अहं के चंगुल में जकड़ा संसार

August 1973

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भगवान ने दुनिया बनाई। उसकी सुन्दरता देखकर वे स्वयं मुग्ध हो गये। सोचने लगे, ऐसे सुन्दर उद्यान का कोई माली होना चाहिए। सो उन्होंने मनुष्य की रचना कर डाली।

मनुष्य ने धरती देखी, तो प्रसन्न हो गया। धरती ने मनुष्य को पाया, तो फूली न समाई, पर यह स्थिति देर तक न रही। मनुष्य यह भूल गया कि उसे किसने, किस प्रयोजन के लिए बनाया है ? उसने धरती की हर चीज का अपने को स्वामी घोषित किया और आत्मश्लाधा भरे अहंकार के गीत गाने लगा। अधिकार, अधिकार, अधिकार और उसे कहीं कुछ सूझा ही नहीं। कर्तव्य तो मानो उसने पूरी तरह भुला ही दिया।

बहुत दिन बाद भगवान धरती का निरीक्षण करने आये। मनुष्य की हरकतों पर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उनने नये प्रतिनिधि भेजने की बात सोची। मन्दिर में ज्ञानदीप को संसार का मार्गदर्शक बनाकर प्रतिष्ठापित किया और उस देवदूत से कहा– तुम ज्ञान का आलोक फैलाना, ताकि प्राणियों को सही मार्गदर्शन मिलता रहे। शास्त्र, धर्म और गुरुओं के रूप में दीपक से अग्नि, तेल और बाती का सम्मिलित प्रकाश आलोकित होने लगा।

बहुत दिन नहीं बीतने पाये, कि दीपक की अंतःस्थिति गृह-कलह से भरने लगी। अवयवों में अहं फूटा और वे अपना वर्चस्व सिद्ध करने के लिए आतुर रहने लगे। जो कुछ हो रहा है, मेरे कारण ही है, अन्य सब तो तुच्छ हैं। यह गर्वोक्ति साथी सहन न कर सके। उनका अहंकार तिलमिलया, तो तनकर खड़े हो गये और बोले– हम भी क्या कुछ कम हैं।

कलह-संवाद में तर्कों का और तथ्यों का भरपूर प्रयोग किया गया। बाती कहती थी- “अग्नि को धारण मैंने कर रखा है। जलती मैं हूँ। प्रकाश तो मैं ही फैलाती हूँ साथी लोग तो ऐसे ही मेरे साथ जुड़े हैं।”

तेल बोला– रुई की चिन्दी ! बढ़-चढ़ कर बात मत बना। मैं ही हूँ, जो तुझे सिक्त करता हूँ। स्वयं पैरों में पड़ा रहकर जलता हूँ। तू है, जो श्रेय-सम्मान भी पाती है और घटती-गलती भी नहीं। मिट्टी का दिया क्यों पीछे रहता। बोला– तुम लोगों का आखिर आधार क्या है ? टिके किस पर हो ? मेरे अभाव में तुम लोगों का मिलन तक संभव न हो सकेगा। अग्नि देवता कुछ कहना ही चाहते थे कि तीनों एक स्वर से बोले आप तो देखने भर के हैं, बिना अस्तित्व के। हम लोग ही हैं, जो चलते हैं, पर नमन आपका होता है। सिट-पिटाकर अग्नि देव चुप तो हो गये, पर आक्रोश यही कहता रहा– मूर्खों ! मेरे बिना तुम लोग घिनौने उपकरण मात्र हो बढ़-बढ़ कर डींग हाँकते हुए 'छोटे मुँह बड़ी बात' वाला उदाहरण प्रस्तुत करते हो।

यह विवाद मन्दिर की प्रतिमा शान्तिपूर्वक सुनती रही। वह उस दार्शनिक प्रतिपादन की यथार्थता को मूर्तिमान देखती रही, जिसमें कहा गया है कि– "बुद्धिमान की जीभ हृदय में और मूर्ख का हृदय जीभ में होता है।” इन मूर्खों को इतना तक नहीं सूझता कि ज्ञान-दीप का महत्त्व देवालय में स्थापित होने के कारण ही है। यही दीपक यदि शौचालय में रखा होता, तो किसको क्या और कितना श्रेय मिलता ?

भगवान को विश्वास था कि मनुष्य न सही– देवालय सही, संसार को सन्मार्ग दिखाने का कार्य तो हो ही रहा होगा। शास्त्र, धर्म और विद्वानों की सम्मिलित शक्ति ने वैसा ही वातावरण उत्पन्न किया होगा, जैसा कि मैं चाहता था।

अपनी आशा को प्रत्यक्ष देखने की आकांक्षा लेकर भगवान फिर स्वर्गलोक से धरती पर उतरे। उन्होंने पहले देवालय में पदार्पण किया, क्योंकि उनकी अभिलाषा का केन्द्र वहीं पर केन्द्रीभूत किया गया था।

गृह-कलह का विवाद, उन्होंने देव प्रतिमा में प्रवेश करके, ध्यान पूर्वक सुना। तेल, बाती, दीपक ही नहीं, अग्नि में भी इस प्रकार अहं उमड़ता देखा, तो उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। जिन्हें संसार में प्रकाश उत्पन्न करना था, वे स्वयं ही अन्धकार में भटक गये, फिर मार्गदर्शन किसका करेंगे ?

अहं एक कोने में खड़ा भगवान पर करारे व्यंग कर रहा था और कह रहा था भले ही आप परमेश्वर हो– भले ही आपने संसार बनाया हो अथवा मनुष्य सृजा हो। देवालय स्थापित कराये या ज्ञानदीप जलाये। जब तक मेरा वश चलेगा, आपकी इच्छा पूरी नहीं होने दूँगा। ऐसा कुछ हो ही नहीं सकेगा, जिस पर आप संतोष व्यक्त कर सकें।

भगवान सोचने लगे– अहं का सृजन करके मैंने कितनी भूल की। तब से अब तक वे इसी सोच में लगे हैं कि अहं के चंगुल में फँसे इस संसार की सुन्दरता को कैसे बचाया जाय ?



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