जलती आग के ईंधन

August 1973

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

नाम था उसका पट्टाचारा, बहुत ही सुन्दर और चतुर। लड़की चन्द्र कलाओं की तरह बढ़ने लगी। किशोरावस्था पार भी न हो पाई थी कि वह पड़ोसी युवक के प्रेम पाश में बँध गई। माता पिता ने रोका समझाया भी पर वह मानी नहीं। रात्रि में वे दोनों प्रेमी घर छोड़कर निकल पड़े और योजनों दूर जाकर किसी नगर में रहने लगे। युवक मजदूरी करता और वे दोनों सुखपूर्वक निर्वाह करते।

इस तरह बहुत दिन बीत गये। पट्टाचारा गर्भवती हुई। उसने पति से कहा चलो पितृगृह चलें। प्रसव का प्रबन्ध वहीं ठीक तरह हो सकेगा। युवक ने सुझाया- वहाँ चलने पर क्रोध और अपमान सहना पड़ेगा सो पट्टाचारा चुप हो गयी। पुत्र-जन्मा- नाम रखा गया- रोहित सुन्दर पुत्र को पाकर दोनों का सुख और भी बढ़ गया।

रोहित दो वर्ष का हुआ था कि पट्टाचारा फिर गर्भवती हो गई। अब की बार कठिनाई अधिक थी। बड़े बच्चे को पालना और नये का प्रसव दोनों कार्य किसी की सहायता चाहते थे। सो उसने फिर पितृगृह चलने की बात कही। अब की बार युवक भी सहमत हो गया। बात पुरानी पड़ जाने से क्रोध शान्त हो गया होगा। बहुत दिन से बिछुड़ने के बाद मिलने से सभी को सन्तोष होगा और बच्चे भी पल जायेंगे। पति-पत्नी बच्चे को लेकर अपनी जन्मभूमि चल दिये।

रास्ता लम्बा था और घना बीहड़। चलते-चलते पेड़ के नीचे सुस्ताने लगे तो पट्टाचारा को प्रसव पीड़ा उठ खड़ी हुई। दूसरा पुत्र जन्मा। आग की आवश्यकता पड़ी तो युवक लकड़ियाँ बीनने गया। दुर्भाग्य से सर्प ने उसे डस लिया। वापिस लौटते-लौटते उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। असहाय पट्टाचारा इस विपत्ति में किंकर्तव्य विमूढ़ हो गई। रोई भी बहुत। पर कुछ करना तो था ही। पति की लाश को उसी ने नदी में बहाया और घर चलने के लिए नदी पार करने की तैयारी करने लगी। उस समय वह बहुत अशक्त हो रही थी। दोनों बच्चों को एक साथ लेकर चलना कठिन था। सो सोचा एक एक को लेकर नदी पार करे। छोटे बच्चे को लेकर पार गई उसे पत्तों से ढका और दूसरे को लेने के लिए लौटी। इतने में दुर्भाग्य दूनी विपत्ति लेकर फिर आ धमका। नवजात शिशु को पत्तों के नीचे से कुरेद कर शृंगाल ले भागा और बड़ा बच्चा माँ के पास आतुरता से दौड़ा तो वह भी नदी में बह गया। दो घण्टों के भीतर उसका सोने का संसार उजड़ गया। पति मरा, दोनों बच्चे मरे, प्रसव कष्ट-बीहड़ बन-दूर की यात्रा-क्षुधा-निवृत्ति तक के साधनों का अभाव-एकाकीपन इन सब संकटों ने मिल कर आक्रमण किया तो बेचारी हतप्रभ हो गई। विक्षिप्त जैसी स्थिति में रोती चिल्लाती अपने पितृगृह की ओर अहर्निश चलती रही और अन्ततः किसी प्रकार मरते गिरते वहाँ तक जा पहुँची।

पितृगृह पहुँचने पर पता चला कि उसके माता पिता मर चुके थे। सास श्वसुर बीमार पड़े थे। एक भाई बचा था सो भी पहुँचने के दिन ही मरा और उसकी चिता भर जलती पट्टाचारा ने देखी। वहाँ भी सारे आश्रय समाप्त हो चुके। शोक का समुद्र ही हर दिशा में गरज रहा था। भोली लड़की इतना सहन न कर सकी और वह विलाप करते-करते पागल हो गई। भोजन वस्त्र तक की उसे विस्मृति हो गई।

श्रावस्ती के लोग उसे पकड़ कर भगवान बुद्ध के पास ले पहुँचे। भगवान ने उसे दिलासा दिया - सान्त्वना दी और भोजन, वस्त्र के अतिरिक्त समुचित विश्राम का प्रबन्ध किया।

थोड़े दिन में उसे धीरज बँधा। तब तथागत ने उसे अपने पास बुलाया और ज्ञान का अमृत बरसाते हुए कहा- शुभ्रे, यह संसार जलती हुई आग की तरह है। हम सब ईंधन की तरह हैं जो जलने के लिए ही जन्मे हैं। मरण एक अविचल सत्य है उससे बचा नहीं जा सकता। कोई कितना ही दुखी क्यों न हो, मरण रुकता नहीं। अपने अपने प्रारब्ध और समय के अनुसार सभी को आगे पीछे मरना पड़ता है। सो कौन किसके लिए शोक करे?

भद्रे, यहाँ कोई किसी का नहीं। एकाकी आगमन और एकाकी गमन के सत्य को समझो। राहगीरों के झुण्ड में क्षणिक मिलन का मोद तो मानो, पर बिछुड़न के तथ्य को भी जानो। जीव को रोज ही मिलना बिछुड़ना पड़ता है। सो सन्तुलन मत खोओ, जाने वालों को जाते देख कर अपने मरण की तैयारी में लगो। महासत्य को ढूँढ़ो और आत्मा के दुर्ग में प्रवेश कर संतापों से अपने को बचाओ।

तथागत के अमृत वचन पट्टाचारा के अन्तःकरण को बेधते चले गये। उसने शोक के परिधान उतार फेंके और महासत्य की शरण में जाने वाली व्रतधारी तपस्विनियों की पंक्ति में जा बैठी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118