सैकड़ों अन्य दर्शकों को दिखाया था। दिन में तारे दिखना या बोलचाल की भाषा में किसी बड़ी कठिनाई से सामना करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पर वैसा प्रत्यक्ष हो भी सकता है, इस पर कदाचित् ही विश्वास किया जा सके, पर ऐसा हुआ है और होता रहा है। सन् 1578 में भी टाइको ब्राहे नामक एक विज्ञानी ने दिन में तारा निकला हुआ देखा था।
इतिहास में यह क्रम पहले भी चलता रहा है। चीन की पुरानी पुस्तकों में लिखा है कि 4 जुलाई 1054 में एक चमकदार तारा उगा था, जिसकी रोशनी शुक्र ग्रह के समान थी और जो 23 दिनों तक रात में तो चमका ही, दिन में भी उसे देखा जाता रहा। फिर उसकी ज्योति हलकी पड़ते-पड़ते दो वर्ष में पूर्णतया विलुप्त हो गई। सीरिया के ज्योतिष ग्रन्थों में उस प्रकार का एक तारा सन् 1006 में उदय हुआ था, ऐसा उल्लेख है। अरब देश के ज्योतिर्विदों ने सन् 827 में दिन में उगा हुआ तारा देखा था और उसका शुभ-अशुभ की दृष्टि से विचार किया था।
ये दिन में निकलने वाले तारे क्या हैं - खगोलवेत्ता - इन्हें “सुपरनोवा” कहते हैं। यह नवोदित वर्ग के तारक हैं। इनमें कुछ अपेक्षाकृत हलकी द्युति के होते हैं, उन्हें ‘नोवा’ मात्र कहा जाता है।
अनन्त अन्तरिक्ष में विचरण करने वाले तारकों के आकार-प्रकार यों एक जैसे लगते हैं, पर बारीकी से देखने पर अपनी धरती पर रहने वाले प्राणियों की तरह उनकी भी आकृति-प्रकृति अगणित प्रकार की होती है। सामान्य वर्गीकरण की दृष्टि से इन्हें नीली-सफेद रोशनी वाले,व्हाइट ड्वार्फ्स और लाल, पीले रंग के, रेड डैमेन्स कहते हैं। कुछ तारक इन दोनों के बीच की मिली जुली स्थिति के होते हैं। इस वर्गीकरण के अंतर्गत 97 प्रतिशत तारे आते हैं। इनके अतिरिक्त 3 प्रतिशत तारे ऐसे हैं, जिन्हें नवोदित कह सकते हैं। ये अपनी आकृति-प्रकृति, कक्षा और स्थिति को अस्थिरता से स्थिरता की ओर ले जा रहे हैं। अभी इनका जीवन-क्रम ऐसे ही अस्त-व्यस्त है। वैज्ञानिक इनकी हरकतों को बारीकी से देखते रहते हैं, ताकि तारकों को जन्म, शैशव एवं किशोरावस्था सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी प्राप्त हो सके। इन्हीं नवोदित तारकों में से जो दुर्बल, पतले और मध्यवर्ती हैं, वे नोवा कहलाते हैं और जिनका आकार एवं आवेश दैत्याकार है, उन्हें सुपरनोवा कहा जाता है। दिन में दिखने वाले तारे सुपरनोवा ही होते हैं।
इन “नोवा” और "सुपरनोवा" तारकों की आकृति और द्युति आश्चर्यजनक ढंग से घटती-बढ़ती हैं। उनके आकार दस प्रतिशत तक सिकुड़ते-फैलते हैं और रोशनी का तो कहना ही क्या। वह कुछ समय के लिए सैकड़ों गुनी बढ़ जाती है।
इस विशालता के साथ मनुष्य यदि अपने क्षेत्र, शरीर और अस्तित्व की कल्पना करे, तो प्रतीत होगा कि पदार्थों की दृष्टि से उसके साधन नगण्य हैं और प्राण-धारियों की सत्ता से उसकी चेतना क्षुद्रतम है। अपनी तुच्छता और विश्व ब्रह्माण्ड की विशालता की यदि तुलना की जाये तो मनुष्य को अपना अस्तित्व विशाल समुद्र के आगे एक बूँद जल से भी कम दिखाई पड़ेगा। इस क्षुद्रता पर यदि विचार करें तो किसी का भी गर्व गल सकता है और अहंकार की भ्रान्ति का सहज निराकरण हो सकता है।