फ्रायड का सेक्स एक विद्रूप विडम्बना

December 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आंकड़े देने से बात कड़ुवी न होती तो बताते कि पाश्चात्य देशों में यौन-सदाचार’ की कितनी दुर्गति हुई है। इस दुर्गति के परिणामस्वरूप वहाँ के वैयक्तिक जीवन में रोग-शोक, चिन्ता, दुर्वासनायें पारिवारिक जीवन में क्रोध, ड़ड़ड़ड़, असंतोष और संताप एवं सामाजिक जीवन में अशाँति, उच्छृंखलता, उद्दंडता और शत्रुता का कितना भयानक वातावरण छा गया है। एक छोटा-सा प्रमाण यही है कि अमेरिका जैसे धनी देश के नागरिकों में 100 के पीछे 60 लोगों को नींद आने के लिये दवा की गोली लेनी पड़ती है, लोगों के मस्तिष्क तनाव और चिन्ताओं के बोझ से दबे रहते हैं, अपनी पत्नी पर भी भरोसा नहीं कर सकते वह किस क्षण तलाक दे दे और घर-बार छोड़ कर चली जाये।

अब यह प्रवाह धीरे-धीरे इस देश को भी छूने लगा है। बालकों के चरित्र और सहवास की मर्यादायें ढीली होने से स्वास्थ्य पर तो बुरा असर पड़ा ही है, सामाजिक जीवन में उच्छृंखल मनोवृत्ति का तेजी से विकास होता जा रहा है। वंशानु-संक्रमण की सारी तेजस्विता और स्वाभिमान नष्ट होता जा रहा है। बच्चे छोटी अवस्था से ही आत्म-हीनता (इनफीरियरिटी काम्प्लेक्स) से ग्रसित होते जा रहे हैं। आज का नवयुवक अपने भीतर इतनी आत्म-हीनता भरे हुये रहता है कि वह अपने आपको अच्छी तरह व्यक्त भी नहीं कर सकता।

यह फ्रायड जैसे कामुकता समर्थक दार्शनिकों की ही देन है- जिसने पाश्चात्य देशों को मनो-विज्ञान के नाम पर बहुत प्रभावित किया है और वहीं से वह आँधी अब इस देश में भी बढ़ती आ रही है। मार्क्स ने आर्थिक आवश्यकताओं को प्रधानता दी, जिससे लोगों के जीवन का एक लक्ष्य हो गया- ‘पैसा’। फ्रायड ने ‘काम-सुख’ ही इष्ट’ का सिद्धान्त देकर लोगों को वासना का अपराधी बना दिया। यदि आज के मनुष्य का मानसिक विश्लेषण किया जाय तो मिलेगा कि ईश्वर, आत्मा, ज्ञान, शिक्षा, प्रेम, व्यवहार, आदर, सत्कार, सामंजस्य, सहयोग, लोक-सुधार और पारलौकिक सद्गति आदि की कल्पना उन्हें छू भी नहीं गई- (1)पैसा और (2) काम सुख। यही दो लक्ष्य अब शेष रह गये हैं।

परमात्मा ने शरीर में जहाँ अनेक ऐसे यन्त्र लगाये हैं, जो इस जीवन और पारलौकिक सुखों की प्राप्ति में मदद देते हैं, वहाँ उन ग्रन्थियों की रचना भी की है, जिससे सृष्टि का क्रम न रुके। यहाँ निरन्तर गति और जीवन बना रहे। किन्तु उसकी भी अपनी मर्यादा है, उसे तोड़ने का साहस करना अपने, समाज और परमात्मा तीनों के प्रति विश्वासघात कहा जायेगा।

फ्रायड का कथन है कि ‘काम सेवन’ से ही मनुष्य का जन्म होता है, यह प्रकृति की देन है, इसलिये जो जितना अधिक अपनी वासना की पूर्ति कर सकता है, वह उतना ही सुखी है। वासना की सन्तुष्टि के लिये विवाह मर्यादाओं का उल्लंघन करना पड़े तो भी वह अपराध नहीं है। फ्रायड लिखते हैं कि छोटे बालक के मन में स्वयमेव अपनी माँ के साथ ही (इडिपुस काम्प्लेक्स) और पुत्री की अपने पिता के साथ (इलेक्ट्रा काम्प्लेक्स) काम सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा जाग उठती है। पुत्र अपनी माँ से मिलना चाहता है, किन्तु जब वह देखता है कि उसका पिता यह स्थान पहले ही ग्रहण किए हुए है, तो उसके मन में पिता के प्रति घृणा और दुर्भाव पैदा होने लगता है। घृणा और विद्वेष कई बार इतने भयंकर हो उठते हैं कि वह अपने पिता को मार डालने तक की बात सोचने लगता है, उसी प्रकार जब वह माँ के साथ काम सम्बन्ध स्थापित रखने के वंचित रखा जाता है, तो उसके अन्दर आत्म-हीनता की भावना विकसित होने लगती है। फ्रायड ने व्यक्तित्व के विकास और सभ्यता के मार्ग में इस प्रकार की आत्म-हीनता को अवरोध माना है और यह विश्वास व्यक्त किया है कि यदि ‘काम-वासना’ की पूर्ति को बिल्कुल स्वच्छन्द कर दिया जाये, तो मनुष्य सभ्यता और संस्कृति के चरम बिन्दु तक पहुँच सकता है। फ्रायड यह नहीं मानते कि इस तरह का विचार केवल एबनार्मल (अर्थात् कुछ असाधारण) लोगों में ही उठता है वरन् वे इसे नार्मल अर्थात् सहज वृत्ति मानते हैं।

अबोध बालक में इस तरह का यौन आकर्षण होना अयुक्ति ही नहीं बहुत हास्यास्पद बात है। भारतवर्ष में मृत्यु पर्यन्त माता के प्रति लोगों में इतनी पवित्रता होती है कि ऐसे गंदे और फूहड़ विचार मस्तिष्क में आते तक नहीं। पिता-माता के प्रति दुर्भाव आना सहज वृत्ति रही होती तो श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कंधों पर चढ़ाते हुए न घूमता। राम दशरथ की बात ठुकरा देते और अयोध्या में गृह-युद्ध की स्थिति की बात पैदा कर देते। दुर्योधन जैसा अत्याचारी शासक भी अपने माता-पिता का उतना ही भक्त था, जितना किसी आदर्श संतान हो होना चाहिये। भरत कुमार के लिये तो वन में कोई अवरोध नहीं था पर उसने अपनी माँ की उपासना देवताओं की तरह की।

फ्रायड के इस थोथे सिद्धाँत की वास्तविकता प्रकट करते हुये, श्री इलाचन्द जोशी लिखते हैं- “फ्रायड अपनी सुन्दरी माता आमेलिया फ्रायड का पहला पुत्र था। आमेलिया के पति याकोब फ्रायड ने यह दूसरा विवाह किया था। जब फ्रायड का जन्म हुआ था, तब आमेलिया की आयु कुल 21 वर्ष की थी, प्रथम सन्तान के प्रति माँ का भी अत्यधिक स्नेह और लाड़-प्यार होता है, फ्रायड जन्मजात प्रतिभाशाली और तीव्र अनुभूतिशील बालक था। आश्चर्य नहीं कि इस प्रीकोशस बालक के मन में सचेत ही रूप में अपनी स्नेहशीला और सुन्दरी माता के प्रति बहुत छोटी अवस्था में ही तीव्र यौनाकांक्षा जाग उठी हो। फ्रायड कुतूहली और ईर्ष्यालु स्वभाव का भी था। पिता उसे कई बार डाँटता भी था, इसलिये पिता के प्रति दुर्भाव हो जाना स्वाभाविक हो सकता है।

अपने जीवन की इसी संस्कार जन्य कमजोरी को लगता है, फ्रायड ने एक सर्व-साधारण सिद्धान्त मान लिया और उसे ही सत्य सिद्ध करने में जीवन भर लगा रहा। मनुष्य जीवन की साधारण गति अधोमुखी होती ही है, सो उसे समर्थक भी मिलते गये और देखते देखते ‘फ्रायड के सेक्स’ ने सारे पाश्चात्य समाज को अपनी कुण्डली में बाँध लिया।

नैपोलियन 25 वर्ष की आयु तक काम-सुख तो क्या नारी के प्रति भी आकृष्ट नहीं हुआ था। न्यूटन के मस्तिष्क में यौनाकर्षण उठा होता तो उसने अपना बुद्धि-कौशल सृष्टि के रहस्य जानने की अपेक्षा अपरिमित काम-सुख प्राप्त करने में झोंक दिया होता। भीष्म और हनुमान प्रतिज्ञा बद्ध हो सकते हैं, पर न्यूटन के सामने तो वैसी कठिनाई थी ही नहीं। जन्मजात प्रतिभायें अधोमुखी ही नहीं ऊर्ध्वमुखी भी होती रही हैं और उनके काम-सुख की अपेक्षा अधिक सुख लोगों को मिलता रहा है। हमारे देश में तो सच्चे और शाश्वत सुख की प्राप्ति में काम-वासना को प्रधान बाधा माना गया है। रामकृष्ण परम हंस विवाहित होकर भी योगियों की तरह रहे, वे सदैव आनंद विह्वल रहते थे। स्वामी रामतीर्थ और भगवान् बुद्ध ने तो ड़ड़ड़ड़ सुख के लिये तरुणी पत्नियों का परित्याग तक कर दिया था। महर्षि दयानन्द ब्रह्मचारी होकर जिये। महात्मा गाँधी ने 36 वर्ष की अवस्था के बाद काम-वासना के बिल्कुल नियन्त्रित कर दिया था तो भी उनके जीवन में प्रसन्नता का फव्वारा बहता रहता था, तब फिर क्या ‘काम-सुख को प्रधान जीवन सुख और लक्ष्य’ की मान्यता दी जा सकती है।

‘रेतस’ को ऊर्ध्वगामी बनाकर जो उल्लास शक्ति प्रसन्नता प्रमोद और आनन्द मिलता है, योग-शास्त्रों डडडड उसकी बड़ी प्रशंसा की गई है और उसे अनवरत डडडड सुख से भी बढ़कर बताया गया है। यौनाकर्षण डडडड क्षणिक सुख की प्रेरणा देता है, इस प्रकार की तृप्ति आँशिक सुख भले ही मिल जाता हो पर बाद में शरीर और आत्मा की दुर्गति ही होती है। मनुष्य के विचार और क्रिया-कलाप सब निम्नगामी होते चले जाते हैं, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में वह विद्रूप और उपद्रव खड़े हो जाते हैं, जिनकी चर्चा प्रथम पंक्तियों में गई है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118