दयालुता का दंभ

August 1973

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एक पादरी ने स्कूल भी चला रखा था। वे बच्चों को रोज शिक्षा देते कि दया का काम जरूर करना चाहिए। शिक्षा देते हुए दिन हो गये, तो उनने सोचा– लड़कों से पूछूँ तो, कि क्या कोई दया-धर्म पालन के लिए उत्साहित हुआ भी या नहीं?

उस दिन पादरी पूछ ही बैठे– "जिनने इस महीने कुछ दया के काम किये हों, वे हाथ उठाये।"

तीन लड़कों ने हाथ उठाये। पादरी ने उन्हें पास बुलाया और प्यार से पूछा– "बच्चों! बताओ तो, तुमने भला क्या-क्या दयालुता के काम किये ?"

पहले लड़के ने कहा– "एक जर्जर बुढ़िया को मैंने हाथ पकड़कर सड़क पार कराई।" पादरी ने उसकी प्रशंसा की।

दूसरे से पूछा गया, तो उसने भी एक बुढ़िया को हाथ पकड़कर सड़क पार कराने की बात कही। पादरी ने उसे भी शाबाशी दी।

तीसरे ने भी जब वही बुढ़िया का हाथ पकड़कर सड़क पार कराने वाली बात कही, तो पादरी को संदेह भी हुआ और आश्चर्य भी। उनने पूछा– "बच्चों! कहीं तुमने एक ही बुढ़िया का हाथ पकड़कर तो सड़क पार नहीं कराई थी ?"

बच्चों ने एक स्वर से कहा– "हाँ हाँ ! बिलकुल! ऐसा ही किया गया था।" अब तो पादरी का आश्चर्य और भी अधिक बढ़ा। उनने फिर पूछा– "भला, एक ही बुढ़िया को पार कराने के लिए तुम तीनों को क्यों जाना पड़ा ?"

लड़कों ने कहा– "हमने उसे कहा था, हमें दया धर्म का पालन करना है। चलो तुम्हें हाथ पकड़कर सड़क पार करायेंगे। बुढ़िया रजामंद नहीं हुई। उसने कहा 'मुझे जहाँ जाना है, वह पटरी के इसी किनारे पर है। सड़क पार करने की मुझे तनिक भी आवश्यकता नहीं है।' इस पर हम तीनों चिपट गये और उसके हाथ पकड़कर घसीटते ले गये और सड़क पार कराके ही माने।"

पादरी लड़कों द्वारा आत्म-लाभ के लिए किए गये इस धृष्ट परोपकार से बड़ा दुःखी हुए। वे कुछ देर मुँह लटकाये बैठे रहे, पर फिर यह सोचकर शान्त हो गये कि दुनिया में लोकसेवा के नाम पर यही विडम्बना तो चल रही है, अकेले बच्चे ही तो गुनहगार नहीं है।


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