कुण्डलिनी शक्ति जागरण का प्रथम सोपान

December 1968

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पिण्ड को ब्रह्माण्ड का एक छोटा-सा नमूना बताया गया है। वृक्ष का सारा कलेवर एक छोटे से बीज में समाया रहता है। नन्हे से क्षुद्र कीट में मनुष्य शरीर का सारा ढाँचा विद्यमान है। सौर-मंडल के ग्रहों का पारस्परिक आकर्षण और क्रिया-कलाप जिस ढंग से चलता है, उसकी एक नन्हीं-सी प्रक्रिया परमाणु परिवार के इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन आदि प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार समस्त ब्रह्माण्ड मनुष्य देह-पिण्ड में- एक लघु कलेवर में दृष्टिगोचर होता है। हमारी इस छोटी-सी देह में वह सब कुछ विद्यमान है, जो इस निखिल विश्व ब्रह्मांड में उपस्थित दृश्य और अदृश्य इकाइयों में पाया जाता है। इस पृथ्वी की समस्त विशेषताओं को भी हम अपनी इस छोटी-सी देह में विद्यमान देख सकते हैं।

पृथ्वी की समस्त शक्तियों, विशेषताओं और विभूतियों के केन्द्र उसके सन्तुलन बिन्दु- उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं। यहीं से वह सूत्र संचालन होता है, जिसके कारण यह धरती एक सजीव पिण्ड अगणित जीव-धारियों की क्रीड़ा-स्थली बनी हुई है। यदि ध्रुवों की स्थिति में किसी प्रकार आघात पहुंच जाय या परिवर्तन उपस्थित हो जाय तो फिर इस भू-मण्डल का स्वरूप बदल कर कुछ और ही तरह का हो जायेगा। कहा जाता है कि किसी ध्रुव के संतुलन केन्द्र पर यदि एक घूंसा मार देने जितना आघात भी पहुँचा दिया जाय, तो यह पृथ्वी अपनी कक्षा में लाखों-करोड़ों मील इधर-उधर हट जायगी और तब दिन, रात, ऋतु, वर्षा, सर्दी, गर्मी आदि का सारा स्वरूप ही बदलकर किसी दूसरे क्रम में परिणत हो जायेगा। यह छोटा-सा घूंसा आघात भू-पिण्ड का किसी अन्य ग्रह-नक्षत्र से टकराकर चूर-चूर हो जाने की स्थिति में डाल सकता है। कारण स्पष्ट है- ध्रुव ही तो धरती का सारा नियंत्रण करते हैं और उन्हीं के शक्ति संस्थान कठपुतली की तरह इस भू-मण्डल को विभिन्न क्रीड़ा-कलाप करने की प्रेरणा एवं क्षमता प्रदान करते हैं। दोनों ध्रुव ही तो उसकी क्रिया और चेतना केन्द्र-बिन्दु हैं।

जिस प्रकार पृथ्वी में चेतना में चेतना एव क्रिया उत्तर-दक्षिणी ध्रुवों से प्राप्त होती है उसी प्रकार मानव पिण्ड देह- भी दो ही अति सूक्ष्म शक्ति संस्थान हैं। उत्तरी ध्रुव है- ब्रह्मरंध्र- मस्तिष्क सहस्रार कमल। दक्षिणी ध्रुव है- सुषुम्ना संस्थान- कुण्डलिनी केन्द्र मूलाधार चक्र। पौराणिक कथा के अनुसार क्षीर-सागर में, सहस्र फन वाले सर्प पर विष्णु भगवान् शयन करते हैं। यह क्षीर-सागर मस्तिष्क में भरा श्वेत सघन स्नेह सरोवर ही है। सहस्र कमल एक ऐसा परमाणु है, जो अन्य डडडड की तरह ड़ड़ड़ड़ न होकर आरी के दाँतों की तरह कोण कलेवरों से ड़ड़ड़ड़ है। इन दांतों को सर्प फन कहते हैं। चेतना केन्द्र-बिन्दु- इसी ध्रुव कण में प्रतिष्ठित है। चेतन डडडड अचेतन मस्तिष्कों के अगणित घटकों को जो इन्द्रिय ड़ड़ड़ड़ एवं अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त होता है, उसका आधार डडडड ध्रुव-विष्णु अथवा सहस्रार कमल है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्मा चिन्तन से लेकर भक्तियोग तक की सारी आध्यात्मिक साधनायें तथा मनोबल, आत्म-बल एवं संकल्पजन्य-सिद्धियों का केन्द्र-बिन्दु इसी ड़ड़ड़ड़ पर है।

दूसरा दक्षिण ध्रुव- मूलाधार चक्र, सुमेरु संस्था सुषुम्ना केन्द्र है। जो मल-मूत्र के स्थानों के बीचों-बीच अवस्थित है। कुण्डलिनी, महासर्पिणी, प्रचण्ड क्रिया-शक्ति इसी स्थान पर सोई पड़ी है। उत्तरी ध्रुव का डडडड अपनी सहचरी सर्पिणी के बिना और दक्षिणी ध्रुव डडडड महासर्पिणी अपने महासर्प के बिना निरानन्द ड़ड़ड़ड़ जीवन व्यतीत करते हैं। मनुष्य शरीर विश्व की ड़ड़ड़ड़ विशेषताओं का प्रतीक प्रतिबिम्ब होते हुए भी तुच्छ जीवन व्यतीत करते हुए- कीट-पतंगों की मौत मर ड़ड़ड़ड़ है, कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाता, ड़ड़ड़ड़ एक मात्र कारण यही है कि हमारे पिण्ड के, देह के ड़ड़ड़ड़ ध्रुव मूर्छित पड़े हैं, यदि वे सजग हो होते डडडड ब्रह्माँड जैसी महान चेतना अपने पिण्ड में भी परिलक्षित होती।

मूत्र स्थान यों प्रकार से घृणित एवं उपेक्षित स्थान है। पर तत्त्वतः उसकी सामर्थ्य मस्तिष्क में अवस्थित ब्रह्मरंध्र जितनी ही है। वह हमारी सक्रियता का केन्द्र है। यों नाक, कान आदि छिद्र भी मल विसर्जन के लिए प्रयुक्त होते हैं, पर उन्हें कोई ढकता नहीं। मूत्र यन्त्र को ढकने की अनादि एवं आदिम परिपाटी के पीछे वह सतर्कता है, जिसमें यह निर्देश कि इस स्थान से जो अजस्र शक्ति प्रवाह बहता है, उसकी रक्षा की जानी चाहिये। शरीर के अन्य अंगों की तरह यों प्रजनन अवयव भी माँस-मज्जा मात्र से ही बने हैं, पर उनके दर्शन मात्र से मन विचलित हो उठता है। अश्लील चित्र अथवा अश्लील चिन्तन जब मस्तिष्क में उथल-पुथल पैदा कर देता है, तब उन अवयवों का दर्शन यदि भावनात्मक हलचल को उच्छृंखल बनादे तो आश्चर्य ही क्या? यहाँ यह रहस्य जान लेना ही चाहिये। मूत्र संस्थान के मूत में बैठी हुई कुंडलिनी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में भी इतनी तीव्र है कि उसकी प्रचण्ड धारायें खुली प्रवाहित नहीं रहने दी जा सकती हैं। उन्हें आवरण में रखने से उनका अपव्यय बचता है और अन्यों के मानसिक संतुलन को क्षति नहीं पहुंचती। छोटे बच्चो को भी कटिबन्ध इसलिये पहनाते हैं। ब्रह्मचारियों को धोती के अतिरिक्त लंगोट भी बाँधे रहना पड़ता है। पहलवान भी ऐसा ही करते हैं। संन्यास और वानप्रस्थ में यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क की सामर्थ्य से हम सभी परिचित हैं। पर कुण्डलिनी क्रिया-शक्ति के केन्द्र मूलाधार का रहस्य बहुत कम लोगों को मालूम है। उसी संस्थान का जादू है कि मनुष्य अपने समान एक नये मनुष्य को बना कर तैयार कर देता है, जबकि भगवान भी अपने जैसा नया भगवान बना सकने का साहस न कर सका। इन अवयवों का पारस्परिक स्पर्श होने से नर-नारी के बीच एक असाधारण भावना प्रवाह बहने लगता है। साथी के दुश्चरित्र और अविश्वस्त होने की बात मानते हुए भी परस्पर इतना आकर्षण हो जाता है कि व्यभिचार परायण नर-नारी भी एक दूसरे के लिये सभी मर्यादायें तोड़कर रोग, कलंक, पाप, परिवार-विग्रह एवं धन हानि की क्षति उठाते देखे गये हैं। विशुद्ध दाम्पत्य जीवन जीने वाले पति-पत्नी के पारस्परिक आकर्षण का केन्द्र जहाँ उनकी धर्म भावना है, वहाँ वह शारीरिक क्रिया कलाप भी हैं, जिनके कारण कुण्डलिनी बिन्दुओं का स्पर्श एक दूसरे के शरीर एवं मन पर जादुई प्रभाव डालता है और एक दूसरे को अपना वशवर्ती कर लेता है।

शिव लिंग के पूजा प्रचलन में एक महान आध्यात्मिक तत्व-ज्ञान का संकेत है, जिसमें व्यक्ति को सचेत किया गया है कि वह शरीर के इस अवयव में ईश्वरीय दिव्यशक्ति का अति उत्कृष्ट अंश समाविष्ट समझे और इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर की क्रिया शक्ति-कुण्डलिनी का प्रतीक प्रतिनिधि माने। शिव लिंग का जल अभिषेक करने का तात्पर्य यह भी है कि इस शक्ति के महान आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक है कि उसे शीतल रखा जाय, उदीप्त न होने दिया जाय। योगी-यती अपनी साधनाओं में यह तत्वज्ञान संजोये ही रहते हैं कि उन्हें ब्रह्मचर्य पूर्वक रहना चाहिये, ताकि पिण्ड की- देह की- मूलाधार क्रिया शक्ति कुण्डलिनी का अपव्यय न हो और वह बहिर्मुखी होकर अस्त-व्यस्त बनने, उच्छृंखल होने की अपेक्षा लौटकर ऊर्ध्वगामी दिशा पकड़ती हुई ब्रह्मरंध्र अवस्थित महासर्प के साथ तादात्म्य होकर परमानन्द- ब्रह्मानन्द का लक्ष्य प्राप्त कर सके।

कुण्डलिनी का एक अमोघ चमत्कार प्रजनन शक्ति- काम-क्रीड़ा और उसकी अनुभूतियों और प्रतिक्रियाओं के रूप में देखा समझा जाता रहा है। इस रूप में उसका उपयोग करने की इच्छा बोधवान बालकों से लेकर अशक्त वयोवृद्धों तक में पाई जाती है, भले ही वे उसे मूर्त रूप देने में तरुणों की तरह सफल न हो सकें। इतना मात्र परिचय वस्तुतः बहुत ही स्वल्प है। कुण्डलिनी काम-वासना के रूप में हमें जितना प्रभावित करती है, उससे लाखों गुना अधिक प्रभावित वह कर सकती है, सर्वांगीण-सर्वतोमुखी- क्रिया शक्ति के रूप में। भूखण्डों को काटकर वीरान बनाती चलने वाली उच्छृंखल नदियों को जब बाँध के रूप में रोका और नहरों के रूप में प्रवाहित किया जाता है, तो उससे सहस्रों एकड़ जमीन सींची जाती और उससे प्रचुर धन-धान्य की उत्पत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार प्रजनन शक्ति को कामुकता की उच्छृंखलता से रोककर यदि यदि अन्य रचनात्मक कार्यों में लगा दिया जाय तो उसके सत्परिणाम आश्चर्यजनक होते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आध्यात्मिक साधनाओं में इन्द्रिय संयम को- ब्रह्मचर्य को बहुत महत्व दिया गया है।

मल-मूत्र स्थान के मध्य अवस्थित मूलाधार चक्र का केन्द्र बिन्दु एक तिकोना कण है, जिसे ‘सुमेरु’ अथवा कूर्म कहते हैं। शरीर में समस्त जीवन कण गोल हैं, केवल दो ही ऐसे हैं, जिनकी आकृति में अन्तर है, एक ब्रह्मरंध्र स्थित सहस्रार कमल नाम से पुकार जाने वाला आरी की नोकों जैसी आकृति का ब्रह्मरंध्र- उत्तरी ध्रुव। दूसरा मूलाधार में अवस्थित चपटा, बीच में ऊँचा उठा हुआ- पर्वत या कछुए की आकृति वाला- दक्षिणी ध्रुव। इन दोनों पर ही जीव की सारी आधार शिला रखी है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोशों के- अन्तःकरण चतुष्टय में, सप्त प्राणों के- मूल आधार यही दो ध्रुव हैं। इन्हीं की शक्ति और प्रवृत्ति से हमारा बाह्य और अंतरंग जीवन क्रम चलते रहने में समर्थ होता है।

उत्तरी ध्रुव सहस्रार कमल में विक्षोभ उत्पन्न करने और उसकी शक्ति को अस्त-व्यस्त करने का दोष, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार जैसी दुष्प्रवृत्तियों का है। मस्तिष्क उन चिंतनों में दौड़ जाता है, तो उसे आत्म-चिन्तन के लिए- ब्रह्मशक्ति संचय के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव- मूलाधार में भरी प्रचण्ड क्षमता को कार्य शक्ति में लगा दिया जाय, तो मनुष्य पर्वत उठाने एवं समुद्र मथने जैसे कार्यों को कर सकता है। क्रिया शक्ति मानव प्राणी में असीम है। किन्तु उसका क्षय कामुकता के विष-विकारों में होता रहता है। यदि इस प्रवाह को गलत दिशा में रोककर सही दिशा में लगाया जा सके, मनुष्य की कार्य-क्षमता साधारण न रहकर दैत्यों अथवा देवताओं जैसी हो सकती है।

पुराणों में समुद्र मंथन की कथा आती है। यह सारा चित्रण सूक्ष्म रूप से मानव शरीर में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति के प्रयोग-प्रयोजन का है। हमारा मूत्र संस्थान-खारी जल से भरा समुद्र है। उसे अगणित रत्नों का भांडागार कह सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों की सुविस्तृत रत्न राशि इसमें छिपी हुई है। प्रजापति के संकेत पर एक बार समुद्र मथा गया। देव और दानव इसका मंथन करने जुट गये। असुर उसे अपनी ओर खींचते थे, अर्थात् कामुकता की ओर घसीटते थे और देवता उसे रचनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने के लिए तत्पर थे। इस खींच-तान को दूध में से मक्खन निकालने वाली, बिलोने की, मंथन की क्रिया चित्रित की गई है।

समुद्र मंथन उपाख्यान में यह भी वर्णन है कि भगवान् ने कछुए की रूप बनाकर आधार स्थापित किया। उनकी पीठ पर सुमेरु पर्वत ‘रई’ के स्थान पर अवस्थित हुआ। शेषनाग के साड़े तीन फेरे उस पर्वत पर लगाये गये और उसके द्वारा मन्थन कार्य सम्पन्न हुआ। कच्छप और सुमेरु मूलाधार चक्र में अवस्थित वह शक्ति बीज है, जो दूसरे कणों की तरह गोल न होकर चपटा है और जिसकी पीठ, नाभि ऊपर की ओर उभरी हुई है। इसके चारों ओर महासर्पिणी, कुण्डलिनी, साड़े तीन फेरे लपेट कर पड़ी हुई है। इसे जगाने का कार्य-मन्थन का प्रकरण उछाम वासना के उभार और दमन के रूप में होता है। देवता और असुर दोनों ही मनोभाव अपना-अपना जोर आजमाते हैं और मन्थन आरम्भ हो जाता है। कामुकता भड़काने और उसे रोकने का खेल ऐसा है जैसे सिंह को क्रुद्ध और उत्तेजित करने के उपरान्त उससे लड़ने का साहस करना। कृष्ण की रासलीला का आध्यात्म रहस्य कुछ इसी प्रकार का है। तंत्र में वर्णित पाँच भावों (मद्य, माँस, मीन वा मुद्रा, मैथुन सेवन) में पांचवां भाव मैथुन का है। उस प्रकरण की गहराई में जाने और विवेचन करने का अवसर नहीं। यहाँ तो इतना ही समझ लेना पर्याप्त है। कामुकता की उद्दीप्त स्थिति को प्रतिरोध द्वारा नियन्त्रित करने का पुरुषार्थ- समुद्र-मंथन का प्रयोजन पूरा करता है। रामकृष्ण परमहंस के जीवन चरित्र में ‘कुमारी पूजन’ की तंत्र प्रक्रिया का वर्णन आता है। इस अश्लील पूजा-पद्धति के पीछे तंत्र शास्त्र का प्रयोजन साधक की मनोभूमि में वह दृढ़ता उत्पन्न करना है जिसके अनुसार वह मनोबल को विचलित होने से बचा सके।

समुद्र-मंथन कुण्डलिनी शक्ति की स्थूल प्रेरणा- कामुकता को अन्य दिशा में नियोजित करना है। यों कामुकता भी विषयानन्द और सन्तान लाभ का सुख देती है, पर यह दो छोटे लाभ नगण्य है। समुद्र-मन्थन में 14 रत्न निकले थे। जिनमें अमृत, कल्प-वृक्ष, कामधेनु, जैसे अति उत्कृष्ट और अति महत्वपूर्ण भी थे। यह ऐतिहासिक अथवा पौराणिक उपाख्यान हमारे जीवन में चरितार्थ किया जा सकता है। कुण्डलिनी जागरण साधना में काम-वासना का निग्रह समुद्र-मंथन की भूमिका प्रस्तुत करता है। यों आगे चलकर आत्म-प्राण और महा-प्राण को इड़ा पिंगला के द्वारा सुषुम्ना तक पहुँचाने की साधना भी समुद्र-मंथन का दूसरा कार्यक्रम प्रस्तुत करती है, पर उसका प्रथम सोपान तो इन्द्रिय निग्रह पर ही अवलम्बित है।

उत्तरी ध्रुव सहस्रार विचार-शक्ति का और दक्षिणी ध्रुव, मूलाधार क्रिया-शक्ति का केन्द्र है। यह दोनों ही शक्तियाँ अद्भुत एवं महान् हैं। इनका समन्वय ही व्यक्ति को भौतिक एवं आत्मिक स्थिति को समुन्नत बनाने में समर्थ होता है। सहस्रार की विचारणात्मक साधनायें प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि स्तर की हैं। उनके अनेक प्रयोग और प्रयोजन हैं। उनकी चर्चा भी यथा अवसर करेंगे। इन पंक्तियों में तो कुण्डलिनी शक्ति का आरंभिक परिचय कराना और उसका प्रथम सोपान प्रस्तुत करना ही अभीष्ट है। अस्तु यहाँ इतना समझना और समझाना पर्याप्त है कि हम कुण्डलिनी के स्थूल स्वरूप की महत्ता समझें और यह अनुमान लगावें कि यदि उसे अन्तर्मुखी बनाकर प्रसुप्त दिव्य शक्तियों के जागरण में विधिवत् प्रयुक्त किया जा सके, तो अद्भुत एवं अनुपम लाभ उपलब्ध किये जा सकते हैं।

कुण्डलिनी शक्ति के बहिर्मुखी चमत्कार को देख लो। काम-वासना के कीड़े अपने और अपनी पत्नी के शरीर को बेतरह गलाते, घुलाते रहते हैं। विषयानन्द की एक हल्की-सी झाँकी ही उन्हें मिल पाती है। अपव्यय से अपने को खोखला कर डालने वाले उपयुक्त इन्द्रिय सुख भी तो प्राप्त नहीं कर पाते। कितनी बार निष्फलता के उपराँत कभी ही सन्तानोत्पादन में सफलता मिलती है। सो भी दीन-दुर्बल सन्तान के रूप में यदि वासनात्मक नियन्त्रण द्वारा कुण्डलिनी की बहिर्मुखी शक्ति को भी सुव्यवस्थित बना लिया जाय तो उसके प्रतिफल भी आश्चर्यजनक होते हैं। ब्रह्मचारी हनुमान लंका-दहन के उपरान्त समुद्र में कूद तो उनके कुछ उत्पादक कण जल में चले गये, उनको धारण कर मत्स्य कन्या ने मकरध्वज जैसे पराक्रमी को जन्म दिया। भीम का वनवासी पुत्र ‘घटोत्कच’ कितना शक्तिशाली था। व्यास द्वारा उत्पन्न किये गये तीन पुत्र पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर आने ढंग के अनोखे थे। विश्वामित्र की कन्या शकुन्तला ऐसी सफल माता रही कि उसके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का भारत नामकरण हुआ। लोमस पुत्री ऋंगी, व्यास पुत्र शुकदेव आदि की अगणित पौराणिक और ऐतिहासिक गाथायें मिलती हैं, जिनसे सिद्ध है कि कामुकता पर नियन्त्रण करने वाले ही सुसंतति उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। विषयानन्द का भी यदि कोई मूल्याँकन किया जाय, तो वह भी संयमी व्यक्तियों को ही प्राप्त होता है। कुण्डलिनी की संचित, परिपुष्ट एवं परिष्कृत शक्ति ही भौतिक प्रयोजनों को पूरा कर सकती है। जो उसके साथ खिलवाड़ करते रहते हैं, उन्हें तो शारीरिक अशक्ति और मानसिक अवसाद ही हाथ लगने वाले हैं। गृहस्थ जीवन में भी ब्रह्मचर्य की अधिकाधिक मर्यादाओं का पालन किया जाता रहे, तो उससे मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक दृढ़ता अक्षुण्य बनी रह सकती है।

मनुष्य शरीर में शारीरिक और मानसिक विद्युत-शक्ति का एक प्रचण्ड प्रवाह निरन्तर बहता रहता है। वैसे तो उसका प्रभाव समान लिंग वाले प्राणी पर भी पड़ता है, पर विपरीत लिंग की ओर तो वह विद्युत-धारा और भी तीव्रगति से प्रवाहित होती है। वासनात्मक आकर्षण का कारण यह विद्युत प्रवाह ही है। नर-नारी के संपर्क से वह धारा आकर्षण तक सीमित न रह कर प्रत्यावर्तन के रूप में बदल जाती है। दो तालाबों को एक नाली से जोड़ दिया जाय, तो अधिक ऊँचे जल का प्रवाह नीचे स्तर के जल की ओर प्रभावित होने लगेगा और यह प्रवाह तब तक चलता रहेगा, जब तक दोनों जल एक स्तर पर न आ जाय। उच्च मनोबल वाली आत्माओं को अपनी निधि का बचाव करने के लिये काम संयम करना पड़ता है। अन्यथा उनकी कृष्ट-साध्य संचित शक्तियाँ उस कामुक प्रवाह में बहकर दूसरे के पास चली जायँ और वह खाली हाथ रह जाय। रोगी और निरोग, पापी और पुण्यात्मा मूर्ख और बुद्धिमान स्वार्थी और परमार्थी भिन्न प्रकृति के दो प्राणी यदि विषय-बन्धन में बंधते हैं, तो निश्चित रूप से एक की विशेषतायें दूसरे में जायेंगी। बलवान पक्ष आपनी विशेषतायें दूसरे को देगा और उसकी दुर्बलतायें खरीद लेगा। उसमें कमजोर पक्ष लाभ में रहेगा और सबल पक्ष घाटा उठायेगा। नर-नारी का मिलन दोनों को स्तर एक जैसा बना देता है। पार्वती हिमांचल कन्या थी, पर शिव के साथ विवाह होने पर वे ‘अर्ध नारी नन्देश्वर’ की सहधर्मिणी ही नहीं अर्धांगिनी भी बन गई। शारीरिक मिलन मात्र में जब भारी सहानुभूति एक दूसरे में उत्पन्न हो जाती है, तो साथ में आत्म-मिलन भी रहने पर दोनों के व्यक्तित्वों का प्रत्यावर्तन नितांत स्वाभाविक है। महामानवों की धर्म-पत्नियाँ प्रायः अपने पतियों जैसी ही संपूजित एवं यशस्विनी हुई हैं। भले ही उनकी योग्यता न्यून रही हो। कारण स्पष्ट है, बौद्धिक स्तर भिन्न रहने पर भी आत्मिक स्तर एक हो जाता है और अध्यात्मिक मूल्याँकन की दृष्टि से वे पति-पत्नी एक ही स्तर के बन जाते हैं। देवताओं के साथ उनकी पत्नियों के नाम जुड़े होने का यही कारण है। सीता-राम, राधेश्याम, लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश, शची पुरन्दर, वाणी हिरण्यगर्भ आदि सपत्नीक नामों का उच्चारण इसी तथ्य को प्रतिपादित करता है।

श्री रामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदामणि, गाँधी जी की पत्नी कस्तूरबा की महानता उनके पतियों द्वारा प्रदत्त थी। हमारी पत्नी, माता भगवती देवी ने भी कुछ आध्यात्मिक उपलब्धियाँ ऐसे ही निकट संपर्क से प्राप्त की हैं। जब साधारण संपर्क, सम्बन्ध, सत्संग लोगों को प्रकाश एवं प्रेरणा प्रदान कर सकते हैं, तो शरीर एवं मन का अन्तरंग प्रत्यावर्तन प्राणियों की विशेषतायें एक दूसरे में परिवर्तन करे, तो इसमें अचंभे की कुछ भी बात नहीं है।

श्री रामकृष्ण परमहंस ने शक्तिपात द्वारा अपनी तपशक्ति एवं महत्ता विवेकानन्द को परिवर्तित कर दी थी। मरते समय उन्होंने अपने प्रिय शिष्य से कहा- ‘‘मेरे पास कुछ शेष नहीं है, जो था तुझे दे चुका।” यह आध्यात्मिक एवं समग्र शक्तिपात था। शारीरिक शक्तिपात काम-क्रीड़ा द्वारा करते रहने पर मनुष्य अपनी शक्तियों को अंशतः क्रमशः दूसरे को प्रदान करता रहता है। वह भी यदि उसे धारण करने योग्य न रहा तो केवल बर्बादी ही होती रहती है। इस प्रकार काम सेवन एक प्रकार का आत्म-क्षरण ही है। साँप किसी को काटकर जैसे निस्तेज, हतप्रभ हो जाता है, वैसे ही कामी व्यक्ति भी निस्वत्व होता चला जाता है। विचारशील व्यक्ति अपनी इस मूल्यवान निधि को सोच समझकर केवल उपयोगी प्रयोजन के लिये ही व्यय करते हैं।

कुण्डलिनी शक्ति का वासनात्मक प्रयोग आज सर्वत्र हो रहा है। उससे यह प्रचण्ड विद्युत-धारा ऐसे ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। यदि दाम्पत्य जीवन में भी इसका क्रमबद्ध प्रयोग हो सका होता, तो एक सशक्त पक्ष अपने दूसरे साथी को कुछ लाभ पहुँचा सका होता। पर वैसा भी तो नहीं होता। दोष, दुर्गुणों से भरे मनुष्य अपने दाम्पत्य जीवन में अपनी दुष्प्रवृत्तियाँ ही एक दूसरे को देकर नीचे की ओर ही धकेलते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से किये गये विवाहों में साथी की उच्च आत्मिक स्थिति परखी जाती थी, पर आज तो दूसरी ही कसौटियां सामने आ गईं, तो विवाह भी व्यक्तियों का एक दूसरे द्वारा अभिवर्धन करने का उद्देश्य खोकर नीचे धकेलने का ही आधार बने हुए हैं। विवाह करने वालों में से आज कोई बिरले ही ऐसे हैं, जो सावित्री, सत्यवान्, च्यवन, सुकन्या जैसा लाभ दूसरे को दे पाते हैं।

इन तथ्यों पर विचार करते हुए ब्रह्मचर्य की उपयोगिता का रहस्य सहज ही समझ में आता है। यह प्रकृति के विरुद्ध दुराग्रह नहीं वरन् शक्ति के उत्पादन, पोषण, संचय एवं सदुपयोग का महान् विज्ञान है, जिसे चिरकाल से परखा जाता और सही प्रमाणित किया जाता रहा है। हमें ब्रह्मचर्य की कुण्डलिनी महाशक्ति के संदर्भ में देखना, परखना होगा और संयम साधना द्वारा यह पथ प्रशस्त करना होगा, जिसके आधार पर कि पिण्ड के- दक्षिणी ध्रुव- मूलाधार के शक्ति-पुँज को शरीर और मन की अगणित दिव्य शक्तियों के अभिवर्धन में प्रयुक्त करके मानवीय महत्ता को देवोमय स्तर के उच्च-शिखर तक पहुँचाया जा सके।

कुण्डलिनी जागरण की एक फुस्कार से भी कितना काम चल सकता है, इसका छोटा-सा अनुभव हम अपने व्यक्तिगत जीवन में कर चुके हैं। उसकी क्षमता मस्तिष्क को इतना तीव्र बना सकती है कि चारों वेद, 108 उपनिषद्, छहों दर्शन, 20 स्मृति, 18 पुराण, प्रमुख ब्राह्मण एवं असंख्य ग्रन्थों का भाषान्तर तथा लगभग 300 से अधिक अन्य पुस्तकों का लेखन एक ही व्यक्ति द्वारा सम्पन्न हो सका, जो कार्य की विशालता को देखते हुए अचम्भा जैसा लगता है। सार्वजनिक क्षेत्र में संगठन, प्रचार एवं रचनात्मक कार्यों को देखते हुए भी लगता है कि 1000 व्यक्तियों द्वारा सम्भव हो सकने वाला कार्य एक व्यक्ति ने सम्पन्न किया और भी अनेक अनुभव ऐसे हैं जो अभी अप्रकट रखे गये हैं। वे बताते हैं कि अधूरी एवं आँशिक कुण्डलिनी की छोटी-सी हलचल भी मनुष्य की क्रियाशक्ति को कितनी बढ़ा सकती है। फिर समग्र कुण्डलिनी जागरण के आधार पर तो किसी की शक्ति कितनी बढ़ सकती है, इसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है।

अध्यात्म की महान शक्ति इस विश्व की सर्वोपरि शक्ति है। उसे उपलब्ध करने के लिये हमें अपने उत्तरी और दक्षिणी दोनों ध्रुवों को साधन प्रक्रियाओं और तपश्चर्याओं द्वारा सजग करना चाहिये। दक्षिणी ध्रुव, मूलाधार का- एक प्रथम सोपान-ब्रह्मचर्य इस लेख में इंगित किया गया है, आगे उसके विभिन्न पक्षों पर समयानुसार प्रकाश डालते रहेंगे।


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