सत्य में हजार हाथियों का बल

December 1968

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सत्य की महिमा अपार है। शास्त्रों और ऋषियों ने उसे धर्म और अध्यात्म का आधार माना है और कहा है, ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ अर्थात् सत्य ही जीतता है, असत्य नहीं। चिरस्थायी सफलता का आधार सत्य पर रखा गया होता है। असत्य के सहारे कोई व्यक्ति थोड़े समय तक लाभ प्राप्त कर सकता है, पर जब वस्तुस्थिति प्रकट हो जाती है, तब उस लाभ को समाप्त होते हुए भी देर नहीं लगती। सत्य का वट-वृक्ष धीरे-धीरे भले ही बढ़ता और फलता-फूलता हो पर जब वह परिपुष्ट हो जाता है, तब उसका आयुष्य हजारों वर्षों का बन जाता है। वट वृक्ष की जड़ें नीचे जमीन में भी चलती हैं और ऊपर की शाखाओं में से भी निकलकर नीचे आती हैं और जमीन में प्रवेश कर वृक्ष की पुष्टि और आयु बढ़ाने में सहायक होती हैं। दूसरे छोटे पेड़-पौधे प्रकृति के प्रवाह को देर तक नहीं सह पाते और शीघ्र ही बूढ़े होकर अपना आस्तित्व खो बैठते हैं। सत्य वट-वृक्ष के समान है। अन्य आधारों पर प्राप्त की गई सफलतायें बरसात घास-पात की तरह है, जो नित्य के सूर्य की प्रखरता सहन कर सकने में समर्थ नहीं होती। ग्रीष्म ऋतु में उनका अस्तित्व अक्षुण्य नहीं रह सकता।

उक्ति है कि “सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल होता है। शारीरिक दृष्टी से यह बात सच भले ही न हो पर आत्मिक दृष्टि से पूर्णतया सही है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति में इतना आत्म-बल होता है कि वह अकेला हजार मिथ्याचारियों से भिड़ सकता है और अंततः वही विजय प्राप्त करता है। जहाँ सत्य है वहां अन्य गुण अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं, जहां असत्य है वहाँ दुर्गुणों का भंडार धीरे-धीरे बढ़ता चला जाता है। इसलिये आत्म-बल बढ़ाने के लिये, ईश्वर प्राप्त करने के लिये हमारे शास्त्रों में सत्य-निष्ठा को महानतम उपासना बताया है। भारतीय धर्म में सत्य को परमात्मा का स्वरूप माना है। सत्य को नारायण कहा गया है। सत्य-नारायण भगवान् की जय बोलने, कथा सुनने, व्रत रखने का अपने यहाँ चिर प्रचलन है। यह सत्य-नारायण कोई व्यक्ति या देवता नहीं है, वरन् सचाई को अन्तःकरण, मस्तिष्क और व्यवहार में प्रतिष्ठापित करने की प्रगाढ़ आस्था ही है। जो सत्य-निष्ठ है, वही सत्य-नारायण भगवान का समीपवर्ती साधक है। स्वर्ग और मुक्ति-सिद्धि और समृद्धि तो उसके कर लगता ही रहती है।

यही बात किसी सभ्यता, संस्कृति, जाति, समाज, अथवा संस्था पर लागू होती है, उसमें जितनी अधिक मात्रा में सचाई होगी, उतना ही उसका अस्तित्व सुदृढ़ बना रहेगा, उतना ही उसे फलने-फूलने का अवसर मिलेगा, उतना ही उसका सम्मान बढ़ेगा और उतना ही उसका विकास होगा। सचाई के अभाव में मिथ्या आधार को लेकर कितना ही विशाल कलेवर क्यों न खड़ा कर लिया जाय-कागज की नाव की तरह गलते, बालू के महल की तरह ढहते देर नहीं लगती। रामलीला समारोहों में कागज और बाँस की खपच्चियों से विशालकाय रावण बनाया जाता है। देखने वाले उसकी ऊँचाई और कलेवर देखकर कौतूहल और आश्चर्य अनुभव करते हैं, पर देखा यह जाता है कि उस समारोह में रावण-वध का जब समय आता है, तब कोई छोटा-सा आदमी दियासलाई एक कोने पर लगा देता है और वह विशालकाय आकृति थोड़ी ही देर में जल-जल कर भस्म हो जाती है। असत्य के आधार पर खड़े किये गये किसी भी आवरण का अन्त इसी प्रकार होता है। स्थिरता केवल सचाई में है और कही नहीं। असत्य के अन्धकार में सत्य को समझने में अक्सर लोगों को देर लग जाती है, इस देरी को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता यदि हम हो अन्ततः सत्य की ही विजय होने का सत्परिणाम कभी भी, कहीं भी देखा जा सकता है।

सत्य ही व्यक्ति के जीवन में बल एवं प्रकाश उत्पन्न करता है। सत्य के आधार पर समाज की शक्ति और क्षमता निखरती है। असत्य का आश्रय लेकर व्यक्ति और समाज का अधःपतन होता है। इसके विपरीत उत्थान की घड़ी तब आरम्भ होती है, जब सत्य का अवलम्बन ग्रहण करने की आकांक्षा प्रबल होती है और उसे अपनी गतिविधियों के आधार बनाने का साहस, सक्रियता धारण करके कार्यक्षेत्र में अग्रसर होती है।

सत्य भाषण वाणी का तप है, इससे ‘वाक् सिद्धि’ जैसी अनुभूतियाँ प्राप्त होती हैं, इसलिये सत्य-भाषण का हर किसी को अभ्यास करना चाहिये। उसके साथ ही प्रिय भाषण और हित भाषण के अलंकार भी जोड़ रखने चाहिये। सत्य तो बोलना ही चाहिये, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिये कि वह प्रिय एव मधुर भी हो और उसे सम्भाषण से दूसरों का हित साधन भी होता हो। कटु, कर्कश, मर्मभेदी, दूसरों को लाँछित, तिरस्कृत एवं अपमानित करने वाला, जिसमें दूसरों के अहित की सम्भावना हो ऐसा अनावश्यक सत्य भी कई बार सच बोलने के महान् गुण को दोष-युक्त कर देता है, इसलिये इस विकृति से बचने के लिये सत्य को प्रिय और हित इन दो आदर्शों के साथ संयुक्त करके प्रयोग करने का निर्देश दिया है। अप्रिय और अहितकारी सत्य का भी निषेध किया है, ‘न् ब्रूयात सत्यमप्रियम्’।

यह भ्रम दूर किया जाना चाहिये कि सत्य को अपनाने से मनुष्य धन और सम्मान की दृष्टि से घाटे में रहता है और झूंठ का सहारा लेने पर आमदनी एवं इज्जत बढ़ सकती है। इसी प्रकार इस भ्रम का भी निवारण होना चाहिये कि सत्य बोलना अथवा सत्य का अवलम्बन कठिन है। वस्तुस्थिति उन भ्रान्त धारणाओं से सर्वथा विपरीत है। सत्य अति सरल है। जो बात जैसी है, उसे वैसी ही कह देने में मस्तिष्क पर कोई जोर नहीं पड़ता, कोई अबोध बालक या मन्द-बुद्धि भी बिना किसी कठिनाई के जो बात उसे मालूम है, ज्यों की त्यों कह सकता है। किन्तु यदि झूठ बोलना हो तो मस्तिष्क पर बहुत जोर देने की आवश्यकता पड़ेगी और ऐसी भूमिका बनानी पड़ेगी, जो पकड़ में न आ सके। मन्द-बुद्धि व्यक्ति झूठ बोले तो कहीं न कहीं ऐसी त्रुटि रह जाती है, जिससे वह अक्सर पकड़ में आ जाती है। कार्तिक के महीने में तरबूजे खाने की गप्प कोई मार तो सकता है, पर उसे भी ज्ञान होना चाहिये कि किस ऋतु में क्या चीज पैदा होती है। यदि इसमें चूक हुई तो बनावटी तुरन्त खुल जायेगी। बढ़ा-चढ़ा कर कही बात के भ्रम में कोई बिरले ही आते हैं, आमतौर से अधिकाँश लोग समझ जाते हैं कि अपनी शान या शेखी जताने के लिये अथवा दूसरों को उल्लू बनाने के लिये यह बातें गढ़ी जा रही हैं। ऐसा सन्देह होने पर उसकी इज्जत गिर जाती है और सामने भले ही न कहे पेट में उसे झूठा मान लिया जाता है और झूठा व्यक्ति किसी का विश्वास-पात्र नहीं हो सकता और न इज्जत पा सकता है, यह निश्चित है, झूठ सरल है, सत्य कठिन है। या मानने वालों को जानना चाहिये कि झूंठ बोलना और उसे खुलने न देना किसी अति चतुर का अति कठिन कार्य है, सामान्य बुद्धि के लिये तो वह एक प्रकार से असम्भव और इज्जत को दाव पर लगाने वाला है। जो असत्यवादी, अविश्वासी माना जाता है, उसे किसी का सच्चा सहयोग नहीं मिलता। स्वार्थ के लिये जो मित्र बने हुए थे, अवसर आने पर वे भी उसे धोखा देते हैं और गिरे में लात लगाते देखे जाते हैं।

इसी प्रकार यह भ्रम भी त्यागने ही योग्य है कि असत्य से बढ़ोतरी होती या आमदनी बढ़ती है। सत्य की आड़ में किसी को जब तक धोखा दिया जा सकता है, केवल तभी तक किन्हीं छद्म व्यवसायों को चलाया जा सकता है। वस्तुस्थिति देर तक छिपी ही नहीं सकती। कहते हैं कि “पारे को पचाया नहीं जा सकता और पाप को छिपाया नहीं जा सकता।” झूठ आज नहीं तो कल खुलने ही वाला है।

जब छल-कपट सामने आता है, कलई खुलती है तो जो लोग ठगे जाकर उसे लाभ दे रहे थे, वे अलग हो जाते हैं, दूसरों को सावधान करते हैं, फलस्वरूप इसका व्यवसाय ठप्प हो जाता है। असत्य का अवलम्बन लेकर बढ़ाने वालों को जड़-मूल से नष्ट होते देखा गया है। ईश्वर के इस शासन में ऐसी सुदृढ़ न्याय-व्यवस्था मौजूद है, जिसके अनुसार अनीति देर तक नहीं पनप सकती। इसके विपरीत ‘सत्य की जड़ सदा हरी, वाली उक्ति में पूर्ण सार्थकता है। इस असत्य अविश्वास भरे जमाने में सहसा सत्यनिष्ठा पर भी विश्वास नहीं होता, उसे भी सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है, पर देर तक अपने आदर्शों पर जमे रहने के उपरान्त जब लोगों को यह विदित हो जाता है कि यहाँ सच्चाई, ईमानदारी और वास्तविकता है, तब लोग उसका सहयोग पाने, सहयोग देने के लिए आतुर रहने लगते हैं। उसके कार्यक्रमों में जन-सहयोग के कारण प्रगति होती है। उन्नति का एक आधार जन-सहयोग भी है। जिसे जन-सहयोग मिलेगा, उसे सफलता भी मिलेगी। श्रद्धा, आदर, सम्मान मिलने में जो आन्तरिक प्रसन्नता होती है, उसकी तुलना में संसार के सभी लाभ तुच्छ हैं। सबसे बड़ी बात आत्म-सन्तोष है। सत्यप्रवृत्तियाँ अपनाने से- सन्मार्ग पर चलने से आत्म-बल बढ़ता है और अन्तरात्मा इतना प्रफुल्ल रहता है, जितनी बड़ी से बड़ी समृद्धि अथवा सफलता प्राप्त करने पर भी सम्भव नहीं।

व्यक्तियों में महानता तथा देवत्व का अवतरण सत्य निष्ठा के आधार पर होता है, कुछ समय उन्हें सोने की तरह परख की कसौटी पर अवश्य चढ़ना पड़ता है, पर उस अग्नि-परीक्षा के बाद उनकी आभा और प्रामाणिकता अनेक गुनी बढ़ जाती है। परख की मंजिल जो धैर्यपूर्वक, साहस और दृढ़ता के साथ पार कर लेते हैं, उन्हें यही मानना ओर कहना पड़ता है कि सत्य में वस्तुतः हाथी के बराबर बल है। यही सिद्धान्त समाज व्यवस्था पर भी लागू होता है। जब सचाई की रीति-नीति अपनाई जाती है, तब संसार में किसी बात की कमी नहीं रहती। इस परिवर्तन के साथ युग बदलते हैं। जब यह सत्य का युग- नया युग बदलेगा, और समाज की समग्र सुख-शाँति की- रीति एवं समृद्धि का वातावरण उत्पन्न करेगा, इसमें सन्देह करने की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है।


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