आलस और असावधानी से अस्तित्व को खतरा

August 1973

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जीवित वे रहते हैं जो सतर्क रहते हैं और सामयिक परिस्थितियों से जूझने का साहस करते हैं। जिन्होंने प्रमाद बरता और सरलता का जीवन जीने की राह ढूँढ़ी, उन्हें यह आरामतलबी बहुत महँगी पड़ी है। प्रकृति की विघातक शक्तियाँ इसी फेर में रहती है कि कब किसे बेखबर और कमजोर पाये और किसे कब कैसे धर दबोचे। यह संसार कुछ ऐसा ही विचित्र है, यहाँ उपयोगी का चुनाव वाला क्रम काम करता रहता है और जो संघर्ष से बचता डरता पाया जाता है उसी पर विपत्ति का कुल्हाड़ा चलने लगता है। सरलता और सुविधा के फेर में जिन्होंने अपने सतर्कता संघर्षशीलता गँवा दी उन्हें देर सबेर में अपने अस्तित्व से भी हाथ धोना पड़ता है।

रूस की विज्ञान एकेडेमी के पुराजीव संग्रहालय में लाखों वर्ष पुराने जीव कंकालों का संग्रह किया गया है। इनमें सबसे बड़ा कंकाल सारो लोफ वर्ग की एक विशालकाय ‘डायनोसौर’ का है जो 23 फुट ऊँचा हैं। यह मंगोलिया में पाया गया था। ऐसी प्रागैतिहासिक दुर्लभ वस्तुएँ उसी क्षेत्र में मिली हैं। मंगोलिया में समुद्र की सतह से कोई 3200 फुट ऊँचा एक पठार है। समुद्री हलचलों से वह स्थान पिछले 10 करोड़ वर्षों से सुरक्षित रहा है। वहाँ का गोबी रेगिस्तान चिर अतीत की भौगोलिक गाथाओं और जीव इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ अपनी छाती से छिपाये बैठा है। अन्वेषकों का बहुत ध्यान इस क्षेत्र पर है उपरोक्त कंकाल वही से मिला है।

किसी समय मनुष्य भी अब की अपेक्षा काफी लम्बे तगड़े थे पर उनमें बुद्धि की कमी रही। प्रकृति के अवरोधों से अपना बचाव करने की बात न सोच सके फलतः उनकी विशेषताएँ घटती चली गई। लुप्त होने से जो बच सके तो उनकी पीढ़ियाँ कद और वजन की दृष्टि से हलकी होती चली गई ओर वही स्थिति अब तक चली आ रही है।

सन् 1939 में जावा इण्डोनेशिया में सोलो नदी के किनारे खुदाई करते हुए पुरातत्त्ववेत्ता क्योनिंगवाल्ड को एक ऐसा मनुष्य का जबड़ा मिला था जो बताता था कि प्राचीनकाल के मनुष्य अब की अपेक्षा काफी लम्बे चौड़े थे। उन्हें दो वर्ष बाद सन् 41 में उससे भी बड़ा जबड़ा प्राप्त हुआ जिससे पता चलता है कि भूतकाल के दैत्याकार मनुष्यों की जैसी किंवदन्तियाँ प्रचलित है वे निराधार नहीं है।

दैत्याकार मानवों के शोध प्रसंगों में चीन के विभिन्न स्थानों पर कुल मिलाकर मानव प्राणी के 49 दाँत ऐसे मिले हैं जो अब के मनुष्यों की तुलना में छः गुने बड़े हैं। दैत्याकार अस्थि पिंजरों के टुकड़े प्रायः चार लाख वर्ष पुराने माने गये हैं। इन अस्थियों से एक और रहस्योद्घाटन होता है कि पुराने समय में जबड़े बड़े थे और मस्तिष्क का आकार जैसे-जैसे बढ़ा वैसे वैसे जबड़ा छोटा होता चला गया। पंख युक्त होते हुए भी उड़ सकने की क्षमता से रहित पक्षियों में मोआ, रही, कीवी, कैसावरी, एमू, शुतुरमुर्ग और पेन्गुइन मुख्य है। यों पालतू मुर्गे और मोर भी धीरे-धीरे अपने उड़ने की क्षमता खोते चले जा रहे हैं। इस स्तर के और भी कुछ पक्षी हैं जिनका स्वाभाविक वजन बढ़ता जा रहा है। और वे उड़ने की दृष्टि से अपंग होते चले जा रहे हैं।

न्यूयार्क के म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री में पिछले दिनों न्यूजीलैण्ड में पाये जाने वाले मोआ पक्षी का अस्थि पिंजर रखा है इसकी ऊँचाई 13 फुट थी और वजन 500 पौण्ड। यह पक्षी अपने उड़ने की क्षमता खो चुका था।

अमेरिकी शुतुरमुर्ग कभी भूमिचारी था। नर के साथ 5-10 मादाएँ रहती थीं। मादाएँ वन-विहार करती थीं और नर सबके अण्डे बच्चे सम्भालने घर पर रहता था उसे चारे दाने के लिए तभी बाहर जाने की अवसर मिलता था जब मादाएँ उसे वैसी सुविधा और आज्ञा प्रदान कर दे।

न्यू गायना में पाया जाने वाला कैसेवरी धरती पर सुविधाजनक रीति से आहार पाकर संतुष्ट हो गया और उड़ने का परिश्रम करने से जी चुराना शुरू कर दिया फलस्वरूप उसकी उड़न शक्ति विदा हो गई और धरती पर रहने वाली लोमड़ियाँ उसे चट कर गई। यही हाल आस्ट्रेलियाई एमू का हुआ। दौड़ने की क्षमता गँवा बैठने के बाद उसे अकल आई तब उसने तेज दौड़ने का अभ्यास करके किसी प्रकार जान बचाने की तरकीब लड़ाई। इससे भी काम नहीं चला, जो एक बार हारा सो हारा। धूर्त शिकारियों ने उसका अस्तित्व निर्दयता पूर्वक मिटा ही डाला। गोल गोंद जैसे कोवी अब कुछ ही दिन में धरती पर से उठ जायेंगे। आलसी नर घर पर पड़ा-पड़ा अण्डे बच्चे सेता रहता है। बेचारी मादा को ही आहार जुटाने के लिए भी दौड़ धूप करनी पड़ती है। 80 दिनों में जब तक पिछले बच्चे उड़ने योग्य हो पाते तब तक मादा पर नये बच्चे देने का भार आ पड़ता है इस प्रकार वह प्रजनन का ही कष्ट नहीं उठाती, परिवार का पेट पालने में भी मरती खपती है। नर को आलस मारे डाल रहा है और मादा की जान अति भार बहन से निकली जा रही है। इस असंतुलन का परिणाम सामने है यह सुन्दर पक्षी, पंख तो पहले ही गँवा चुका था अब प्रकृति के निर्दय रंग मंच पर अपनी सत्ता भी समाप्त करने जा रहा है।

प्रकृति के साथ संघर्ष करने में जो प्राणी साहस और सतर्कता के साथ संलग्न है उन्हें अतिरिक्त परिश्रम तो करना पड़ता है पर अपने अस्तित्व को भली प्रकार अक्षुण्ण रखे हुए है।

कुछ बतख जल तट पर नहीं पेड़ों पर अण्डे देती है और जब बच्चे कुछ समर्थ हो जाते हैं तो उन्हें पीठ पर लाद कर पेड़ से नीचे लाती है। हिप्पो, समुद्री ऊदबिलाव भी अपने बच्चों को पीठ पर लादते हैं। मादा बिच्छू की पीठ पर तो तीस की संख्या तक बच्चे लदे देखे गये हैं। चलते समय जो गिर पड़े उन्हें उठाकर फिर पीठ पर लाने का काम भी मादा को ही निपटाना पड़ता है। चमगादड़ के बच्चे अपनी माँ की गरदन पकड़ कर लटके रहते हैं। कंगारू के बच्चे माता के पेट से सटी हुई थैली में बहुत दिनों तक गुजर बसर करते हैं।

गिनी चकमो और हेमड्रेज वानर मिश्र ओर एवीसिनिया में धार्मिक श्रद्धा के पात्र समझे जाते हैं। दक्षिणी एवीसीनिया में पाये जाने वाले गेलेडा जब समूह बद्ध युद्ध करते हैं तब उनका रण कौशल मनुष्य युद्ध विद्या विशारदों के लिए भी देखने समझने योग्य होता है लगता है कि चक्रव्यूह विद्या के अनेक पक्ष अभिमन्यु की तरह गर्भ में से ही सीख कर आये हैं। उनका रौद्र रूप देखकर आक्रमणकारी चीता भी दुम दबाकर भागता है।

कृमि कीटकों की प्रायः 50 जातियाँ इस पृथ्वी पर होने का अनुमान है। इनमें से 20 लाख की खोज खबर मनुष्य द्वारा अब तक ली जा चुकी है। संसार में आँखों से दीख पड़ने वाले जितने जीवधारी बसते हैं उनमें से 75 प्रतिशत यह कीट पतंगे ही हैं।

आत्मरक्षा, ऋतु प्रभाव और आहार उपलब्धि एवं वंश वृद्धि की समस्याओं को सुलझाने के लिए उन्हें अपनी आकृति-प्रकृति में सृष्टि के आदि से लेकर समयानुसार अनेक परिवर्तन करने पड़े है। परिस्थितियाँ उनकी इच्छानुसार नहीं बन सकती थीं तो अपने आपको उन्होंने बदलना आरम्भ किया फलस्वरूप अभावग्रस्तता, असुविधा और विघातक परिस्थितियों से अपने अस्तित्व को बचाये रहना उनके लिए सम्भव हो सका।

हवा और पानी के प्रवाह में से अक्सर कहीं से कहीं पहुँच जाते हैं। परिवर्तन आकांक्षा से प्रेरित हो कर भी रेंगते फुदकते उड़ते दूर-दूर की ऐसी यात्राएँ कर लेते हैं जहाँ अनभ्यस्त आहार और अजनबी वातावरण में ही निर्वाह करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। तब प्रकृति उनके शरीरों में तेजी से परिवर्तन करती है और इस लायक बना देती है कि वे नये वातावरण में गुजर कर सके।

कछुआ को प्रकृति ने जलचर के रूप में बनाया है। वह जलाशयों के समीपवर्ती तटों पर भी रह सकता है पर जब उसे परिस्थिति वश कठोर पर्वतों पर रहना पड़ा तो वह पाषाण कच्छप के रूप में बदल गया ओर चट्टानों के बीच ही निर्वाह करने लगा। बिलों में रहने वाला सर्प आहार की सुविधा के लिए जलाशयों की मछलियाँ आसानी से प्राप्त करने लगा तो उसने जलचर बनना अंगीकार कर लिया और जल सर्पों की जातियाँ अस्तित्व में आई।

आक्रमणकारियों से अपना बचाव करने, शिकार पकड़ने के दाँव पेंच सफल बनाने के लिए इन कीड़ों ने पेड़-पौधों की पत्तियों में छिपे रहने योग्य काय -कलेवर का रंग रूप आवश्यक समझा । तदनुसार अधिकांश कीड़े डाल-पात की हरियाली में छिप सकने जैसे रंग रूप के बने गये। फलों पर उड़ने वाले तितलियों का रंग-रूप प्रायः वैसा ही रंग-बिरंगा हो गया। जिराफ़ की चमड़ी के दाग धब्बे ऐसे होते हैं जिससे वह दूर से देखने वालों को झाड़ी मात्र प्रतीत हो।

सींग, विष-दंत दाँत, पंजे प्रायः इसी आधार पर बने हैं कि वे अपना आहार सरलता पूर्वक पकड़ने और खाने में सफल रहें। पेट के पाचन यन्त्रों में भी इसी आधार पर विकास परिवर्तन होता रहा है।

दुर्बलकाय सीप और घोंघे, शंख, शम्बुक, कौडी, जाति के कीड़ों ने आत्मरक्षा का एक उपयोगी उपाय सोचा है- अपने चारों और एक मजबूत कवच का निर्माण करना। वे अपने शरीर में से ही एक अजीब किस्म का रस निकालते हैं और उसकी परतें शरीर के चारों ओर चढ़ाते चले जाते हैं। समयानुसार यह परत इतनी मजबूत हो जाती है कि शिकारी जल जीव इनका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर पाते और सुरक्षित शान्तिपूर्ण जीवन यापन करते हैं। इन कीटकों की कुशलता उन पर चढ़े कवचों की आकर्षक सुन्दरता के रूप में दर्शकों का मन मुग्ध करती है।

जो हो इस विश्व में सजगता, समर्थता और सक्रियता का अपना महत्त्व है इन्हें गवाँ कर जो आलसी बनते हैं असावधान रहते हैं उनकी सुविधा को प्रकृति सहन नहीं कर सकती और एक दिन झल्लाकर छीन ही लेती है। उसे तो पुरुषार्थ और संघर्ष ही भाता है।


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