स्पष्ट नास्तिकवाद बनाम प्रच्छन्न नास्तिकवाद

August 1973

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नास्तिकवादी मान्यता यह है कि शरीर ही जीव है। शरीर के मरण के साथ-साथ ही जीव का भी अन्त हो जाता है। शरीर और जीव का पृथक् अस्तित्व नहीं, दोनों एक साथ ही जीते-मरते हैं। इस मान्यता के अनुसार परलोक का– पुनर्जन्म का आधार नहीं पाता

नास्तिकवाद यदि किसी दार्शनिक चिन्तन तक सीमित रहता, तो बात दूसरी थी; पर उसका अत्यन्त दूरगामी प्रभाव हमारी जीवन-यापन सम्बन्धी विचारणा एवं क्रिया-प्रक्रिया पर पड़ता है। कतई इसे विचारभिन्नता कहकर टाला नहीं जा सकता।

मानवी स्वभाव येन-केन प्रकारेण अधिकाधिक सुख-सुविधा, साधनों का संग्रह एवं उपयोग करने का है। कम समय, कम श्रम में अधिक सुख-साधन उपलब्ध करने की आतुरता में उचित-अनुचित का भेद छूट जाता है। उचित मार्ग से तो अभीष्ट श्रमशीलता ओर योग्यता के आधार पर ही वस्तुएँ मिलती हैं। यदि इस मर्यादा में रुके रहने की गुंजाइश न हो, तो गतिविधियों को उस स्तर की बनाना पड़ेगा; जिसे पाप, बेईमानी, छल, उत्पीड़न आदि अपराध वर्ग में गिना जा सके। प्रत्यक्ष है कि ईमानदारी की अपेक्षा बेईमानी की नीति अपनाने वाले स्वल्प समय में अधिक सुख-साधन एकत्रित कर लेते हैं। एक की देखा-देखी दूसरे की भी इस प्रचलन का अनुसरण करने की इच्छा होती है और अनैतिक आचरण का प्रवाह द्रुतगति से आगे बढ़ने लगता है। नास्तिकवाद इस प्रवाह को रोकता नहीं, वरन् प्रोत्साहित करता है। कहना न होगा कि यदि अपराधी प्रकृति और कृति बढ़ती ही जाये, तो आचार-संहिता एवं मर्यादा नाम की कोई चीज न रहेगी। स्वेच्छाचार बढ़ेगा और स्वार्थपरता अन्ततः मानव समाज को परस्पर नोंच खाने की स्थिति में ले जाकर पटक देगी। फलतः व्यक्ति एवं समाज का सत्यानाशी अहित ही सम्मुख उपस्थित होगा।

कानून की पकड़ से आदमी को बुद्धि-कौशल सहज ही बचा सकता है। अपराधों की महामारी अब सार्वजनीन और सर्वव्यापक होती चली जा रही है। पकड़ में कोई विरले ही आते हैं। जो पकड़े जाते हैं, वे भी दुर्बल न्याय-व्यवस्था का लाभ उठाकर राजदण्ड से बच जाते हैं। समाज में, एक तो वैसे ही समर्थ एवं संगठित प्रतिरोध की क्षमता नहीं, इस पर भी गुंडावाद का आतंक उसे चुप रहने और सहन करने में ही भलाई मानने के लिए आतंकित करता है। ऐसी दशा में समाज- प्रतिरोध का भी भय नहीं रहता। सरकारी पकड़ से बचने या पूछने के उपाय तो अब सर्वविदित हो चले हैं। इसलिए चतुर लोग उससे डरने की आवश्यकता नहीं समझते। विपत्ति में फँसने से पहले ही आवश्यक सुरक्षा-व्यवस्था के साधन बना लेते हैं।

अपराधी मनोवृत्ति से बचने का भावनात्मक अंकुश ही अब तक कारगर होता रहा है। यों उसमें भी भारी शिथिलता आई है; फिर भी जितनी रोकथाम आस्तिकता के कारण रह रही है; उसे भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता। ईश्वर का न्याय, कर्म का फल यदि पूरी तरह मानवी चेतना में से हटा दिया जाय, तो फिर उसे आचरण में पूरे उत्साह के साथ प्रवृत्त होने से कोई रोक नहीं सकेगा। सरकारी नियन्त्रण किसी की बहिरंग गतिविधियों पर ही एक सीमा तक रोकथाम कर सकता है। विचारणा, आकांक्षा एवं अभिरुचि पर तो सरकारी अंकुश भी नहीं चलता। दुष्ट-बुद्धि, दुर्भाव और अशुभ चिन्तन पर रोकथाम तो आत्म-नियन्त्रण से ही हो सकता है। कहना न होगा कि इस आत्म-निग्रह में ईश्वर की न्याय और कर्मफल देने की मान्यता ही कारगर सिद्ध हो सकती है। नास्तिकवादी मान्यता अपनाने पर तो, अवांछनीय रीति-नीति अपनाकर अधिकाधिक सुख-साधन कमाने में, फिर कोई बड़ा बन्धन ही नहीं रह जाता। कानून और लोकमत को तो सहज ही बहकाया जा सकता है।

विद्वान् वाल्टेयर ने इसी तथ्य को ध्यान में रखकर कहा था– यदि सचमुच ईश्वर न हो, तो भी उसका सृजन करना, मानवी सुव्यवस्था की दृष्टि से परम आवश्यक है। सत्प्रवृत्तियों को अपनाने और दृष्प्रवृत्तियों से विरत होने की प्रेरणा देने के लिए ही धर्म एवं अध्यात्म का ढाँचा खड़ा किया गया है। इन दोनों को ईश्वरीय अस्तित्व के सहारे ही खड़ा रखा जा सकता है। वस्तुतः ईश्वरवाद की व्याख्या ही धर्म एवं अध्यात्म की क्रियात्मक एवं भावात्मक उत्कृष्टता को समर्पण करने की दृष्टि से की जाती है।

आस्तिकवाद में भी एक भयानक विकृति कुछ समय से ऐसी पनपी है, जिसे नास्तिकवाद के समकक्ष ही कह सकते हैं। वह है– छुट-पुट कर्मकाण्डों के आधार पर पापदंड से छुटकारा मिल जाने का समर्थन। इन दिनों सम्प्रदायवादियों ने अपने-अपने मत-सम्प्रदाय के अनुयायी बनाने और बढ़ाने के लिए एक सस्ता नुस्खा ढूँढ निकाला है; कि उनके मत के अनुसार बताये पूजा-विधान, मन्त्र या क्रिया-कृत्य की अत्यन्त सरल विधि पूरी कर लेने से जीवन भर के समस्त पापों के दंड से छुटकारा मिल जाता है। यह प्रलोभन इसलिए दिया गया प्रतीत होता है कि पापदण्ड की कष्टसाध्य प्रक्रिया से सहज ही छुटकारा मिल जाने का भारी लाभ देखकर लोग उनके सम्प्रदाय की रीति-नीति अपना लेंगे। यदि बात इतनी भर होती, तो भी क्षम्य थी, पर इस मान्यता में एक अत्यन्त भयानक प्रतिक्रिया भी जुड़ी हुई है ; जिसके कारण यह प्रलोभन व्यक्तिगत चरित्र और सामाजिक सुव्यवस्था पर घातक प्रभाव डालता है। मनुष्य पापदंड से निर्भय हो जाता है। दुष्कर्म करने का उसे प्रोत्साहन– साहस मिल जाता है। अब अनीति अपनाकर भरपूर लाभ उठाया जा सकता है और उनके दण्ड से छुट-पुट कर्मकाण्ड का आश्रय ही बचा सकता है, तो फिर कोई क्यों अनीति आचरण के लाभ को छोड़ना चाहेगा ?

नास्तिकवाद और इस पापदंड से बचाने वाले अनास्तिकवाद का निष्कर्ष एक ही है। नास्तिक इसलिए पाप से निश्चिंत होता है, कि सरकार और समाज को चकमा देने के बाद ईश्वर, परलोक, कर्मफल आदि का अतिरिक्त झंझट नहीं रह जाता। ठीक इसी निर्णय पर विकृत चिन्तन से भरा प्रचलित ईश्वरवाद भी पहुँचता है। इस प्रकार वे बाहर से एक-दूसरे के प्रतिकूल दिखते हुए भी निष्कर्ष एक ही निकालते हैं। पापाचार के लिए दोनों ही समान रूप से पथ प्रशस्त करते हैं।

एक और प्रश्न पर भी वे दोनों एक मत हैं। पुण्य-परमार्थ की आवश्यकता नास्तिकवाद नहीं मानता ; क्योंकि इससे धन और समय बर्बाद हो जाता है। जब पुण्य प्रतिफल ही नहीं मिलने वाला है, तो प्रत्यक्ष घाटा देने वाले परोपकार जैसे कार्यों को क्यों किया जाय ? प्रचलित विकृत अध्यात्मवाद भी यही सिखाता है। जब छुट-पुट कर्मकाण्डों के नाम, जप आदि से ही अक्षय पुण्य मिल जाता है और स्वर्ग, मुक्ति तक का द्वार खुल जाता है, तो खर्चीले एवं कष्टसाध्य परमार्थ प्रयोजनों को अपनाने से क्या लाभ? प्रकारान्तर से सेवा-सत्कर्मों की निरर्थकता सिद्ध करने में भी यह दोनों ही दर्शन एक मत है।

नास्तिकवाद के दुष्परिणामों पर समाज के मूर्धन्य लोग विचार करते रहे हैं और उसे अपनाने पर उत्पन्न होने वाले चरित्र संकट की विभीषिका समझाते रहे हैं। पर न जाने दूसरे उस प्रच्छन्न नास्तिकवाद की ओर विचारशील लोगों का ध्यान क्यों नहीं जाता, जो छुट-पुट कर्मकाण्डों का अतिसंयोक्तिपूर्ण माहात्म्य बताकर पापदंड से निर्भय रहने और पुण्य की निरर्थकता सिद्ध करने में प्रकारान्तर से नास्तिकवाद का सहोदर भाई ही सिद्ध होता है। धर्म, अध्यात्म और ईश्वरवाद के मूल प्रयोजन की यह प्रच्छन्न नास्तिकवाद जड़ ही काट रहा है। इसलिए उसे भी निरस्त किये जाने की आवश्यकता है।



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