योग साधना के चमत्कारी परिणाम

August 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

योग साधना का अपना विज्ञान, रसायनशास्त्र या विद्युत विज्ञान की तरह ही है। रासायनिक कणों के सम्मिश्रण से नये गुण धर्म वाले पदार्थों के विनिर्मित होने की बात रसायनशास्त्री कहते ही रहते हैं और ऋण तथा धन प्रवाहों का मिलन किस प्रकार विद्युत धारा का सृजन संचार करता है यह विद्युत विज्ञानी बताते ही रहते हैं। योग विज्ञान का प्रतिपादन यह है कि आत्मा की असीमता जब परमात्मा की असीमता के साथ घुल-मिल जाती है तो सामान्य समझा जाने वाला मनुष्य अनेक दृष्टियों से असामान्य बन जाता है। योगी, तपस्वी, ऋषि, सिद्ध पुरुष महामानव, देवदूत प्रायः इसी स्तर के होते हैं। सिंह की खाल ओढ़कर कोई गधा वनराज बनने का उपहासास्पद उपक्रम करे यह दूसरी बात है पर यदि वस्तुतः आत्मा को परमात्मा स्तर के अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया गया हो तो प्रगति के अनुरूप वैसी क्षमताएँ असंदिग्ध रूप से प्राप्त होती चली जायेगी जो सामान्य स्तर के लोगों में प्रायः नहीं ही पाई जाती।

चरित्रवान, सन्मार्ग पर दुस्साहसपूर्वक चलने वाले, लोक मंगल के लिए आत्म समर्पण कर्ता, तत्त्वदर्शी, युगान्तरकारी, एवं उपयुक्त नेतृत्व कर सकने में समर्थ व्यक्ति प्रायः इसी स्तर के होते हैं, जब कि सामान्य नर कीटकों को पेट और प्रजनन से ही फुरसत नहीं। कृपणता किसी सत्कर्म में कोई कहने लायक अनुदान नहीं देने देती तब धारा चीरकर उलटी दिशा में चल पड़ने का साहस दिखा सकना, निश्चय ही बड़ा कठिन काम है। इस कठिनाई पर विजय आत्मबल के आधार पर ही पाई जा सकती है। ऐसी देव स्तर की आत्मशक्ति को प्राप्त कर सकना एक उच्चस्तरीय चमत्कार ही समझना चाहिए। ऐसे सिद्ध पुरुष अपने व्यक्तित्व से जन-मानस को उलट देने और युग के प्रवाह को पलट देने का जो कार्य कर दिखाते हैं उसका अणिमा, महिमा-लघिमा आदि के नाम से जानी जाने वाली ऋद्धि-सिद्धियों से कम नहीं वरन् अधिक ही मूल्याँकन किया जा सकता है।

अनिवार्य तो नहीं, पर योग की कोई कोई शाखा ऐसी भी है जिसका आश्रय लेकर कोई विशेष व्यक्ति अपने शरीर या मन में असाधारण दीखने वाली क्षमताएँ विकसित कर लेते हैं। इनसे भले ही उस साधक को अथवा दर्शक को कोई विशेष लाभ न हो पर यह प्रमाणित तो हो ही जाता है कि योग साधना के आधार पर सामान्य स्तर से ऊँचा उठकर असामान्य बना जा सकता है। समय समय पर ऐसे कौतुक कौतूहल देखने को भी मिलते रहते हैं, जिनसे योग साधना के द्वारा प्रत्यक्ष देखे जा सकने वाली असामान्य उपलब्धियों का आभास मिलता है।

पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के समय एक योग चमत्कार संबंधी घटना का उल्लेख एक अंग्रेज सर क्लावडे वोडे ने किया है। घटना सन् 1839 की है एक साधु ने भूमिगत समाधि लेने की अपनी विशेषता का परीक्षण कराया जो महाराजा की देख-रेख में सम्पन्न हुआ। साधु के निर्देशानुसार उसे जीवित अवस्था में एक सन्दूक में बन्द किया गया और सन्दूक समेत जमीन में गहरा गाड़ दिया गया। गड्ढे के ऊपर से चूने का पलस्तर कर दिया गया। छः सप्ताह तक एक एक घण्टे की ड्यूटी लगाकर दिन-रात के पहरेदार नियुक्त किये गये ओर उनके ऊपर एक निरीक्षक अफसर रखा गया ताकि किसी प्रकार की चालाकी या सन्देह की गुँजाइश न रहे।

छह सप्ताह की नियत अवधि पूरी होने पर गड्ढा खोला गया। साधु निर्जीव था। फिर भी उसके पूर्व निर्देशों के अनुसार जीवन वापिस लाने के प्रयत्न किये गये। हाथ पैरों के जकड़े हुए जोड़ों पर गरम पानी की धारा छोड़ी गई। पीठ की मालिश की गई। माथे को आटे की गरम पुलटिस से सेंका गया। नाक और कान में भरी रुई निकाली गई, आँखों में घी आँजा गया, पीठ ओर सीने पर हलकी मालिश की गई। फलतः शरीर में हरकत आरम्भ हुई। साँस चली नाड़ी धड़की और धीरे-धीरे वह साधारण स्थिति में आ गया? साधु ने राज मण्डली से पूछा आपको योग की शक्ति पर विश्वास हुआ या नहीं? दरबारी क्या कह सकते थे, उनने स्वीकृति सूचक सिर ही हिलाया।

सर क्लावडे वोडे उन दिनों भारत सरकार के एक उच्च अधिकारी थे। उनने अपनी जानकारी में घटी इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है भारत में ऐसे ज्ञात और अविज्ञात योगियों की कमी नहीं जो ऐसे आश्चर्यजनक करतब प्रस्तुत कर सकते हैं। जिनका सामान्य शरीर विज्ञान की दृष्टि से कोई समाधान नहीं सूझता।

स्वामी विशुद्धानन्द जी की चमत्कारी सिद्धियों के बारे में कल्याण पत्रिका में जो विवरण प्रकाशित हुआ है उससे उनकी विशेषताओं पर प्रकाश पड़ता है। कहा गया है कि वे हाथ रगड़ कर मन चाहे पुष्पों की सुगन्ध उत्पन्न कर देते थे। उनके शिष्यों द्वारा अनेक प्रकार की सुगन्धों की फरमाइश करना और तत्काल वैसी ही उत्पन्न हो जाना कम आश्चर्यजनक नहीं था। एक वस्तु की दूसरे रूप में परिवर्तित करने की विद्या को वे सूर्य विद्या बताते थे। उन्होंने उसे प्रमाणित भी किया था। उनने एक फूल उठाया और उसकी प्रत्येक पंखुड़ी से एक एक अलग फूल उत्पन्न कर दिया। रुई के टुकड़े को सफेद से लाल रंग का और फिर पत्थर जैसा कठोर बना दिया। खजूर के हरे भरे पत्ते को उन्होंने पत्थर जैसा बना दिया। स्वामी जी का कहना था कि यह कोई जादू नहीं विशुद्ध विज्ञान है। सूर्य की सूक्ष्म शक्ति के साथ यदि साधना द्वारा संपर्क बना लिया गया तो उसके सहारे प्रकृति के पदार्थों के हेर-फेर करने की विद्या करतलगत हो सकती है।

भारत में तथा अन्य देशों में ऐसे योगाभ्यासी रहे हैं जो अपनी इच्छा शक्ति के प्रयोग से शरीर की गतिविधि में असामान्यता ला सकते हैं। इस स्तर के लोगों में पिछले दिनों यहूदी मनुदीन फ्रेंच महिला हुगुनेर-फिनिश ओवेसेडर आदि के नाम प्रख्यात रहे हैं। वे योग से शारीरिक स्थिति में क्या विचित्रता लाई जा सकती है उसका खुला प्रदर्शन करते थे।

अभी भी ऐसे योग-साधकों की कमी नहीं जो आश्चर्यजनक चमत्कार दिखाते हैं। कुछ समय पूर्व अमेरिकी टेलीविजन पर मैसूर के हठयोगी श्रीराव को नाइट्रिक एसिड पीते हुए दिखाया गया था।

डॉ. ब्रोरो, डॉ. बेगनर, डॉ. बेकची, डॉ. चेना प्रभृति शरीर शास्त्रियों ने इस सम्बन्ध में कितने ही योगाभ्यासियों से भेंट की और पाया कि उनमें सामान्य मनुष्यों की तुलना में शरीर पर असाधारण नियन्त्रण कर सकने की अतिरिक्त क्षमता विद्यमान् है। हृदय की धड़कन को घटा देना, नाड़ी की गति अति मन्द कर देना, शरीर के किसी भी भाग से पसीना निकला देना, माँस-पेशियों को कड़ी कर देना, एक निश्चित समय के लिये प्रगाढ़ मूर्छा की स्थिति में चले जाना, किसी अवयव को सुन्न कर लेना, अखाद्य खाना और उन्हें पचा जाना, तापमान एवं रक्तचाप बढ़ा लेना वजन घटा या बढ़ा देना।

लन्दन में एक भारतीय योगी ने सन् 1928 में एक सार्वजनिक प्रदर्शन किया था। उसने नाड़ी की गति को न्यूनतम 20 और अधिकतम 120 करके डाक्टरों को आश्चर्यचकित कर दिया था। वह अपनी माँस-पेशियों और त्वचा को इतनी कड़ी कर लेता था कि सामान्य हथियार के प्रभाव का भी उन पर कुछ प्रभाव न पड़े।

योग आत्मा और परमात्मा के मिलन को कहते हैं। मिलन का नाम ही योग संयोग है। जीव प्रायः पेट और प्रजनन के गोरखधन्धे में उलझा हुआ वासना तृष्णा की कीचड़ चाटता रहता है। आदर्शवादिता और उत्कृष्टता उसकी आँख से ओझल ही बनी रहती है। उसी भ्रमजाल को काटने का नाम योग साधना है। शारीरिक बल-वर्धन के लिये आसान प्राणायाम के नेति, धोति, वस्ति आदि की प्रक्रिया अपनाई जाती है। मानसिक क्षमता विकास के लिए ध्यान धारण ओर प्रत्याहार की एकाग्रता मूलक साधना प्रयोगों को काम में लाया जाता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन उससे ऊँचा है। अपनी आकांक्षा की भावना को संकीर्ण स्वार्थ परता की परिधि से ऊँचा उठाकर जब उत्कृष्ट दैवी प्रेरणाओं में नियोजित किया जाता है तो वह भाव योग की साधना नर को नारायण ही बना देती है तब उसके चमत्कार बाजीगरी, कौतुक, कौतूहल जैसे न रह कर इस स्तर के होते हैं जिनसे विश्व में सुख-शान्ति का संवर्धन सम्भव हो सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118