अपने को जानो- आत्मनिर्भर बनो

August 1973

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विद्वान् इब्सन का कथन है - शक्तिशाली मनुष्य वह है जो अकेला है। कमजोर वह है जो दूसरों का मुँह ताकता है “अकेले का अर्थ है आत्मनिर्भर - अपने पैरों खड़ा होने वाला। यहाँ अकेलापन, असामाजिक या असहयोग के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। इब्सन का तात्पर्य यह है कि जो अपनी जिम्मेदारी को समझता है, अपने कर्तव्यों को निबाहता है, उसे प्रगति के लिए आवश्यक आधार अपने भीतर से ही मिल जाता है। बाहर के साधन उसके चुम्बकत्व से खिंचकर अनायास ही इकट्ठे हो जाते हैं। अपनी सामर्थ्य के स्रोतों को भरा-पूरा देखना, बाहर की सहायता का प्रवाह निरन्तर समीपतम चलते आने के लिए पथ प्रशस्त करता है।

कन्फ्यूशियस ने कहा है- महान् व्यक्ति अपनी आवश्यक वस्तुओं को भीतर ढूँढ़ते हैं, जबकि कमजोर उन्हें पाने के लिए दूसरों को सहारा तकते हुए भटकते रहते हैं। ये तथ्य ऐसे हैं, जिन्हें स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए और हर किसी की जीवन पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर अंकित किया जाना चाहिए। तत्त्वदर्शी और मनीषी सदा से ही कहते रहे हैं - जो अपनी सहायता आप करता है उसी की सहायता करने परमात्मा भी आता है। जिसने अपने ऊपर से भरोसा खो दिया, उसे ईश्वर की आँख भी अविश्वासी ठहराती है। परमात्मा की निकटतम और अधिकतम सत्ता अपने भीतर ही पाई जा सकती है। जो उसे नहीं देखता वह बाहर कहाँ पर ऐसा अवलम्बन प्राप्त कर सकेगा, जो उसे विपत्ति से बचाने और आगे बढ़ाने में सहायता कर सके? अपनी क्षमता ओर संभावना पर से विश्वास उठा लेना परमात्मा की सत्ता और महत्ता को अस्वीकार करना है। ऐसी अनास्थावादी मनोभूमि जहाँ हो वहाँ घिनौने किस्म की नास्तिकता की गन्ध मिलेगी।

व्यक्ति अकेला नहीं है। उसके कण में भौतिक प्रकृति की असीम शक्ति संजोये हुए कोटि-कोटि परमाणुओं का सैन्य दल मौजूद है। जीवाणुओं में से हर एक के भीतर एक स्वतंत्र सौर मण्डल की सत्ता विद्यमान् है। कोटि-कोटि जीवाणुओं की हलचलें जहाँ हो रही हैं वहाँ अशक्तता का अस्तित्व कैसे हो सकता है। जिसके पास धन-वैभव के अनेक स्त्रोत विद्यमान् है, वह यदि अपने को दीन-दरिद्र कहता फिरे तो उसे अविश्वासी ही कहा जायेगा। जो अपने वैभव और शक्ति भण्डार को भुला चुका और तनिक-तनिक से अवसरों पर दूसरों की सहायता पर निर्भर रहता है, वह सामर्थ्य से न हो सके, तो भी अन्तः चेतना की दृष्टि से निश्चय ही दरिद्र है। दरिद्र की कोई क्वचित् ,कदाचित् और किंचित् ही सहायता करता है।

जिसे अपनी सत्ता और महत्ता का ज्ञान है, उसे यह भी पता रहता है कि प्रतिपक्षी अवरोध कितने पानी में हैं। कोई किसी को न तो डरा सकता है और न स्थायी अवरोध उत्पन्न कर सकता है। जो डरता और रोकता है, वह प्रचण्ड आत्मतेज के सामने अपनी भूल स्वीकार करता है और उलटे पाँव वापिस लौट जाता है। और की तो क्या बिसात मृत्यु तक उसे विचलित नहीं कर सकती। जिसे अपने अनन्त जीवन का विश्वास है, वह मौत को विश्राम मान सकता है, अवरोध नहीं। उसकी यात्रा अवधि की परवाह किये बिना निरन्तर गतिशील रहती है। वेद का ऋषि इसी सत्य का निरन्तर उद्घाटन करता रहा है “तमेष विद्वान न विभाय मृत्यो।" जो अपने को जानता है, वह मृत्यु से भी नहीं डरता। अवरोध और असहयोग के कारण तो वह हताश हो ही कैसे सकता है।



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