हर किसी की दुनियाँ उसी की विनिर्मित है।

August 1973

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दुनिया वैसी ही नहीं-जैसी कि हम उसे देखते हैं। सच तो यह है कि संसार के समस्त पदार्थ कुछ विशेष प्रकार के परमाणुओं की भागती दौड़ती हलचल मात्र है। हमारी आँखों की संरचना और मस्तिष्क का क्रिया कलाप जिस स्तर का होता है उसी प्रकार की वस्तुओं की अनुभूति होती है।

हमारी आँखें जैसा कुछ देखती है आवश्यक नहीं दूसरों को भी वैसा ही दिखे। दृष्टि के मन्द, तीव्र, रुग्ण निरोग होने की दशा में दृश्य बदल जाते हैं। एक को सामने का दृश्य एक प्रकार का दीखता है तो दूसरे को दूसरी तरह का। यही बात स्वाद के सम्बन्ध में है। रोग में मुँह का जायका खराब होने के कारण हर वस्तु कड़वी लगती है। पेट भरा होने या अपच रहने पर स्वादिष्ट वस्तु का भी स्वाद बिगड़ जाता है। बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती, हर मनुष्य के मुख के स्राव में कुछ न कुछ रासायनिक अन्तर रहता है जिसके कारण एक ही खाद्य पदार्थ का स्वाद हर व्यक्ति को दूसरे की अपेक्षा कुछ न कुछ भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यों नमक, शक्कर आदि का स्वाद मोटे रूप से खारा या मीठा कहा जा सकता है पर यदि गम्भीर निरीक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि इस खारापन और मिठास के इतने भेद प्रभेद है जितने कि मनुष्य। किसी का स्वाद किसी में पूर्णतया नहीं मिलता, कुछ न कुछ भिन्नता रहती है। यही बात आँखों के संबन्ध में हैं आँखों की संरचना और मस्तिष्क की बनावट में जो अन्तर पाया जाता है उसी के कारण एक मनुष्य दूसरे की तुलना में कुछ न कुछ भिन्नता के साथ ही वस्तुओं तथा घटनाओं को देखता है।

मनुष्यों और पशु पक्षियों की आँखों की सूक्ष्म बनावट में एवं मस्तिष्कीय संरचना में काफी अन्तर है इसलिए वे वस्तुओं को उसी तरह नहीं देखते जैसे कि हम देखते हैं उन्हें हमारी अपेक्षा भिन्न तरह के रंग दिखाई पड़ते हैं।

रूस की पशु प्रयोगशाला ने बताया है कि बैल को लाल रंग नहीं दीखता, उनके लिए सफेद ओर लाल रंग एक ही स्तर के होते हैं इसी तरह मधु-मक्खियों को भी लाल ओर सफेद रंग का अन्तर विदित नहीं होता। जुगनू सरीखे कीट पतंग एक अतिरिक्त रंग अल्ट्रावायलेट भी देखते हैं जो मनुष्यों की आँखें देख सकने में असमर्थ है। पक्षियों को लाल, नीला, पीला और हरा यह चार रंग ही दीखते हैं हमारी तरह वे न तो सात रंग देखते हैं और न उनके भेद उपभेद से ही परिचित होते हैं।

ठीक इसी प्रकार हरी घास की हरीतिमा सबको एक ही स्तर की दिखाई नहीं पड़ेगी। किन्तु हमारी भाषा का अभी इतना विस्तार नहीं हुआ कि इस माध्यम से हर व्यक्ति को जैसा सूक्ष्म अन्तर उस हरे रंग के बीच दिखाई पड़ता है उसका विवरण बताया जा सके। यदि अन्तर प्रत्यन्तर की गहराई में जाया जाय तो स्वाद और रग के अन्तर बढ़ते ही चले जायेंगे और अन्ततः यह मानना पड़ेगा, कि जिस तरह हर मनुष्य की आवाज शकल और प्रकृति में अन्तर होता है उसी प्रकार रगों की अनुभूति में भी अन्तर रहता है। स्वाद के सम्बन्ध में भी यही बात है। गन्ध में भी यही अन्तर रहेगा। सुनने और छूने में भी हर व्यक्ति को दूसरे से भिन्न प्रकार का अनुभव होता है। यह भिन्नता बहुत ही सूक्ष्म स्तर की होती है पर होती अवश्य है।

सच तो यह है कि स्वाद की तरह रगों की अनुभूति में भी हर मनुष्य का अनुभव एक दूसरे से पूरी तरह नहीं मिलता और उसमें अन्तर होता है। यह अन्तर इतना सूक्ष्म होता है कि उसका वर्णन हमारी शब्दावली ठीक तरक से नहीं कर सकती। एक वस्तु की मिठास एक व्यक्ति को जैसी अनुभव होती है दूसरे को उसकी अनुभूति जैसी होगी उसमें अन्तर रहेगा और अन्तर इतना हल्का है कि सभी लोग गन्ने की मीठा कह सकते हैं पर इस मिठास को किसने किस स्तर का अनुभव किया इसकी सूक्ष्म परीक्षा व्यवस्था हो तो सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक ने दूसरे से काफी अन्तर वाली मिठास चखी है। इसका कारण मुख में रहने वाले रासायनिक द्रवों की संरचना एवं मात्रा में अन्तर होना होता है।

हमारी आँखें जिस वस्तु का जो रंग देखती है क्या वस्तुतः वह उसी रंग की है? हमारी आँखों को जिस वस्तु का जो रंग दीखता है क्या अन्य जीवों को भी वैसा ही दीखता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर बेखटके नहीं दिया जा सकता है।

तथ्य यह है कि वस्तुतः किसी पदार्थ का कोई रंग नहीं है। अणुओं की विशेष प्रकार की संरचना ही सघन होकर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं जैसी बनती है अणुओं का कोई रंग नहीं। फिर रंगीनी क्या है?

वस्तुएँ सूर्य की केवल सफेद किरणों को आत्मसात् करती है और उन किरणों के किसी एक रंग को प्रतिबिम्बित करती है। पौधों की पत्तियाँ हरे रंग की इसलिए दीखती है कि वे सूर्य किरणों का हरा रंग पचा नहीं पाती और उसको उलटी कर देती है। पत्तियों द्वारा किरणों का हरा-रंग वापिस फेंक देना, यही है उनका हरा रंग दिखाई पड़ना।

तत्त्व ज्ञानियों का यह कथन एक दृष्टि से सर्वथा सत्य है कि-हर मनुष्य की अपनी दुनिया है। वह उसकी अपनी बनाई हुई है और उसी में रमण करता है। दुनिया वस्तुतः कैसी है? इस प्रश्न का एक ही उत्तर हो सकता है कि वह जड़ परमाणुओं की नीरस और निर्मम हलचल मात्र है। यहाँ अणुओं की धूलि बिखरी पड़ी है और वह किन्हीं प्रवाहों में बहती हुए इधर-उधर भगदड़ करती रहती है। इसके अतिरिक्त यहाँ ऐसा कुछ नहीं है जिसे स्वादिष्ट अस्वादिष्ट या रूपवान् कुरूप कहा जा सके। हमें नीम की पत्ती कड़वी लगती है पर ऊँट उन्हें रुचिपूर्वक खाता है। संभव है कि उसे वे पत्तियाँ बिस्किट या मिठाई की तरह मधुर लगती हो। वस्तुतः कोई वस्तु न मधुर है न कड़वी। हमारी अपनी संरचना ही अमुक वस्तुओं के साथ तालमेल बिठाने पर जैसी कुछ उलटी−पुलटी प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है उसी आधार पर हम उसका रंग स्वाद आदि निर्धारण करते हैं।

यही बात प्रिय अथवा अप्रिय के सम्बन्ध में लागू होती है। अपने और बेगाने के सम्बन्ध में भी अपनी ही दृष्टि और अपनी ही मान्यता काम करती है। वस्तुतः न कोई अपना है न बेगाना। इस दुनिया के आँगन में अगणित बालक खेलते हैं। इनमें से कभी कोई किसी के साथ हो लेता है, कभी प्रिय बन जाता है, कभी प्रतिपक्षी का खेल खेलता है। इन क्षणिक संयोगों और संवेगों की बालबुद्धि में अब बहुत अधिक बड़ी अनुकूलता प्रतिकूलता उत्पन्न हो गई है। हर्ष शोक के आवेशों में घटना क्रम उतना उत्तरदायी नहीं होता जितना कि अपना मनःस्तर एवं सोचने का दृष्टिकोण। सन्त और चोर के-ज्ञानी और अज्ञानी के -दृष्टिकोण में, एक ही स्थिति के सम्बन्ध में जो जमीन आसमान जैसा अन्तर रहता है उसका कारण पृथक-पृथक मनःस्थिति ही है। घटना क्रम का उतना श्रेय या दोष नहीं।

यह सत्य है कि जैसी भी कुछ भली बुरी दुनिया हमारे सामने है वह अपनी बनाई हुई है। सोचने में जो उतार चढ़ाव आते हैं उन्हीं के कारण उलझने जटिल होती है और सोचने के हेर-फेर में उलझती है। किस समस्या का समाधान क्या हो सकता है यदि यह तथ्य सही रूप से विदित हो जाय तो सामने खड़ी विभीषिकाएँ देखते-देखते नगण्य बन सकती है और तिरोहित हो सकती है। तत्त्वदर्शी इसीलिए चिरकाल से यह कहते आ रहे हैं कि हर मनुष्य अपनी दुनिया अपने दृष्टिकोण के अनुरूप विनिर्मित करता है। उसमें सन्तुष्ट असन्तुष्ट रहता है। चिन्तन और कर्तव्य को बदलकर कोई भी अपनी दुनिया के स्वरूप में सहज ही आमूल चूल परिवर्तन कर सकता है।


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