हम सही हैं और दूसरे सभी गलत। हम सत्यवादी हैं और अन्य झूठे। हमारी मान्यताएँ ही खरी है दूसरों की खोटी। इस प्रकार का आग्रह रखना मनुष्य के ओछेपन ओर मिथ्या अहंकार का चिन्ह है। हमें जानना चाहिए सत्य उतना ही सीमित या छोटा नहीं है जितना कि हमने समझा या माना है उसके आगे भी बहुत कुछ हो कसता है। हो सकता है कि दूसरे लोग भी अपने विचारों के सम्बन्ध में इतने ही ईमानदार या आग्रही हों जितने कि हम। ऐसी दशा में इस विपरीतता के बीच कौन गलत है ,कौन सही, इसका, निर्णय हम स्वयं तो नहीं ही कर सकते।
वादी, प्रतिवादी यदि न्यायाधीश का ही आसन हथियाने लगे तो फिर न्याय और औचित्य की कसौटी क्या रह जायेगी? निष्पक्षता की मनःस्थिति ही सही गलत का विवेचन, विश्लेषण कर सकती है। पूर्वाग्रही लोगों का चिन्तन एकांगी और पक्षपाती होता है। ऐसी दशा में उनके आग्रह में आवेश की मात्रा ही अधिक रहेगी, विवेक की कम। कट्टरपन्थी और दुराग्रही लोग ऐसा ही रवैया अपनाते हैं और दार्शनिक प्रश्नों को लेकर वे बेतरह लड़ते झगड़ते हैं। उनका आदर्शवाद इस प्रकार अवांछनीयता की उत्पत्ति करता है जो कि यथार्थ में उसका उद्देश्य है नहीं।
हम सही हैं, हमारी मान्यताएँ औचित्यपूर्ण है यह मानने का हर मनुष्य को अधिकार है। अपनी मान्यताओं और निष्ठाओं को मनुष्य अपने ढंग से अपनाये संजोये रहे, यहाँ तक ही औचित्य की सीमा है। जब वह यह कहता है कि मेरे अतिरिक्त अन्य सब गलत या झूठे हैं तब वह विचारशीलता की मर्यादा का उल्लंघन करता है। सत्य इतना छोटा नहीं है जो एक व्यक्ति या वर्ग की सीमाओं में ही अवरुद्ध करके रखा जा सके। मनुष्य की बुद्धि कितनी ही तीक्ष्ण क्यों न हो-उसकी भावनाएँ कितनी ही अच्छी क्यों नहीं, सत्य की विशालता की तुलना में ओछी ही पड़ेगी सूर्य पृथ्वी से छोटा लगता है और वह उसके एक भाग पर ही चमकता है यह मान्यता पृथ्वी को बड़ा सिद्ध करती है और सूर्य को छोटा। फिर भी विचारशील जानते हैं कि सचाई उससे आगे है। सूर्य पृथ्वी से बहुत बड़ा है। मनुष्यों के किसी वर्ग विशेष की मान्यताएँ कितनी ही सूझ-बूझ के साथ गढ़ी गई हो उनमें कहीं न कहीं त्रुटि रहेगी ही। ऐसी दशा में सत्य शोधक को यह गुंजाइश छोड़नी ही पड़ती है कि अपनी मान्यताओं में सुधार करने की ओर प्रतिपक्षी के चिन्तन में विशिष्टता की जहाँ भी झाँकी होती हो वहाँ उचित हेरफेर कर लिया जाय।
आत्यन्तिक सत्य की ओर हम सब क्रमशः ही बढ़े हैं और बढ़ रहे हैं इसमें अधीर होने की आवश्यकता नहीं, पूर्णता तक पहुँचने की मंजिल पर हम जितना चल चुके सम्भवतः अभी उससे अधिक रास्ता नापना शेष है ऐसी दशा में हमें प्रस्तुत मील के पत्थर को ही अन्तिम क्यों मान बैठना चाहिए?
कई बार तो नैतिक प्रश्नों में विपरीतता देखकर भी हमें विवेक और धैर्यपूर्वक वस्तु-स्थिति को समझने की आवश्यकता होती है- क्षुधार्तों की प्राण क्षति बचाने के लिए किसी सम्पन्न व्यक्ति के यहाँ चोरी करने वाला व्यक्ति साधारण दृष्टि से चोर के अपराध में दण्ड प्राप्त करेगा, किन्तु मानवीय मूल्यों के आधार पर उसे निर्दोष भी समझा जा सकता और कभी तो उसे दयालु और सदाशयता के पक्ष में दुस्साहसी भी कहा जा सकता है। इसलिये नैतिक दृष्टि से उचित अनुचित का निर्णय करने में कर्ता के उद्देश्य को नापना पड़ता है। कोई धूर्त पुण्य ढोंग रच सकता है। ऐसी दशा में दार्शनिक ही नहीं नैतिक मान्यताओं के सम्बन्ध में भी हमें दूरदर्शी एवं सत्यान्वेषी दृष्टिकोण लेकर चलना चाहिए। दुराग्रही बन कर तो हम सत्य का नहीं असत्य का ही पोषण करेंगे।