पुनर्जन्म और कर्मफल की पृष्ठ-भूमि

December 1968

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माता के गर्भ में शयन करते हुये ऋषि वामदेव विचार करते है- ‘‘अब मैं देवताओं के अनेक जन्मों को जान चुका हूँ। जब तक मुझे तत्वज्ञान नहीं मिला था, मैं संसार में पाप-कर्मों से उसी तरह घिरा था, जिस तरह पक्षी को पिंजरे में बन्द कर दिया जाता है।” पूर्व-जन्मों का स्मरण करते हुये ऋषि वामदेव ने शरीर धारण किया और उन्नत कर्म करते हुए स्वर्ग को पहुँच गये।

यह कथा ऐतरेयोपनिषद् के द्वितीय अध्याय के प्रथम खण्ड में है। शास्त्रकार इस अध्याय की पूर्वपीठिका में यह बताता है कि पिता के पुण्य कर्मों के निमित्त पिता का ही आत्मा पुत्र रूप में प्रतिनिधि बनकर जन्म लेता है। पुत्र के जन्म लेने पर पिता के पाप-कर्म कम होने लगते हैं, क्योंकि कोई भी पिता अपने पुत्र को बुरे कर्म करते देखकर प्रसन्न नहीं होता, वह यही प्रयत्न करता है कि जिन बुरे कर्मों के कारण मुझे कष्ट हुये हैं, उनका प्रभाव बच्चे पर न पड़े। जितने अंश में वह बच्चे का सुधार कर सकता है, उतना वह अपना भी सुधार कर लेता है और तब उसका दूसरा जन्म अर्थात् ऐसे संकल्प लेकर जन्म होता है कि अब मैं बुरे कर्म नहीं करूंगा, जिससे संसार में शाँतिपूर्वक परमात्मा का साधन करता हुआ, स्वर्ग की प्राप्ति करूंगा। यह संकल्प संस्कार बनकर उद्घटित होते हैं और जीव अपनी मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है। जैसा ऋषि ने बताया है।

पुनर्जन्म, गर्भ में इस प्रकार का संकल्प, पिता के प्रतिनिधि रूप में पिता का ही पुत्र और इन सबका हेतु कर्मफल यह सब बातें कुछ अटपटी-सी लगती हैं। आज के विज्ञान-बुद्धि लोगों के गले नहीं उतरती और यही कारण है कि लोग कर्मों में गुणावगुण की संधि और पाप के फल- पश्चाताप की बात अंगीकार नहीं करते। कर्मफल पर विश्वास न करने का फल ही आज पाप, अनय और भ्रष्टाचार के रूप में फैला है।

गरुड़ पुराण में एक ऐसी ही आख्यायिका आती है, जिसमें बताया गया है कि यमलोक पहुँचने पर चित्रगुप्त नाम के यम-प्रतिनिधि सामने आते हैं। और उस व्यक्ति के तमाम जीवन में किये हुये कर्मों का, जिन्हें वह गुप्त-रीति से भी करता रहा, चित्रपट की भाँति दृश्य दिखलाते हैं, यमराज उन कर्मों को देखकर ही उन्हें स्वर्ग और नरक का अधिकार प्रदान करते हैं। शास्त्राकार इसी संदर्भ में यह बताते हैं कि हनन की हुई आत्मा (अर्थात् बुरे कर्मों से उद्विग्न और अशाँत मनःस्थिति) नरक को ले जाती है और सन्तुष्ट हुई आत्मा (नेक कर्मों से उल्लसित उत्फुल्ल और प्रसन्न मनःस्थिति) दिव्य-लोक प्रदान करती है।

चित्रगुप्त जैसी कोई व्यवस्था का होना काल्पनिक-सा लगता है, किन्तु आधुनिक शोधों ने उपरोक्त अलंकारिक कथानक में बड़ी ही महत्वपूर्ण सचाई को ढूंढ़ निकाला है। डा. बी. वेन्स ने सूक्ष्म दर्शक की सहायता से यह ढूंढ़ निकाला है कि मस्तिष्क में भरे हुए ग्रे मैटर (भूरी चर्बी जैसा पदार्थ भरा होता है) वे एक-एक परमाणु में अगणित रेखायें पाई जाती हैं। विस्तृत विश्लेषण करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जो व्यक्ति कर्मठ क्रियाशील, सात्विक, सबसे प्रेम और सबका भला चाहने वाले होते हैं, उनके मस्तिष्क की यह रेखायें बहुत विस्तृत और स्वच्छ थीं पर जो आलसी, निकम्मे तथा दुष्ट प्रकृति के थे, उनकी रेखायें बहुत छोटी-छोटी थीं। माँसाहारी व्यक्तियों की रेखायें जले हुए बाल के सिरे की तरह कुण्ठित और लुँज-पुँज थीं।

वंशानुसंक्रमण की बात जो लोग जानते हैं, उन्हें पता है कि वीर्य का एक सेल किस प्रकार अपने पिता के सभी गुण यहाँ तक कि उसकी बौद्धिक क्षमतायें भी अपने में धारण किये रहता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म बीमारियों तक का प्रभाव इन सेल्स पर होता है। अर्थात् ‘सेल्स’ का ‘नाभिक’ भाग अपने में अवचेतन मन के सारे भाव या अच्छे-बुरे विचार, जो अब तक नस-रेशों के रूप में विकसित हुए थे, अपने साथ धारण करके ले जाता है। यह सूक्ष्म संस्कार मृत्यु के समय जीवात्मा के साथ भी उसी प्रकार जाते और बने रहते हैं, जिस प्रकार वीर्य में सेल के साथ। आधुनिक वैज्ञानिक इस तरह सोचते हैं कि- सम्भवत मृत्यु के समय शरीर के ‘प्रोटोप्लाज्म’ नाम तत्व निकलकर किन्हीं वनस्पतियों में चले जाते हैं, फिर वनस्पति के गुण और अन्य जीव के गुणों में साम्य के अनुरूप कोई भेड़-बकरी, तोता, कुत्ता, बैल, गाय, भैंस या मनुष्य उसको खा लेता होगा और पूर्व शरीर वाला प्राणी यह नया जन्म-ग्रहण कर लेता होगा। यह एक विचित्र मान्यता है, जिसे भारतीय पुनर्जन्म सिद्धान्त के लिये हल्के-फुल्के ढंग से प्रस्तुत करते हैं। यह तुक तथा अब तक का परा मनोवैज्ञानिक खोजें भी उस सिद्धान्त की पुष्टि में सहायक ही होती हैं।

फ्रायड ने मनुष्य की मानसिक रचना का चित्रण करते हुए लिखा है- ज्ञानवान प्राणियों द्वारा भले-बुरे जो भी काम होते हैं उनका सूक्ष्मचित्रण अन्तःचेतना में ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह होता है। जिस प्रकार ग्रामोफोन ध्वनि एवं विद्युत-शक्ति से एक प्रकार का संक्षिप्त एवं सूक्ष्म एकीकरण होता है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी अच्छे-बुरे कर्म और विचारों का रिकार्ड होता है।, ग्रामोफोन की तरह उसमें अत्यन्त बारीक लाइनें बिछी होती हैं और जब दुबारा उन पर विद्युत सुई घूमने लगती है, तो वह वही पुराने शब्द दोहराने लगता है, ठीक उसी प्रकार अवचेतन मन जब जागृत अवस्था में आता है, तो उसके मस्तिष्क में कोई नये विचार तब तक नहीं आते, जब तक पुराने विचार और अच्छे-बुरे कर्मों की रेखायें भरी रहती हैं। उन्हें जब टेप-रिकार्ड के फीते की तरह साफ कर दिया जाता है, तो मस्तिष्क नई संरचना और मौलिक चिन्तन सूझ-बूझ और आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिये तैयार हो जाता है। सारा तप और प्रायश्चित-विधान इसी शुद्धिकरण और जीव को ऊर्ध्वगामी चेतना देने के लिये बनाया गया है, वह न तो असत्य है और न झुठलाये जाने योग्य। मानवीय सत्ता का सच्चा कल्याण इसी सिद्धान्त व पथ के अनुसरण में सन्निहित है।

मस्तिष्क के विश्व प्रसिद्ध शल्य-चिकित्सक डा. बिल्डर पेनफील्ड ने मस्तिष्क में एक ऐसी पट्टी का पता लगाया है, जो रिकाडिंग पद्धति के आधार पर काम करती है। उनके अनुसार यह पट्टी मस्तिष्क के उस भाग में है, जिसके बारे में अभी तक कुछ विशेष पता नहीं लगाया जा सका।

स्मरण की प्रक्रिया के बारे में डा. बिल्डर पेनफील्ड का कहना है कि वह काले रंग की दो पट्टियों में निहित है। यह पट्टियाँ लगभग 25 वर्ग इंच क्षेत्रफल में होती हैं, मोटाई इंच के दसवें भाग जितनी होती है। दोनों पट्टियाँ मस्तिष्क के चारों और लिपटी रहती हैं, यह पूरे मस्तिष्क को ढके रहती हैं। इन्हें ‘टेंपोरल कोरटेक्स’ कहा जाता है और यह कनपटियों के नीचे स्थित हैं। जब कोई पुरानी बातें याद करने का कोई प्रयत्न करता है, तो स्नायुओं से निकलती हुई विद्युत धारायें इन पट्टियों से गुजरती हैं, जिससे वह घटनायें याद आ जाती हैं। डा. पेनफील्ड ने मिरगी के कई रोगियों के मस्तिष्क का आपरेशन करते समय इन पट्टियों में कृत्रिम विद्युत-धारायें प्रवाहित की और यह पाया कि रोगियों की काफी पुरानी स्मृतियां ताजी हो गईं। एक रोगिणी को इस पट्टी पर हल्का करेन्ट दिया गया, तो वह एक गीत गुन-गुनाने लगी। वह गीत उसने पाँच वर्ष पहले सुना था। करेन्ट हटाते ही वह गीत फिर भूल गई। फिर करेन्ट लगाया, तो फिर गुन-गुनाने लगी।

अब डा. पेनफील्ड स्वयं भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जागृत अवस्था में व्यक्ति जैसी भी घटनायें देखता, सुनता, करता रहता है, उनका विस्तृत रिकार्ड मस्तिष्क में बना रहता है, यदि कुछ नये प्रयोग विकसित किये जा सके, तो मस्तिष्क को इतना सचेतन बनाया जा सकेगा कि वह बहुत काल की स्मृतियों को ताजा रख सकेगा। तब सम्भवतः इस जीवन से अनंतर पूर्व-जन्मों की स्मृतियों की भी उलट सम्भव हो जायेगी।

यह थी खोज किन्तु कर्मफल उससे भी बहुत कठोर, सुनिश्चित और अन्तर्व्यापी है, इसलिये उस पर शीघ्र तो लोग विश्वास नहीं करते पर यह सारा संसार उससे प्रभावित है और एक दिन सारा संसार उसे मानने को और सत्कर्म करने को विवश होगा। उत्पीड़न और अत्याचार के सभी कर्म मनुष्य को कई जन्मों तक सताते हैं, उनका परिमार्जन आसानी से नहीं हो पाता।

यहाँ एक बात समझ लेनी चाहिये कि मन भी एक प्रकार का सूक्ष्म विद्युत है और वह मस्तिष्क की इस पट्टी में जहाँ याद-दास्तें छिपी हैं, अपने आप चक्कर लगाया करता है, इस चक्कर से उसके मानसिक बनावट के अनुरूप जैसे अच्छे-बुरे विचार होते हैं, वह उभरते हैं और मनुष्य उसी प्रवाह में काम करने लगता है। उसे प्रकृति की प्रेरणा मानकर कुछ लोग यह भूल करते हैं कि जो कुछ गन्दा, फूहड़ विचार उठा वही करने लगते हैं, पर जो लोग कर्मफल पर विश्वास कर लेते हैं, वे बुराइयों और बुरे विचारों के प्रति सावधान रहने लगते हैं और जीवन में अच्छाइयों का प्रसार करते हुए प्रसन्न रहने लगते हैं।

डा. पेनफील्ड के यहाँ एक मिरगी का रोगी आता था। उसे मिरगी आने से पहले एक भयानक सपना आया करता था कि वह किसी उजाड़ और डरावने मकान के दरवाजे पर खड़ा है। कोई उल्लू भयंकर आवाज में बोलता है। वह डरकर दरवाजा खोलने का प्रयत्न करता है। उसे मालूम था कि दरवाजा खुलते ही कोई भयानक दृश्य सामने आता है कि उसे देखते ही उसे मिरगी आ जाती है।, इसलिये वह बहुत प्रयत्न करता कि दरवाजा न खोले पर अज्ञात शक्ति उसे वैसा करने को विवश कर देती और उसे मिरगी आ जाती, जिसमें पड़ा वह घंटों तड़पता रहता।

सचेत अवस्था में भी जब इस रोगी को डाक्टर करेन्ट लगाते, तो उसके मुख-मण्डल पर भय की रेखायें छा जातीं। डाक्टर ने उस स्थान का पता लगा लिया और उतने अंश का आपरेशन करके निकाल दिया जिससे रोगी अच्छा हो गया।

विज्ञान की यह शक्ति कर्मफल पर विस्तृत प्रभाव डालने वाली है। हम जिसे मन कहते हैं, वह एक प्रकार की विद्युत शक्ति है और वह उस स्मृति-पट्टी पर अपने आप भी घूमता रहता है। स्वप्नावस्था में भी यह क्रिया बन्द नहीं होती, उसे जहाँ पूर्व-जन्मों के उन स्मृतियों से गुजरना पड़ता है, जिसमें उत्पीड़न, भयंकरता, दण्ड, छटपटाहट, चोरी, दुष्टता जैसे कुकर्मों की रेखायें होती हैं, तो उसे तीव्र वेदना और अकुलाहट होती है। यही नहीं उस व्यक्ति में हीनता का अन्तर्भाव बढ़ता रहता है और ऐसा व्यक्ति जीवन में साधन और सुविधायें रहते हुए भी सुखी और शान्त नहीं रहता।

मिरगी के उस रोगी के बारे में यदि यह कहा जाये कि उसने पूर्व-जन्म धन या और किसी लोभ में किसी के घर का दरवाजा खोलकर किसी की हत्या की होगी, तो अतिशयोक्ति न होगी। ऐसे भयंकर दृश्यों के अंकन भी वैसे ही क्षिप्र, टेढ़े-मेढ़े और भयानक होते हैं, जब वह स्मृति उस व्यक्ति को आती होगी तो भय से मूर्छा आ जाती होगी। शरीर की छोटी से छोटी खुजली से लेकर दमा, श्वांस, क्षय, पक्षाघात, कुष्ठ आदि के कारण शरीर के विजातीय द्रव्य भले ही कहे जायें पर उन विजातीय द्रव्यों के उत्पादन का कारण मन और मन को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल ही कहना अधिक तर्क-संगत है। कोई भी व्याधि एवं पीड़ा कर्मफल के अतिरिक्त नहीं हो सकती।

भगवान अपनी इच्छा से किसी को दण्ड नहीं देते। कर्मफल ही दण्ड देते हैं। भगवान् तो बार-बार मनुष्य जीवन के रूप में जीव को वह अवसर प्रदान करते रहते हैं, जिससे वह विगत पापों का प्रायश्चित कर अपने शुद्ध-बुद्ध और निरंजन स्वरूप को प्राप्त कर ले जैसा कि ऋषि वामदेव ने अपने आप को उसी प्रकार पाप से जीवनमुक्त कर लिया, जैसे साँप केंचुली से छूट जाता है और परम स्वतन्त्रता अनुभव करने लगता है।


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