अपनों से अपनी बात– दृष्टिकोण के परिवर्तन से ही वाह्य परिस्थितियाँ बदलेंगी

August 1973

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हमारा बहिरंग जीवन दो आधार पर सुव्यवस्थित रहता है (1) उपलब्ध साधन सामग्री (2) सम्बद्ध व्यक्तियों की शृंखला। इन दोनों के अनुकूल होने पर सुख अनुभव किया जाता है और प्रतिकूलता अथवा न्यूनता में दुःख। उपलब्ध जीवनोपयोगी साधन सामग्री में धन और उसके द्वारा उपलब्ध हो सकने वाली वस्तुएँ आती हैं। भोजन, वस्त्र, मकान, वाहन, विनोद, तथा सुविधा उपकरण इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं। सम्बद्ध व्यक्तियों की शृंखला में परिवार के सदस्य पत्नी संतति भाई-बहिन माता पिता आदि वे लोग आते हैं जिन्हें कुटुम्बी कहते हैं इसी शृंखला की कड़ी में स्वामी, पड़ोसी ग्राहक साथी आदि भी गिने जा सकते हैं। साधनों की कमी नहीं और सम्बद्ध व्यक्ति सहयोगी बनकर काम कर रहे हों तो बहिरंग जीवन को सुखी कहा जा सकता है।

अन्तरंग जीवन के भी दो पहिये है (1) शरीर और (2) मन। यह दोनों स्वस्थ हों तो व्यक्तिगत रूप से मनुष्य सुखी रहेगा। रुग्ण शरीर और उलझा हुआ मस्तिष्क आधि व्याधि से ग्रसित दुखदायी अनुभूतियाँ प्रस्तुत करता है। यह दोनों साथी ठीक प्रकार कर साथ देते रहे हैं और सन्तुलित रीति-नीति अपनाकर आलस्य, प्रमोद के विसंगतियाँ से बच रहे हों तो मनुष्य अपने आप में प्रसन्नता अनुभव करता रहेगा।

बहिरंग जीवन के दो माध्यम है साधन और परिवार। अन्तरंग जीवन के दो माध्यम है शरीर और मन। इन चारों को मिलाकर जीवन रथ के चार पहिये बनते हैं और वे ठीक प्रकार से अपनी धुरी पर लुढ़क रहे हों तो कहा जा सकता है कि सुख पूर्वक जीवन यापन की क्रम व्यवस्था चल रही है।

इन चारों को सही और सन्तुलित रखने का उत्तरदायित्व हमारे दृष्टिकोण का है। उसे सारथी भी कह सकते हैं। दृष्टिकोण में विकृति आने पर यह चारों अस्त-व्यस्त और नष्ट भ्रष्ट होने लगे और मनुष्य दुःख-दारिद्रय के शोक सन्ताप के गर्त में जा गिरता है।

शरीर की संरचना प्रकृति ने इस प्रकार की है कि यदि उसे आहार-बिहार के प्रकृति प्रदत्त निर्देशों पर चलने दिया जाय, असंयम और अव्यवस्था में न उलझा जाय तो सामान्यतया आजीवन स्वास्थ्य बना रहेगा और रुग्ण एवं दुर्बलता का कष्ट न सहना पड़ेगा। मन यदि उच्छृंखल तृष्णा के लिए उद्विग्न न हो रहा हो और परिस्थितियों से निपटने की रीति समझता हो तो उस बुद्धिमत्ता, विवेकशीलता एवं दूरदर्शिता के आधार पर सन्तोष और सन्तुलन बनाये रह सकेगा। उद्विग्न प्रायः वही लोग पाये जाते हैं जिन्हें सोचना नहीं आता। सब कुछ हमारी इच्छानुकूल ही होता रहे-जो चाहते हैं वही मिलता रहे यह सम्भव नहीं। प्रतिकूलताएँ बनी ही रहेंगी। उनके साथ किस प्रकार निपटा जाय यह एक कला है। परिस्थितियों को कैसे अनुकूल बनाया एवं अपने को कैसे परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाय, इसकी रीति-नीति जिसे मालूम है वह खीजता झल्लाता नहीं वरन् संगति बिठाने में निरत होता है और कोई काम चलाऊ हल निकाल लेता है। ऐसे मनुष्य ही मानसिक दृष्टि से सन्तुलित और प्रसन्नचित्त रहते देखे जाते हैं।

साधनों का बाहुल्य रहने से सुखी रहने की बात आम तौर से सोची जाती है किंतु वस्तु स्थिति इससे भिन्न है। जो उपलब्ध है उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग कैसे हो सकता है इस तथ्य को यदि कोई ठीक तरह जानता हो तो स्वल्प साधनों में भी हँसी खुशी की जिन्दगी जी जा सकती है। साधन सामग्री प्रचुर मात्रा में प्राप्त हों किन्तु उसका सही उपयोग न आता हो तो उनसे लाभ मिलना तो दूर उलटे समस्यायें उत्पन्न होंगी। कितने ही धनाढ्य लोग, संग्रहित सम्पदा का उपयोग नहीं जानते। फलतः उससे विग्रह और अनाचार जन्य संकटों की घटाये ही घूमती रहती है। उन्हें सम्पन्नता निर्धनता से भी महँगी पड़ती है। उच्छृंखल अपव्यय अथवा कृपण संग्रह तरह तरह के विक्षोभ उत्पन्न करता है और उस व्यक्ति की स्वाभाविक शान्ति का अपहरण कर लेता है।

कुटुम्ब में सब लोग एक प्रकृति के नहीं होते। जन्म जन्मान्तरों से संग्रहित अपने अपने स्वभाव संस्कार लिए होते हैं इसलिए अपनी रुचि के ढाँचे में सबको मिट्टी के खिलौनों की तरह नहीं ढाला जा सकता। अस्तु बुद्धिमान लोग हर व्यक्ति को स्वीकार करते हैं ताकि अधिकाधिक सामंजस्य बना रहे। स्नेह सद्भाव और सहयोग की सौम्य शृंखला में वे परस्पर बँधे जकड़े रहते हैं। अवांछनीय दोष दुर्गुणों के निराकरण और सत्प्रवृत्तियों के सम्बन्ध का उत्तरदायित्व चतुर लोग इस प्रकार निबाहते हैं कि साँप भी मरे और लाठी भी न टूटे। सुधार की उग्रता इतनी न हो कि जिससे स्नेह सद्भाव का धागा टूटने और दाने बिखरने की ही स्थिति बन जाय। इतनी उपेक्षा भी न बरती जाय कि हर कोई अनियन्त्रित होकर मनमानी करने लगे और परिवार संस्था का उद्देश्य ही नष्ट हो जाय। कुटुम्ब के छोटे समूह को स्नेहसिक्त संतुलित प्रगतिशील और सुसंस्कारी बनाने के लिये मध्य मार्ग किन्तु आदर्शवादी विधि व्यवस्था अपनानी पड़ती है। जो इस सन्तुलन का अभ्यस्त है उसे परिवार सुख की कमी नहीं रहती भले ही सम्बद्ध व्यक्ति उतने सुसंस्कारी एवं सुविकसित नहीं भी हो।

अन्तरंग जीवन का आधार शरीर और मन है उनका स्वस्थ और संतुलित रहना आवश्यक है। इसी प्रकार बहिरंग जीवन का आधार साधन और सहचर है उनका सदुपयोग और समन्वय किया जाना आवश्यक है। जिसने इतना सीख लिया समझना चाहिए कि उसने जीवन जीने की कला जान ली और सुख शान्ति के ताले की चाबी खोज ली। वस्तुतः प्रचुर मात्रा में ही इसके लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए किन्तु यदि वे शरीर काया की सामान्य आवश्यकता पूरी कर सकने जितनी है तो भी सदुपयोग की विद्या जानने वाला उस न्यूनता के बीच भी सुखी जीवन जी सकता है। इस तथ्य को अभावग्रस्त समझी जाने वाली परिस्थिति में स्वेच्छा से रहने वाले ऋषि मनीषियों ने सत्य सिद्ध करके दिखाया था कि कम वस्तुएँ मनुष्य की प्रगति एवं सुविधा में कोई विशेष व्यतिरेक उत्पन्न नहीं करती। सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श न तो मिथ्या है और न अव्यावहारिक। जीवन जीने की कला जो जानते हैं वे अधिक साधन उपलब्ध करने का प्रयत्न तो करते हैं पर साथ ही यह भी नहीं भूलते कि जो प्राप्त है उसका सदुपयोग करके भी सन्तोष के साथ जिया जा सकता है। उस स्थिति में भी प्रगति के पथ पर बढ़ा जा सकता है।

परिवार के सदस्यों को अधिक सम्पन्न बनाने और सुविधा विलासिता के साधन से मोह ग्रस्तता नहीं अपनाई जानी चाहिए । इस लाड़-चाव में वे कुसंस्कारी, व्यसनी और दुर्गुणी बनते हैं। अमीरों जैसे साधनों से घर परिवार के लोगों को लाद देने और उन्हें बैठे-बैठे खाने उड़ाने के लिए धन दौलत छोड़ मरने की बात सोचना प्रकारान्तर से परिजनों के स्वभाव को बिगाड़ना और उनके भविष्य को अन्धकारमय बनाया है। आरम्भ से ही अनुशासन, मितव्ययी, श्रमशीलता, शिष्टता और स्नेह सहयोग के पारिवारिक जीवन में समावेश करने की सूक्ष्म दृष्टि रखी जाय और घर के हर सदस्य के साथ दैनिक संपर्क, परामर्श का क्रम रखा जाय तो ऐसा अवसर न आने पावेगा जिसमें पीछे पछताने और सिर धुनने की आवश्यकता पड़े । हमारा अनावश्यक मोह ही है जो परिवार के सदस्यों को दुर्गुणी बनाता है। लाड़-चाव की उमंग में अक्सर कर्तव्य की बात भुला दी जाती है। कुटुम्बियों को अमीरी का चस्का लगाना नहीं, अपना उत्तरदायित्व जो उन्हें सुसंस्कारी बनाना मानते हैं और उसमें अदूरदर्शिता पूर्ण लाड़ दुलार को बाधक नहीं बनने देते, वे अन्ततः लाभ में रहते हैं। ऊपर से रुखाई और कड़ाई भले ही दिखाई पड़ती रहे पर अन्ततः यही रीति-नीति सर्वोत्तम स्नेह साधना सिद्ध होती है और न केवल अपने को वरन् परिवार के प्रत्येक सदस्य को उसका समुचित लाभ मिलता है।

स्पष्टतः बहिरंग जीवन के लिए साधनों और सहचरों का सदुपयोग संतुलन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। जो इस दिशा में उपेक्षा बरतेगा तो उसे बहिरंग जीवन में कभी सुख, चैन की साँस लेने का अवसर न मिलेगा। अभाव और विग्रह की शिकायत उसे सदा बनी ही रहेगी। ठीक इसी प्रकार जो शरीर को आलस और असंयम के गर्त में गिरने से रोकेगा नहीं, इन्द्रिय निग्रह और नियमित दिनचर्या की आवश्यकता अनुभव न करेगा वह रुग्णता से बच नहीं सकेगा। दवा-दारु भी उसकी कुछ विशेष सहायता न कर सकेगी। असमय का वृद्धता एवं अकाल मृत्यु का त्रास उसे सहना ही पड़ेगा। मन की प्रसन्नता जिसने दूसरों के हाथ गिरवी रख छोड़ी है, जिसे कोई भी क्षुब्ध कर सकता है उसका मन ज्वार-भाटे की तरह अशान्त उद्विग्न ही रहेगा। जो अपने चिन्तन की परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बिठा सकने योग्य परिष्कृत न बन सके उसकी मनोव्यथा का अन्त हो ही नहीं सकता। समस्त परिस्थितियाँ के साथ ताल-मेल बिठा सकने योग्य परिष्कृत न बने सके उसकी मनोव्यथा का अन्त हो ही नहीं सकता। समस्त परिस्थितियाँ सदैव अनुकूल ही बनी रहे यह सर्वथा असंभव है। जिसने असम्भव को सन्तोष का आधार बना रखा हो उसके मानसिक आकाश में हर्षोल्लास की बिजली कभी कभी ही कौंध जाया करे तो बहुत है अन्यथा उसमें नीला काला अन्धकार ही छाया रहेगा।

जीवन बहन की रक्षा बहुमूल्य है उसे कुशलता पूर्वक चलाया जा सके तो ही सुख शान्ति भरे आनन्द, उल्लास का लाभ लिया जा सकता है। निश्चित रूप से मानव जीवन असाधारण रूप से महान् है उसके साथ अगणित विभूतियाँ जुड़ी हुई है पर उनका रसास्वादन कर सकना हर किसी के बस की बात नहीं। अनाड़ी ड्राइवर कीमती मोटर का भी चूरा करता है। सवारियों को मारता है और खुद मरता है। जिसे मानव जीवन के सदुपयोग संचालन की विधि व्यवस्था का ज्ञान नहीं उसका नर जन्म निरर्थक ही रहेगा। उसे शोक संताप के ही दिन गुजारने होंगे। निरन्तर दुर्भाग्य का रोना रोते रहना पड़ेगा।

जीवन जीने की कला मनुष्य कलेवर धारण करने वाले हर जीव के लिए सर्वोपरि, सर्वप्रधान और महानतम आवश्यकता है उसे समझा और सीखा जाना ही चाहिए। यहाँ इस असमंजस में पड़ने की आवश्यकता नहीं है कि जीवन जटिल संरचना वाले सरंजाम के कलपुर्जों को समझना और उनके बनाव बिगाड़ को सुधारने सम्भालने के लिए बहुत लम्बा-चौड़ा अध्ययन करना पड़ेगा और दीर्घ कालीन प्रशिक्षण लेना पड़ेगा। सौभाग्यवश यह प्रक्रिया जितनी जटिल ओर कठिन दीखती है उतनी ही सरल भी है। इस विद्या को एक शब्द में कहा जाय तो दृष्टिकोण का परिष्कार कह सकते हैं। यदि यह मान कर चला जाये कि हमें विवेक से प्रेरणा लेनी है और कर्तव्य का अवलम्बन करना है तो इतने भर से काम चल जाएगा। लोग क्या चाहते हैं, क्या करते हैं, क्या कहते हैं उस प्रवाह से यदि मुँह मोड़ लिया जाय और आदर्श क्या चाहता है, क्या कहता है को आधार मानकर अपने चिन्तन में उत्कृष्टता और कर्तृत्व में आदर्शवादिता भरी जाय तो उतने भर से काम चल जायेगा और जीवन काल का रहस्यमय विज्ञान सहज ही करतलगत हो जाएगा। तदनुसार शरीर, मन, साधन और परिवार का सुसंचालन कर सकने में निपुणता प्राप्त हो जाएगी। तब सुख-युक्त परिस्थिति और शान्ति पूर्ण मनः स्थिति का रसास्वादन पग पग पर उपलब्ध होने लगेगा।

जीवन की नीति निर्धारण करने में आत्मबल की और परिष्कृत क्रिया-पद्धति अपनाने में मनोबल की आवश्यकता पड़ती है। संक्षेप में इसे आन्तरिक साहसिकता कह सकते हैं। आर्ष ग्रन्थों और आप्तपुरुषों की भाषा में इसी को आध्यात्मिकता कहते हैं। स्वाध्याय सत्संग द्वारा उसी जीवन दर्शन को समझने का प्रयत्न किया जाता है और उपासना साधना द्वारा उसी प्रेरणा को हृदयंगम किया जाता है। आस्तिकता और धार्मिकता का समस्त कलेवर इसी प्रयोजन के निमित्त खड़ा किया गया है। ईश्वर की प्रसन्नता और अनुकम्पा का प्रत्यक्ष संबन्ध व्यक्ति के भाव संस्थान से है। उत्कृष्टता की भाव भूमिका में ही ईश्वर की दिव्य चेतना का अवतरण संभव हो सकता है। साधना उपक्रम का एक मात्र उद्देश्य अन्तः भूमिका का परिष्कार ही है। आत्मा की पवित्रतम और उदारतम स्थिति का नाम ही परमात्मा है। लोभ, मोह के बन्धनों को काटकर आदर्श और कर्तव्य के अपनाने का नाम ही मुक्ति है। स्वर्ग न तो स्थान है और न परिस्थिति। वह विशुद्ध रूप से परिष्कृत दृष्टिकोण ही है जिसे अपनाने वाला देव संज्ञा में गिना जाने लगता है और अति मानवी आनन्द का रसास्वादन करता है। प्रशंसा गान अथवा नाम जप से ईश्वरीय अनुग्रह मिलने की कल्पना बाल-विनोद मात्र है। उसका न कोई आधार है और न कारण। अमुक कर्मकाण्ड को देख कर अथवा अमुक उच्चारण को सुन कर ईश्वर प्रसन्न हो सकता है ऐसा सोचना परमब्रह्म की सत्ता और महत्ता का उपहास करने जैसा ही है। उपासना का तथ्य यदि न समझा जाय तो उस दिशा में किये गये प्रयत्न काल-क्षेप मात्र बन कर रह जायेंगे। हमें हजार बार जानना चाहिए और लाख बार समझना चाहिए कि अध्यात्म का एक मात्र अर्थ परिष्कृत दृष्टिकोण का अवलम्बन ही है। उपासना का प्रयोजन आत्मा को परमात्मा के स्तर तक पहुंचाने वाली उत्कृष्ट प्रेरणा को अंतःकरण के गहन-तप स्तर में प्रतिष्ठापित करना ही है। अन्यथा ईश्वर की किसी निन्दा- प्रशंसा से अथवा कर्मकाण्ड परक क्रिया-प्रक्रिया से क्यों कर प्रभावित कर सकना सम्भव हो सकता है?

दृष्टिकोण के परिष्कार को अन्तरंग और बहिरंग जीवन की सुख शांति का प्रेरणा स्रोत कहा जा सकता है। उसी के आधार पर शरीर को संयमशील व्यवस्था में कस कर स्वस्थ रखा जा सकता है। परिस्थितियों में ताल-मेल बिठा कर मन को संतुलित बनाया जा सकता है। साधनों का अपव्यय रोक कर उनका सदुपयोग हो सकता है और सहचरों के प्रति कर्तव्यपालन का उत्तरदायित्व निबाहा जा सकता है और असंयम उद्वेग, अपव्यय और व्यामोह इन चार नरक द्वारों में प्रवेश करने से बचा जा सकता है। जो इतना कर लेगा उसका सुख संतोष हर घड़ी- हर स्थिति में- अक्षुण्य बना रहेगा। साधनों और व्यक्तियों को गुलामी से- लोभ और मोह की लौह शृंखला से जिसने पराधीन रहना अस्वीकार कर दिया और समग्र आत्मनिर्भरता को ध्यान पूर्वक अपना लिया उस जीवन मुक्त के लिए यही धरती स्वर्गादपि गरीयसी होगी। इसी काय-कलेवर में देवत्व का अवतरण परिलक्षित होगा।

दृष्टिकोण का परिष्कार सर्वप्रथम अपने अन्तःकरण में विकसित करना होता है। जब उसकी पौध उपज आती है तब शरीर, मन, साधन एवं परिवार में प्रयोग करना पड़ता है। धान की फसल इसी तरह उगती है। उसे पहले एक जगह सघन बोते हैं। पीछे उसे उखाड़ कर जहां तहां आरोपित करते हैं। उद्यान नर्सरी भी पौध उगाने का व्यवसाय करती है। अपनी जमीनों में पेड़ लगाने वाले, नर्सरी से पौध खरीद कर ले जाते हैं। यही क्रम दृष्टिकोण के सम्बन्ध में भी चलता है।

अपना वास्तविक स्वरूप मानव जीवन का असाधारण महत्व- नर जन्म का चरम लक्ष्य, उसकी प्राप्ति का राजमार्ग यदि भली भांति समझ में आ जाय तो कहना चाहिये कि परिष्कृत दृष्टिकोण का अंकुर उग आये और उनका स्थूल जीवन के चारों क्षेत्रों में आरोपण सम्भव हो सकेगा। कहना न होगा कि इस आरोपण के फलस्वरूप उगने वाली फसल इतनी बहुमूल्य है कि उसे प्राप्त करने वाला हर दृष्टि से- हर दिशा में अपने आपको सुसंपन्न सौभाग्य शाली अनुभव करता है।

(1) मनुष्य ईश्वर का जेष्ठ राजकुमार है, (2) उसे सुसम्पन्न मानव शरीर इसलिए मिला है कि ईश्वरीय उद्यान को अधिकाधिक सुरम्य बनाने में बढ़ा चढ़ा कर योगदान प्रस्तुत करे। (3) शरीर और मन ढाल तलवार की तरह- छैनी हथौड़े की तरह थे मूल्यवान औजार उपलब्ध हैं जिनके सहारे अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ कर सकना सम्भव हो सके (4) परिवार की छोटी प्रयोगशाला लोक मंगल के निर्धारित कर्तव्यपालन की क्षमता विकसित करने का अभ्यास करने के लिए मिली है। इन चार महासत्यों को यदि अन्तःकरण के गहनतम स्तर में प्रतिष्ठापित किया जा सके तो मनुष्य को अपनी दिशा एवं रीति-नीति का निर्धारण करने में कोई कठिनाई नहीं रहती। तब वह न तो पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा के साथ जुड़ी हुई वासना, कृपणता एवं अहमन्यता में फँसने से स्पष्ट इनकार कर देता है। उसे न वस्तुओं का लोभ होता है और न व्यक्तियों का मोह सताता है। लक्ष्य की पूर्ति में समर्थ कर्तव्य निष्ठा ही उसे सुहाती है और उसका निर्धारण करने में आदर्शवादी दूरदर्शी विवेकशीलता ही मार्गदर्शन का प्रधान आधार बनती है। ऐसा व्यक्ति अन्धी भेड़ों की नीति अपनाकर चलने वाले लोक प्रवाह की धारा में कूड़े करकट की तरह बहने से स्पष्ट इनकार कर देता है। उसकी अपनी मौलिकता उभरती है और ऐसी दिशा अपनाने का प्रचण्ड साहस मारती है जो परम लक्ष्य तक पहुँचा सकने में समर्थ हो। इसी उत्साह भरी मौलिकता में एक विशेषता यह भी जुड़ी रहती है कि लोग क्या कहते हैं या चाहते हैं इसे देखने सोचने की पूर्ण उपेक्षा करते हुए उस आधार को अपना सकें, जिसमें लोक मंगल की विवेक और असत्य के विजयी होने की संभावनाएँ सन्निहित है।

परिष्कृत दृष्टिकोण का यह आत्मवादी चिन्तन मनुष्य को स्थायी ओर संकीर्ण नहीं रहने देता। वह न तो इन्द्रियों का गुलाम बनता है और न मन का। उसे न लोभ सताता है न मोह। न उसे आत्मश्लाघा व्याकुल करती है और न लोक प्रवाह के साथ बहने में रुचि होती है। कौन समर्थक है कौन विरोधी यह सोचने की भी उसे फुरसत नहीं होती। आत्मा की पुकार, विवेक की प्रेरणा ईश्वरी निर्देश की पूर्ति और परम लक्ष्य की प्राप्ति यह चारों विभूतियाँ उसे अत्याधिक मूल्यवान प्रतीत होती है। इतनी मूल्यवान विभूतियाँ जिस पर भौतिक आकर्षणों को सहज ही निछावर करके फेंका जा सके।

दृष्टिकोण के परिष्कार के साथ यह भी जुड़ा हुआ है कि जीवन के साथ जुड़े हुए शरीर, मन, साधन एवं परिवार के प्रति दूरदर्शिता पूर्ण रीति-नीति के साथ अपनाई जा सके। इसी कदम के साथ हमारी जीवन विधा में प्रगति, समृद्धि, प्रसन्नता का भरपूर समावेश होने की सम्भावनाएँ जुड़ी हुई है। विकृत दृष्टिकोण के कारण ही मनुष्य अवांछनीय गतिविधियाँ अपनाता है और फलस्वरूप विविध विधि शोक-संतापों में कष्ट-क्लेशों में डूबता उतराता है। ओछा चिन्तन, निकृष्ट जन समूह का अन्धानुकरण इसी का नाम माया बन्धन है। उसी में फँसा हुआ प्राणी भव बन्धनों में कसा जकड़ा-अगणित विपत्तियों से संत्रस्त रहता है। नरक इसी का नाम है। ग्रसित और विकृत चिन्तन अपना कर हम स्वयं ही अपने जलने गलने के लिए नरक का सृजन करते हैं और स्वयं स्वेच्छापूर्वक उसमें प्रवेश करते हैं।

सुख शान्ति की स्वर्गीय परिस्थिति और आनन्द उल्लास की देवोपम मनःस्थिति को प्राप्त करने के लिए हमें परिष्कृत दृष्टिकोण का अमृतपान करना होता है। तत्त्वदर्शी उसी को सोमपान कहते हैं। समस्त विपत्तियों से छूटने और सदैव हर्ष सन्तोष का रसास्वादन करने की आकांक्षा इसी मार्ग पर चलने से पूर्ण होती है। श्रेय साधन का इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग है ही नहीं। दृष्टिकोण का परिष्कार किये बिना निरीह नरक में से और किसी प्रकार छुटकारा हो ही नहीं सकता। समुन्नत ओर सुविकसित जीवन की महान् उपलब्धि चिन्तन को उत्कृष्ट बनाने के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। धर्म और अध्यात्म का एकमात्र प्रयोजन मानवी चेतना को इसी पुण्य पथ पर अग्रसर करना है। ईश्वर अनुग्रह का सर्वोपरि वरदान यही हो सकता है कि भक्ति के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहने वाली सद्भावनाएँ उमड़े और सत्प्रवृत्तियों के रूप में प्रत्यक्ष परिलक्षित हो। जहाँ इन उपलब्धियों का दर्शन नहीं होता हो, समझना चाहिए वहाँ आस्तिकता और धार्मिकता की विडम्बना ही है -यथार्थता नहीं।

मानवी गरिमा के अनुरूप भावात्मक उत्कृष्टता और क्रियात्मक आदर्शवादिता जब हम वस्तुतः अपनाते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया स्वार्थ के विकार, परमार्थ में विकसित होने के रूप में परिलक्षित होती है। ओछा आदमी लोभ में निमग्न और मोह में ग्रसित देखा जाता है। उसे पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। वासना और तृष्णा के अतिरिक्त और कुछ रुचिकर होता ही नहीं। शरीर और परिवार से आगे भी कुछ है क्या, यह समझ में ही नहीं आता। ऐसा अनुदार, संकीर्ण स्वार्थी और पाषाण हृदय मनुष्य, मानव जीवन की गरिमा समझता ही कब है जो उसके सदुपयोग की बात सोंचे। जो सोचा ही नहीं गया है वह किया तो जा सकेगा ही कैसे?

परिष्कृत दृष्टि जब विकसित होगी तो वह लोभ, मोह ओर वासना-तृष्णा की क्षुद्रता से छलाँग मारकर परमार्थ के क्षेत्र में प्रवेश करेगी। आत्मवत् सर्व भूतेषु की प्रतिध्वनि उसके हृदयाकाश के कण-कण में गूँजेगी और वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता, अपना सुख दूसरों को बाँट देने की - दूसरों का दुःख स्वयं बँटा लेने की व्याकुलता उत्पन्न होगी। उसे सूझेगा कि समस्त विश्व उसका घर है और समस्त मनुष्य उसके अपने सहोदर। जीवन पेट और प्रजनन पर उत्सर्ग करने के लिए नहीं वरन् देश, धर्म, समाज, संस्कृति के प्रति विश्व मानव के प्रति, लोकमंगल के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य उत्तरदायित्व हैं। उन्हें पूरा करने की आकुलता, उत्कृष्ट अन्तःकरणों में पीड़ा और व्यथा के रूप में इस प्रकार प्रकट होती है कि उसका समाधान ढूँढ़े बिना क्षण भर के लिए भी चैन नहीं पड़ता।

परिष्कृत दृष्टिकोण की प्रखरता का चिन्ह यह है कि समस्त विश्व ब्रह्माण्ड भगवान की साकार प्रतिमा दीख पड़े और उसे सुविकसित बनाने के लिए अपने मनोयोग युक्त श्रम बिन्दुओं की श्रद्धाञ्जलि समर्पण करने की भक्ति भावना जागे। इस सेवा साधना के दोनों रूप हो सकते हैं अभिवर्धन भी और उन्मूलन भी। कुशल माली अपने बगीचे को सुरम्य बनाने के लिए उसमें कुछ आरोपण करता है कुछ उखाड़-पछाड़ कुछ काट-छाँट आरोपण की तरह यह उन्मूलन भी महत्त्वपूर्ण विद्या है। सहयोग का सहोदर ही संघर्ष है। आवश्यकतानुसार दीपक और जल कलश की तरह उन दोनों ही शीत-ताप पुण्यों का प्रयोग करना पड़ता है। परिष्कृत दृष्टि से मानव जीवन की सार्थकता लोक मंगल के क्रिया कलाप को व्यक्तिगत लाभ व्यवसाय की तरह ही परम रुचिकर मानने और उसमें उत्साहपूर्वक प्रवृत्त होने में मानी जा सकती है। जिसे सभी अपने दीखने लगेंगे वह परिवार के चन्द लोगों को ही अपना मान बैठने और अन्य सभी को पराया समझने की भूल नहीं कर सकता है। सब के सुख-दुःख में अपनी साझेदारी सबके विकास अभिवर्धन में अपनी प्रगति का अनुभव करना यही तो अध्यात्म दृष्टि है। साधना और उपासना का प्रतिफल आत्म विस्तार के रूप में ही उपलब्ध होता है। संकीर्ण स्वार्थपरता के बन्धनों को तोड़ फोड़ कर फेंक देने और विराट् के साथ अपनी आत्मीयता जोड़ लेने का ही नाम मुक्ति है। स्वर्ग के दो पक्ष है उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व। जिसके अन्त करण में इन दोनों की प्रतिष्ठापना हो गई समझना चाहिए उसने मनुष्य शरीर में रहते हुए ही देवयोनि प्राप्त कर ली।

देव मानव न केवल आत्म-कल्याण का लक्ष्य सम्पन्न करते हैं वरन् शरीर, मन, साधन एवं परिवार की दृष्टि से भी सुसंतुलित रहते हैं। विकृतियाँ तो अपने ही दृष्टिकोण की होती है जो रुग्णता, उद्विग्नता, दरिद्रता और गृह कलह के रूप में प्रकट होती है। जीवन की जड़ में यदि सुसंस्कृत चिन्तन का जल लगता रहे तो उसके सभी पत्र पल्लव हरे भरे रहेंगे और उसे फला - फूला सुरम्य सुविकसित देखा जा सकेगा। इसी सर्वांगीण सुख शान्ति को मानव जीवन की सार्थकता कहा जा सकता है। उसकी उपलब्धि पूर्णतया अपने हाथ में है। आत्मचिन्तन, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास को अपनी नीति-निष्ठा में परिणित कर लिया जाय तो हमारा जीवन प्रवाह उस दिशा में सहज ही बह निकलेगा जिसमें अक्षय सुख-शान्ति के आनन्द-उल्लास के अनुदान पग-पग पर भरे पड़े हैं।

शौर्य और साहस की सर्वोत्तम कसौटी यह है कि हम अपने दृष्टिकोण को न केवल परिष्कृत करें वरन् उसे व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित करने का पुरुषार्थ, पराक्रम भी कर सकने में सफलता प्राप्त करें। पढ़ने, जानने, सोचने और मानने की मस्तिष्कीय परिधि तक आदर्शों का सीमित रहना, उन्हें कार्यान्वित करने में असमंजस अनुभव करते रहना बहादुरी का चिन्ह नहीं है। आत्मबल और मनोबल की परख केवल एक ही कसौटी पर होती है कि आदर्शवादी मान्यता ने क्रियाशील होने की दिशा में कितनी प्रगति की, कुसंस्कारी ढर्रे को तोड़ फेंकने और उसके स्थान पर महामानवों के स्तर की विधि व्यवस्था अपनाने में कितनी हिम्मत दिखाई। परिवर्तनकाल में जो हिचक होती है, निम्नगामी प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाने में जो दुस्साहस करना पड़ता है उसके लायक अपने पास शक्ति नहीं। योद्धा दूसरों का सिर काटने वाले को नहीं कहते, सच्चे शूरवीर वे हैं जो अपनी प्रवृत्तियों को महामानवों के स्तर तक बदलने में अपने प्रचण्ड पराक्रम का परिचय दे सके। अपना दृष्टिकोण सुधार सके। अपना कर्तृत्व उलट सके।

युग परिवर्तन की इस पुण्य वेला में जागृत आत्माओं के लिए यह खुली चुनौती है कि वे अपना दृष्टिकोण परिष्कृत करें। अपनी रीति-नीति बदलें। अनुकरणीय आदर्शवादिता के लिए दुस्साहस कर सकना न तो कठिन है न असम्भव। इसका उदाहरण अपने आचरण द्वारा जन साधारण के सामने प्रस्तुत करना होगा। देव परम्परा का प्रवाह इसी आधार पर गतिशील होगा। परोपदेश की प्रवीणता प्राप्त करके वाक् विलास भर हो सकता है उससे कुछ बनता नहीं। दूसरों को गहरी प्रेरणा देने का एक मात्र उपाय यही है कि हम अपना आदर्श प्रस्तुत करके उनमें अनुगमन का साहस उत्पन्न करें। व्यक्तियों का परिवर्तन ही युग परिवर्तन है। नव युग में भी लोगों की आकृति तो यही रहेगी केवल प्रकृति बदलेगी। आहार विहार तो यही रहेगा केवल आचार व्यवहार बदलेगा। व्यक्तियों का समूह ही तो विश्व है। विश्व शान्ति का भाव व्यक्तिगत शान्ति की ईंटों से ही चुना जा सकता। इस परिवर्तन के लिए दूसरों को प्रेरणा दी जाय यह ठीक है पर उसके लिए मात्र वाचालता को ही पर्याप्त न माना जाय। आदर्शों को व्यवहार में किस प्रकार लाया जा सकता है इस असम्भव समझे जाने वाले तथ्य को यदि हम स्वयं संभव करके दिखायें तो इससे लोक शिक्षण की अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्राथमिक आवश्यकता को पूरा किया जा सकेगा।

दुष्प्रवृत्तियों का नागपाश गले में बाँधे सर्वनाश के पथ पर दौड़ी जा रही दुनिया को आत्मघात से बचाया जाना चाहिए। मानवी सभ्यता का अस्तित्व मिटाने को आतुर सर्वभक्षी विभीषिकाओं का मुँह मोड़ा जाना चाहिए। यह महान् कार्य एक दूसरे पर निर्भर रहने से सम्भव न हो सकेगा। आरम्भ हमें स्वयं ही करना होगा और व्यक्ति को, विश्व को जैसा कुछ बनाना चाहते हैं वैसा उदाहरण अपने आपे में अभीष्ट परिवर्तन करके प्रस्तुत करना होगा। आज इसी साहसिकता की परीक्षा बेला है। उचित यह है कि अर्जुन की कायर भूमिका को पददलित करने के लिए गीता ज्ञान का अमृत पियें और गाण्डीव पर बान धर सन्धान करते हुए तुच्छ समझे जाने वाले आज के उपहासास्पद भारत को महाभारत बनाने के लिए जुट पड़ें और सृजन संग्राम में अपनी भूमिका बढ़-चढ़ कर प्रस्तुत करें।

स्वार्थी, संकीर्ण और निकृष्ट दृष्टिकोण को त्यागने में हमें केवल अपने चारों ओर घिरे हुए नरक को ही खोना पड़ेगा और कुछ गँवाया जाना नहीं है। दृष्टिकोण को परिष्कृत बनाने और आदर्शवादी कर्तृत्व के लिए अड़ जाने में हमें शरीर, मन, साधन और परिवार में सर्वतोमुखी सुख-शान्ति ही मिलनी है। इतना ही नहीं इसी प्रवाह में जीवन लक्ष्य की प्राप्ति और युग पुकार की उस महती आवश्यकता की पूर्ति भी होती है जिसके आधार पर हम नर पशु से ऊँचे उठकर ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत करने वाले महामानवों की पंक्ति में जा बैठते हैं।


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