डरपोक अपना स्वास्थ्य गँवाता है और मनोबल भी

August 1973

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डर स्वयं उपार्जित एवं आमन्त्रित ऐसी बीमारी है जो शारीरिक रोगों से कम नहीं, अधिक ही कष्टकारक है। शारीरिक रोगों में रक्त - माँस ही सूखता है, पर डर में शरीर भीतर ही भीतर खोखला, निस्तेज और दुर्बल होता जाता है। इसके अतिरिक्त मानसिक कमजोरी की क्षति और भी बड़ी है। बीमार शरीर को दवा-दारु तथा अच्छे आहार-विहार से जल्दी ही अच्छा कर लिया जा सकता हे, पर यदि मनःसंस्थान लड़खड़ाने लगे तो मनुष्य विक्षिप्त की श्रेणी में जा पहुँचता है और मस्तिष्कीय विशेषताएँ खो बैठने पर पशु जैसा निरर्थक जीवन-क्रम ही शेष रह जाता है। डर की भयंकरता हमें समझनी चाहिए और उससे सर्वथा मुक्ति पाने का प्रबल प्रयत्न करना चाहिए।

कहीं बीमार न पड़ जाय, कहीं घाटा न हो जाय, कहीं बदली न कर दी जाय, बड़े अधिकारी नाराज न हो जाएँ, बच्चे कुपात्र न निकल जाय, आदि आशंकाएँ लोग ऐसे ही बैठे बिठाये किया करते हैं। दूसरों के सामने कोई कठिनाई देखकर आशंका करते हैं कि कहीं उनके सामने भी वही विपत्ति न आ जाय। संसार के दुःखी और असफल पक्ष को देखते रहना और उसी वर्ग में अपने को जा पहुँचने की आशंका से लोग भारी मानसिक कष्ट पाते रहते हैं। यदि वे संसार के सुखी और समुन्नत पक्ष को देखें और वैसी ही सुविधा - सफलता अपने को भी मिल सकने की बात सोचें, तो आशा से आँखें चमकने लगेंगी और यत्न - पुरुषार्थ की गति बढ़ जायेगी। निषेधात्मक कल्पनाएँ छोड़कर यदि लोग विधेयात्मक कल्पनाओं में रस लेने लगें, तो वास्तविकता न होने पर भी वह कल्पना ही अपने लिए सुखद हो सकती है। कल्पना का परिमार्जन भी यदि कर लिया जाय तो भी मनुष्य डर के जंजाल से बहुत हद तक बचा रह सकता है।

डर की प्रवृत्ति मानवीय अन्तःकरण में इसलिये विद्यमान् है कि वह सम्भावित खतरे की ओर से सतर्क रहें। और यदि कुछ गड़बड़ी दिखाई पड़े तो उससे बचने के उपाय सोचें। यह आत्मरक्षा की वृत्ति है। जहाँ तक उसका औचित्य एवं उपयोग हो, वहाँ तक अपनाया जाना ठीक है। आग जल रही है, उससे दूर रहें। कपड़े सम्भालें, उसकी चिनगारियाँ कोई दुर्घटना पैदा न करे। यह सतर्कता रखना ठीक है। वन्य प्रदेश में हिंसक पशुओं की सम्भावना को ध्यान में रखें। छूत के रोगों से बचने के लिए आवश्यक स्वच्छता को अपनायें। अवांछनीय व्यक्तियों के संपर्क में अपने बच्चों को न आने दें ; आदि-आदि सतर्कताएँ - सजग रखने के लिए डर का उपयोग ठीक है, पर अकारण विपत्ति की बात सोचते रहना गलत है। परीक्षा में फेल हो जायेंगे, सड़क पर चलने से दुर्घटना हो जायेगी, जमा पैसे वाली बैंक फेल हो जायेगी, मित्र विश्वासघात करेगा जैसी आशंकाएँ डराती हैं। पर समय यही बताता है कि वे सर्वथा निरर्थक और मन गढ़न्त थीं।

लोग क्या कहेंगे ; यह डर आत्महीनता पैदा करता है और कई व्यक्ति तो निधड़क होकर बात करने या भाषण देने तक में समर्थ नहीं हो पाते। अमुक तरह की बढ़िया पोशाक न होने से, सस्ती सवारी में बैठकर जाने से लोग क्या कहेंगे। विवाह-शादियों में बड़ी धूम-धाम न करने से क्या इज्जत रहेगी ; जैसी बातें सोचकर लोग अपना आधा मनोबल गँवा देते हैं और लोक दिखावे के ऐसे काम करते हैं, जिनकी वस्तुतः कोई जरूरत ही न थी। जहाँ तक अनैतिक कामों का प्रश्न है, वहीं तक लोगों से डरना चाहिए अन्यथा 'हजार मनुष्य हजार तरह की बात' का ढर्रा तो दुनिया में चलता ही रहेगा। किसका मुँह पकड़ा जा सकता है। जो कहते हैं कहने दें। उसकी चिन्ता न करें। चिन्ता केवल एक ही बात कि, की जाय कि अनैतिक कार्य करने के कारण समाज और परमात्मा के सामने दुष्ट- दुराचारी के रूप में अपना व्यक्तित्व न आवे। इसके अतिरिक्त आलोचनाएँ, निन्दा, स्तुतियाँ केवल मनोरंजन, कौतूहल की दृष्टि से सुननी चाहिए।

मनुष्य ज्ञान का पुंज और साहस का धनी है। उसमें न योग्यता की कमी है न प्रतिभा की। उसे विकसित किया जा सके, तो छोटा दीखने वाला व्यक्ति अगले दिनों बड़ा बन सकता है। जिम्मेदारी समझने के लिए तैयार हो और जिम्मेदारी उठाने का साहस करे तो उसका निर्वाह करने का बल भी भीतर से ही प्रकट होगा। दूसरे लोग सहायता भी करेंगे और यह सिद्ध होगा कि अपनी तुच्छता और असमर्थता की आशंका निरर्थक थी और सफलता का डर जो बार-बार संकोच में डालता था, सर्वथा निरर्थक था।

“इलिनोयस इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी” ने डरपोक और चिन्तातुर व्यक्तियों से उनकी परेशानी का कारण पूछा तो विदित हुआ, कि उनमें भविष्य में अपने दाम्पत्य जीवन के असफल हो जाने, बच्चों के आवारा निकलने, व्यापार में घाटा पड़ने, बीमार हो जाने, योजनाओं में असफलता मिलने जैसी चिन्ताएँ ही सवार रहती हैं। वे इन क्षेत्रों में असफल रहे व्यक्तियों के साथ अपनी तुलना करते रहते हैं। किन्हीं रोगग्रस्त, दुर्घटना पीड़ित या ऐसे ही दुःखी मनुष्य के साथ बीते हुए घटना क्रम के साथ संगति मिला लेते हैं और एक ऐसा चित्र गढ़ते हैं, जिसमें उनकी भी वही दुर्गति चित्रित की गई होती है। यही बुरी चिन्ता, आशंकाएँ उन्हें निरन्तर भयभीत बनाये रहती हैं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान शोध मण्डल ने निष्कर्ष निकाला है, कि डर एक छूत का रोग है। डरपोक लोगों के साथ रहकर आदमी बुज़दिल और हिम्मत वाले लोगों के साथ रहकर बहादुर हो जाता है। इस निष्कर्ष की पुष्टि में एक प्रमाण उनने यह भी दिया है, कि डरी हुई या रोती हुए माता को देखकर अबोध बालक स्वयं डर जाता है और रोने लगता है। यद्यपि वहाँ भय का अन्य कोई कारण नहीं दिखता। डरी हुई भीड़ भाग रही हो, तो कारण न जानने पर भी लोग डर जाते हैं और भागने लगते हैं। चीख-पुकार सुनकर कलेजा काँपने लगता है। आततायी से ही नहीं - आतंक ग्रस्त लोगों को देखकर भी लोग आतंकित हो जाते हैं।

डर केवल मन तक सीमित नहीं रहता, उसका दुष्प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता है। दिल धड़कना, नाड़ी की तेज चाल, पेट भीतर को धँसना, सो जाना, मूँह सूखना, पसीना, काँपना, पीठ और सिर में तनाव, कमजोर, मूर्छा, किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति भी भय की स्थिति से उत्पन्न हो जाता है और दिमाग सही काम नहीं करता, स्मरण शक्ति कुंठित हो जाती है। यह बाह्य चिन्ह अनायास ही उत्पन्न नहीं हो जाते। भीतर के अनेक अंगों पर प्रभाव पड़ने से उत्पन्न आन्तरिक अस्त-व्यस्तता के लक्षण जब बाहर उभर कर आते हैं, तो उपरोक्त बातें दृष्टिगोचर होती है। डर बुरी तरह हमारे सामान्य क्रिया-कलाप को झकझोरता है और तोड़-मरोड़कर रख देता है। इससे स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता है और बीमारी, कमजोरी के स्थायी चिन्ह प्रकट होने लगते हैं। दबे हुए रोग उभर आते हैं और श्वेत रक्त कणों की रोग निरोधक शक्ति घट जाती है। इसलिए डर की स्थिति में किसी को देर तक नहीं पड़ा रहना चाहिए अन्यथा उसकी यह मानसिक दुर्बलता शरीर को भी चौपट कर देगी।

कई व्यक्ति बालपन में उनके अभिभावकों द्वारा अधिक डराने या दण्डित किये जाने के कारण डरपोक बन जाते हैं। कुछ के सामने छोटी अवस्था में ऐसी भयानक दुर्घटनाएँ गुजरी होती हैं और वे उनसे आतंकित होकर अपना मनोबल खो बैठे होते हैं। कुछ लोग चिन्तन के क्षेत्र में कोई सही साथी न मिलने के कारण एकाकी अपनी कल्पना गढ़ते हैं और उसमें शूल-बबूल होकर उलझने, चुभने वाले काँटे खड़े कर लेते हैं। किसी प्रियजन का विछोह, विश्वास घात, ऊँची आकांक्षा पर अप्रत्याशित आघात, अपमान, घाटा, असफलता , आतंक जैसे कारण भी मनुष्य के भय को इतना बढ़ा देते हैं कि उसकी स्थिति विक्षिप्त जैसी बन जाती है। बढ़ी हुई स्थिति में तो ऐसे व्यक्ति को पागल खाने ही भेजने पड़ते हैं।

अन्तर की घुटन मनःस्थिति को गड़बड़ा देती है और मनुष्य पग-पग पर डरने लगता है। तब डाक्टरी भाषा में इसे ‘फोबिया’ या ‘फोबिक न्यूरोसिस’ कहते हैं। मानसोपचार में भय के आतंक के अनुसार निदान वर्गीकरण भी है। मृत्यु का भय - मोनो फोबिया, पाप का भय- थैनिटो फोबिया, रोक का भय - गाइनो फोबिया, काम विकृति का आतंक - पैकाटो फोबिया, विपत्ति का  भय - नोजो फोबिया, अजनबी का भय- पैथो फोबिया कहलाते हैं और भी इसके कई भेद हैं।

इन भयों का निवारण हमें स्वतः ही अपनी विवेक बुद्धि से करना चाहिए। यह समझने या समझाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए कि भय भीड़ में से तीन चौथाई तो नकली, अवास्तविक और काल्पनिक है। जितने संकटों की आशंका की जाती है, उनमें से बहुत थोड़े ही सामने आते हैं और वे भी इतने सामान्य होते हैं कि थोड़े से साहस और प्रयत्न करने पर उनका आसानी से निराकरण हो जाता है। यदि दुर्भाग्य से कोई संकट सहना ही पड़े, टल न सके; तो भी उसकी हानि उतनी नहीं होती जैसी कि पहले सोची गई थी। फिर संकट के दिन बहुत समय ठहरते भी नहीं। धूप-छाँह की तरह वे आते हैं और आँख-मिचौनी खेल कर चले जाते हैं। जीवन में सतर्कता और साहसिकता की मात्रा बनाये रहने के लिए - शौर्य और साहस पर धार रखी जाती रहने के लिए - वे संकट आते हैं और जितनी हानि पहुँचाते हैं, उससे कहीं अधिक मूल्य की मानसिक मजबूती उपहार में दे जाते हैं। इन तथ्यों पर यदि विचार करते रहा जाय, तो डरपोक मन से - कायरता जन्य अपनी दुर्बलता से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है। जिन साहसी लोगों ने विपत्ति से जूझते हुए सफलता की मंजिल पार की उन मनस्वी व्यक्तियों के जीवन वृत्तान्त पढ़ते रहना ऐसे लोगों के लिए अच्छा उपचार सिद्ध होता है।

साहसी लोगों का संपर्क उस स्थिति से उबारने का अच्छा माध्यम है। ऐसे लोगों के साथ रहने का यदि अवसर मिल सके तो डरपोक व्यक्ति भी उनका अनुकरण करके साहसी और निर्भय बन सकता है।

आत्मा की समर्थता का चिन्तन - ईश्वर को अपने साथ में लेने की अनुभूति का सह सहारा लेकर भी मनुष्य निर्द्वंदता और निश्चिन्तता का लाभ प्राप्त कर सकता है।



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