सीमित साधनों से असीम की खोज का दुस्साहस

August 1973

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खोज, खबर इसलिए भी उपयोगी है कि एकाकीपन नामक कोई तत्त्व अगले दिनों शेष नहीं रहने वाला है इस विश्व का कण कण एक दूसरे से अत्यन्त सघनता और जटिलता के साथ जुड़ा हुआ है। उन्हें पृथक करने से किसी की सत्ता अक्षुब्ध नहीं रह सकती। सब एक दूसरे के साथ इतनी मजबूत जंजीरों से बंधे हुए हैं कि पृथकता की बात सोचना दूसरे अर्थों में मृत्यु को आमन्त्रण देना ही कहा जा सकता है।

शरीर में कोशिकाओं की स्वतन्त्र सत्ता अवश्य है पर वह अपने आप में पूर्ण नहीं है। एक से दूसरे का पोषण होता है, और दूसरे से तीसरे को बल मिलता है, हम सभी एक दूसरे पर निर्भर है। यहाँ न कोई स्वतन्त्र है न स्वावलम्बी। साधन, सामूहिकता ही विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों, अस्तित्वों और तथ्यों की जननी है। मानवी प्रगति का यह रहस्य है- प्रकृति प्रदत्त समूह संरचना का उसने अधिक बुद्धिमत्तापूर्वक लाभ उठाकर समाज व्यवस्था बनाई और सहयोग के आधार पर परिवार निर्माण से लेकर शासन सत्ता तक के बहुमुखी वट खड़े किये हैं। एक दूसरे के लिए वे किस प्रकार उपयोगी सिद्ध होंगे, पारस्परिक सहयोग से किस प्रकार एक दूसरे की सुख सुविधा बढ़ाये, इसी रीति-नीति के अभिवर्धन को अग्रगामी बनाने के लिए धर्म, अध्यात्म तत्त्वज्ञान की आधारशिला रखी गई। भौतिक विज्ञान की खोज और प्रगति ने प्रकृति गत परमाणुओं की इसी रीति-नीति का परिचय दिया है। जड़ अथवा चेतन किसी भी पक्ष को देखें, इस विश्व के समस्त आधार परस्पर सम्बद्ध प्रतीत होते हैं और उनकी सार्थकता एक दूसरे के साथ जुड़े हुए रहने से ही सिद्ध होती है। एकाकी इकाइयाँ तो इतनी नगण्य है कि वे अपनी अस्तित्व का न तो परिचय दे सकती है और न उसे सुरक्षित रख सकती है।

यह सिद्धान्त ग्रह नक्षत्रों पर भी लागू होता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह नक्षत्र अपनी सूत्र संचालक आकाश गंगाओं के साथ जुड़े हैं और आकाश गंगाएँ मातृतत्त्व हिरण्य गर्भ की उँगलियों में बँधी हुई कठपुतलियाँ भर हैं। अगणित सौर मण्डल भी एक दूसरे का परिपोषण करते हुए अपना क्रियाकलाप चला रहे हैं। सूर्य ही अपने ग्रहों को गुरुत्वाकर्षण में बाँधे हो और उन्हें ताप प्रकाश देता है सो बात नहीं है, बदले में ग्रह परिवार भी अपने शासनाध्यक्ष सूर्य का विविध विधि आधारों से पोषण करता है। सौर परिवार के ग्रह अपनी जगह से छिटक कर किसी अन्तरिक्ष में अपना कोई और पथ बना ले तो फिर सूर्य का सन्तुलन भी बिगड़ जाएगा और वह आज की स्थिति में न रहकर किसी चित्र विचित्र विभीषिका में उलझा हुआ दिखाई देगा।

तारे और नक्षत्र में यह अन्तर है कि तारा अपनी रोशनी से चमकता है जब कि नक्षत्रों में अपनी रोशनी नहीं होती वे तारकों की धूप के प्रकाश में आते हैं तभी चमकते हैं। अपने सौर मण्डल में केवल एक ही सूर्य है शेष 9 नक्षत्र हैं ब्रह्माण्ड की तुलना में अपने सूर्य का सीमा क्षेत्र बहुत छोटा है पर पृथ्वी की तुलना में वह बहुत बड़ा है। नक्षत्रों के अपने उपग्रह होते हैं जैसे पृथ्वी का उपग्रह चन्द्रमा। ग्रह स्थिति में 12 चन्द्रमा हैं।

जिस प्रकार अपने सौर मण्डल के नव ग्रह सूर्य तारक के साथ जुड़े हैं उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के अगणित तारक अपनी अपनी निहारिका के सदस्य हैं। ऐसी निहारिकाएं अरबों की संख्या में हैं। उनमें भीतर ही भीतर कुछ ऐसी हलचल चलती रहती है जिसके कारण कुछ समय बाद भयंकर विस्फोट होता है और अन्तर्भूत पदार्थ में सब कुछ टूट बाहर छिटक कर स्वतन्त्र तारकों का निर्माण होता है। इन तारकों का नाम नोवा और सुपर नोवा दिया गया है। जिस प्रकार बिल्ली हर साल कई कई बच्चे देती है। इसी प्रकार से निहारिकाएं भी थोड़े-थोड़े दिनों बाद प्रसूता होती है और विस्फोट जैसी भयानक प्रसव पीड़ा के साथ नव-तारकों को जन्म देती है। बच्चों की सारी हरकतें जैसे बे-सिर-पैर होती है वैसा ही कुछ ऊटपटाँग यह नवोदित तारे भी करते रहते हैं।

जब वे घिस-पिट कर ठीक हो जाते हैं, शैशव से आगे बढ़कर किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं तब उनकी व्यवस्था क्रमबद्ध हो जाती है, तब तक उनका फैलाव, सिकुड़न, रुदन, उपद्रव शयन सब कुछ अचंभे जैसा ही होता है। छोटे-बच्चे जैसे बार-बार टट्टी कर देते हैं उसी प्रकार इन नवोदित तारकों की गरम गरम गैस भी कटती छिटकती रहती है और उससे भी ग्रह, उपग्रह, उल्का, धूमकेतु आदि न जाने क्या-क्या अन्तरिक्षीय फुलझड़ियों का सृजन विसर्जन होता रहता है। इनके अतिरिक्त इन बच्चों में लड़-झगड़ और मारपीट भी कम नहीं होती। निश्चित व्यवस्था का कार्यक्षेत्र न बन पाने के कारण उनके टकराव भी होते रहते हैं और कभी कभी तो यह टकराव ऐसे विचित्र होते हैं कि दोनों पक्ष अपना अस्तित्व गँवा बैठे और फिर उनके ध्वंसावशेष से कुछ-कुछ और नवीन संरचना सामने आये।

आकाश की नाप तोल मीलों की संख्या में करना कौड़ियाँ बिछाकर मुहरों का हिसाब करने बैठने की तरह उपहासास्पद होगा। इस प्रकार तो इतनी बिंदियाँ प्रयोग करनी पड़ेगी कि ज्योतिर्विदों को बाध्य बिंदियों से ही भरने पड़े।

सूर्य की दूरी पृथ्वी से सवा नौ करोड़ मील है, इसके बाद का सबसे निकटवर्ती तारा 2,50,00,00,00,00,000 मील की दूरी पर है। अन्य तारे तो इससे भी लाखों गुनी दूरी पर है। इस दूरी का हिसाब रखने के लिए प्रकाश वर्ष का नया पैमाना बनाया गया है। प्रकाश की किरणें एक सेकेण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की चाल से चलती है। इस गति से चलते हुए प्रकाश एक वर्ष में जितनी दूर तय कर ले उसे एक प्रकाश वर्ष कहा जाएगा। इस पैमाने के हिसाब से पृथ्वी से सूर्य की दूर सिर्फ सवा आठ प्रकाश सेकेण्ड रह जाती है। इसके आगे किसी और तारे की खोज में आगे बढ़ा जाय तो सबसे निकटवर्ती तारा सवा चार प्रकाश वर्ष चल लेने के बाद ही मिलेगा।

ब्रह्माण्ड का 33 प्रतिशत भाग शून्य है। एक प्रतिशत भाग को ही ग्रह नक्षत्र घेरे हुए हैं। अनुमान है कि आकाश में सूर्य जैसे 100 अरब तारकों का अस्तित्व है। वह तारे आकाश गंगा से जुड़े हैं वे उसी से निकले हैं और उसी से बंधे है। मुर्गी अण्डे देती है उन्हें सेती है और जब तक बच्चे समर्थ नहीं हो जाते उन्हें अपने साथ ही लिए फिरती है। आकाश गंगाएँ ऐसे ही मुर्गियाँ हैं जिनके अण्डे बच्चों की गणना करना पूरा शिर दर्द है। हमारी आकाश गंगा एक लाख प्रकाश वर्ष लम्बी और 20 हजार प्रकाश वर्ष मोटी है। सूर्य इसी मुर्गी का एक छोटा चूजा है जो अपनी माता से 33,000 प्रकाश वर्ष दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा 170 मील प्रति सेकेण्ड की गति से करता है। आकाश गंगाएँ भी आकाश में करोड़ों हैं। वे आपस में टकरा न जायें या उनके अंडे बच्चे एक दूसरे से अलग न पड़े इसलिए उनने अपने सैर-सपाटे के लिए काफी-काफी बड़ा क्षेत्र हथिया लिया है। प्रायः ये आकाश गंगाएँ एक दूसरे से 20 लाख प्रकाश वर्ष दूर रहती है।

अब तक खोजे गये तारकों में सबसे बड़ा काला तारा है यह अपने सूर्य से 20 गुना बड़ा है। यहाँ यह भूलना नहीं चाहिए कि सूर्य अपनी पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है। उस हिसाब से पृथ्वी की तुलना में काला तारा कितना बड़ा होगा इसे कागज पर जोड़ लेना तो सरल है पर उस विस्तार को मस्तिष्क में यथावत् बिठा सकना बहुत ही कठिन है।

सृष्टि के आरम्भ में एक मूल द्रव्य हिरण्य गर्भ था। उसकी विस्फोट से आकाश गंगाएँ विनिर्मित हुई। इस विस्फोट की तेजी कुछ तो धीमी हुई है पर अभी भी उस छिटकाव की चाल बहुत तीव्र है। अनन्त आकाश में ये आकाश गंगाएँ अपनी अपनी दिशा में द्रुत गति से दौड़ती जा रही है। इस सन्दर्भ में अपनी आकाश गंगा की चाल 24,300 मील प्रति सेकेण्ड नापी गई है।

यह विश्व अनन्त है और उसके संबंध में जानकारियाँ प्राप्त करने का क्षेत्र भी असीम है। इस असीम और अनन्त की खोज के लिए बिना निराश हुए मनुष्य की असीमता किस उत्साह के साथ अग्रगामी हो रही है यह देखकर यह विश्वास होता है कि मानवी महत्ता अद्भुत है और यदि वह सही राह पर चले तो न केवल प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करने में वरन् उन्हें करतलगत करने में भी समर्थ हो सकती है।


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