अपना स्वर्ग आप स्वयं बनायें

December 1968

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स्वर्ग पाने के लिये प्रायः लोग उत्सुक रहते हैं। स्वर्ग ऐ उपलब्धि मानी जाती है। मनुष्य की यह इच्छा होती है कि यह जिस स्थान पर है, वहाँ से आगे बढ़े। वह उन वस्तुओं को प्राप्त करे, जो उसके पास नहीं हैं। मनुष्य एक जीवन्त प्राणी ही नहीं, वह विवेक तत्व से भी समन्वित है। जीवन और विवेक का मिलन उसे उन्नति और प्रगति के लिये प्रेरित करता है। जिसमें यह दोनों तत्व मौजूद होते हैं, वे आगे बढ़ने और ऊपर उठने के प्रयत्न से विरत नहीं रह सकते। वे उसके लिये यथासाध्य प्रयत्न अवश्य करेंगे।

स्वर्ग एक उपलब्धि मानी गई है। उसको संसार से अलग भी माना जाता है। मानव-जन्म के उपलक्ष में संसार तो उसे मिल ही चुका होता है। अस्तु, अपनी प्रकृति के अनुसार इस मिले हुए से आगे पढ़कर, जो अब तक नहीं मिला है, उस स्वर्ग को पाना चाहता है। ऐसा करने में उसे पुरुषार्थ का श्रेय मिलता है, वृत्ति का संतोष होता है और उपलब्धि का गौरव प्राप्त होता है।

स्वर्ग पाने की लोग कामना मात्र ही नहीं करते, उसे पाने का प्रयत्न भी करते हैं। जप, तप, पूजा-पाठ, पुण्य, परमार्थ और साधना, उपासना में संलग्न होने के पीछे प्रायः स्वर्ग पाने की ही कामना छिपी रहती है। यद्यपि सकाम उपासना को अधिक श्रेष्ठ नहीं माना गया है, तथापि यदि वह कामना साँसारिक पदार्थों के आगे की वस्तुओं को पाने से सम्बन्धित है तो उसको किसी हद तक स्वीकार कर लिया जाता है।

स्वर्ग संसार से अलग बसा हुआ कोई देश अथवा स्थल नहीं है। जहाँ संसार समर जीतने वाले लोग जाकर रहते हैं। वास्तव में स्वर्ग मानव-जीवन की एक स्थिति है, जो इसी भूमि और इसी जीवन में पाई जा सकती है। जो इसी जीवन में उस स्थिति को नहीं पा सकता, वह लोकान्तर में, यदि कोई है भी, तो उस स्वर्ग को पा सकता है, यह सर्वथा संदिग्ध है। इस जीवन में भूमि का स्वर्ग पाने वाले ही उस स्वर्ग को पा सकने के अधिकारी हो सकते हैं। यदि वह स्वर्ग प्राप्ति है तो उसकी पात्रता इसी भूमि और इसी जीवन में उपार्जित करनी होती है।

स्वर्ग क्या है? स्वर्ग वह स्थिति है, जिसमें मनुष्य के आस-पास आनन्ददायक प्रियता ही प्रियता बनी रहे। संसार के सारे धर्म साहित्य में स्वर्ग का वर्णन आता है। उसके सम्बन्ध में न जाने कितनी कथायें पढ़ने को मिलती हैं। लोगों का स्वर्ग के लिये लालायित रहना, उसको पाने के लिये पुण्य तथा पुरुषार्थ का उपक्रम करना, परमार्थ तथा आध्यात्म का अनुसरण करना आदि पढ़ने को मिलता है। किसी धर्म अथवा मत सम्प्रदाय में स्वर्ग के स्वरूप और उसकी विशेषताओं के विषय में कोई भी मान्यता अथवा धारणा क्यों न रही हो, लेकिन उस सबका सार ही है कि वहाँ सब कुछ प्रिय तथा आनन्ददायक ही है। वहाँ पर ऐसे कारण नहीं हैं, जिनसे मनुष्य को कष्ट, क्लेश अथवा दुःख प्राप्त हो। ऐसा स्वर्ग जिसकी विशेषता आनन्द तथा प्रियता है, मनुष्य स्वयं अपने लिये इस पृथ्वी और इस जीवन में ही रच सकते हैं। अपने अन्दर तथा बाहर की परिस्थितियाँ इस प्रकार से निर्मित करली जायँ, जिससे न तो प्रतिकूलता का जन्म हो और न दुःख अथवा शोक-संताप का। वरन् इसके विपरीत प्रियता तथा आनन्द की अवस्थायें बनी रहें। यह मनुष्य के अपने वश की बात है। वह इस प्रकार का वाँछित स्वर्ग अपने लिये यहीं पर बना सकता है और निश्चित रूप से बना सकता है।

स्वर्ग की विशेषताओं में आनन्द के अतिरिक्त एक विशेषता अमरता भी है। ऐसी मान्यता है कि स्वर्ग प्राप्त कर लेने वाले देवकोटि में पहुँच जाते हैं और देवता अमर होते हैं, कभी मरते नहीं। अर्थात् स्वर्ग का अधिकारी अमरत्व का भी अधिकारी होता है। किन्तु सत्य बात यह है कि स्वर्ग की विशेषताओं में अमरता की उतनी प्रधानता नहीं है, जितनी की आनन्द की। यदि अमरता छोड़कर स्वर्ग से आनन्द की विशेषता हटाली जाय और वहाँ की परिस्थितियाँ संसार की तरह सामान्य दुःख-सुख और कष्ट, क्लेश देने वाली हो जायँ तो शायद उस एकाकी अमरता से भरा स्वर्ग बड़ा घोर और भयानक बन जाये। लोग उसके लिये लालायित तो क्या हों, उल्टे उसकी कल्पना से भी भयभीत होने लगें। यदि आनन्द से रहित अमरतापूर्ण स्वर्ग किसी अनायास ही मिलने लगे तब भी कोई उसे स्वीकार न करे। इस थोड़ी-सी अवधि के जीवन में जब आनंद का अभाव हो जाता है, दुख और क्लेश का दबाव बढ़ जाता है तो वह दुर्वह भार बन जाता है। लोग उससे पीछा छुड़ाने के लिये उत्सुक हो उठते हैं, तब भला निरानन्द अमरता से भरा वह युग-युग की अवधि वाला स्वर्गीय जीवन कितना भयानक और असह्य भार बन जाये। आनन्द-हीन अमरता की अपेक्षा लोग सानन्द नश्वरता को ही अधिक पसन्द भी करेंगे और श्रेय भी देंगे। आनन्द की प्रधानता के कारण ही स्वर्ग की अमरता का महत्व है, अन्यथा वह तो एक असीम कारागृह से अधिक कुछ नहीं है। नरक क्या है? आनंद रहित अमरता ही तो है, प्रतिकूलता से भी परिस्थितियां ही तो हैं, दुख और यातना से पूर्ण अवस्था ही तो है। स्वर्ग का महत्व अमरत्व के कारण नहीं, आनन्द के कारण है। और आनन्द की उत्पत्ति अनुकूल तथा प्रियतापूर्ण परिस्थितियों से होती है।

वह आनन्दपूर्ण स्वर्ग जो परलौकिक स्वर्ग की तरह अमरता वाला भले ही न हो पर जो आपके इस जीवन में ही मूर्तिमान हो सकता है, आप स्वयं अपने प्रयत्न से निर्माण कर सकते हैं। वह प्रियता जो आनन्द की जननी कही गई है।, आत्मीयता से उत्पन्न होती है। संसार में मनुष्य को जो कुछ अच्छा और प्रिय लगता है, वह आत्मभाव के कारण। संसार की कोई भी वस्तु कितनी ही सुन्दर और उपयोगी क्यों न हो, तब तक प्रिय नहीं लगती जब तक उसमें आत्म-भाव स्थापित न हो। किन्हीं दर्शनीय स्थानों को दो आदमी एक साथ देखते हैं। उनमें से एक उसके सुंदर दृश्य को देखकर आनन्दित और आत्म-विभोर हो उठता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उसे देखकर अनमना बना रहता है। उसे उसमें न तो कोई आकर्षण अनुभव होता है और न प्रियता। इसका कारण ही है कि एक व्यक्ति उस दृश्य में तन्मय होकर उससे आत्मीयता स्थापित कर लेता है, जबकि दूसरा तटस्थ रहता है। यदि उस दृश्य की सुन्दरता ही प्रियता का कारण होता, तो दोनों व्यक्तियों को ही वह दृश्य एक समान सुन्दर और प्रिय लगता। प्रियतापूर्ण आकर्षण का कारण मनुष्य का आत्म-भाव है न कि किसी वस्तु की विशेषता या गुण।

एक और उदाहरण के लिये अपने बच्चों और परिजनों को ले लीजिये। अपने बच्चे और परिजन सबको बहुत प्रिय होते हैं। उनकी तुलना में दूसरे के बच्चे और परिजन जरा भी प्रिय नहीं लगते, फिर चाहे वे अपने बच्चों और परिजनों की अपेक्षा कितने ही अधिक अच्छे और गुणवान क्यों न हों। बच्चों के विषय में तो यहाँ तक देखा जाता है कि अपना काला-कलूटा और कुरूप बच्चे तक दूसरों के फूल जैसे सुंदर बच्चों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रिय लगता है। अपने परिजनों की तुलना में भी अपने बच्चे ही अधिक प्रिय तथा सुन्दर लगते हैं। इस भेद का कारण कोई स्वार्थ अथवा द्वेष नहीं है, बल्कि वह आत्म-भाव है, जो व्यक्तियों में न्यूनाधिक मात्रा में स्थापित होता है।

और भी देखिये- बहुत बार ऐसा भी होता है कि अपने बच्चे की अपेक्षा अपना भतीजा, भाँजा अथवा कोई अन्य बच्चा ही अधिक प्रिय लगने लगता है। इस विपर्य का कारण भी यही है कि किन्हीं कारणों से अपने बच्चे की तुलना में दूसरे बच्चे से आत्मीयता अधिक हो जाती है। इस प्रकार देख सकते हैं कि प्रियता का कारण अथवा आधार गुण, सुन्दरता, स्वार्थ अथवा आत्म-जातता अथवा सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि मनुष्य का अपना आत्म-भाव ही होता है, जो किसी से भी स्थापित हो सकता है। साराँश में इस बात को इस प्रकार कहा जा सकता है कि संसार की कोई भी वस्तु आप में न तो प्रिय है और न अप्रिय। किसी कारणवश जब किसी वस्तु में आत्मभाव जुड़ जाता है, तो वह प्रिय लगने लगती है और जिसमें आत्म-भाव नहीं जुड़ पाता अथवा किसी कारण से जुड़ा हुआ, आत्म-भाव टूट जाता है, तो वही वस्तु प्रियता रहित हो जाती है। प्रियता की उत्पत्ति आत्मीयता से होती है और किसी बात से नहीं।

मानव का सहज स्वभाव है कि वह अपने आस-पास प्रियजनों तथा प्रिय वस्तुओं को पाकर बड़ा सुखी और प्रसन्न होता है। जब तक उसकी मनभाई परिस्थिति उसे प्राप्त रहती है, दुःख शोक अथवा ताप का उसे अनुभव नहीं होता। इस प्रकार यदि हमारे आस-पास प्रिय वस्तुयें, प्रिय व्यक्ति और मन चाही अनुकूल परिस्थिति बनी रहे, तो क्या हम जीवन भर सुखी और संतुष्ट नहीं रह सकते? रह सकते हैं और निश्चित रूप से रह सकते हैं। जीवन भर निर्विघ्न रूप से सुखी और संतुष्ट रखने वाली परिस्थितियाँ ही जीवन की वह स्थिति है, जिसे हम धरती का स्वर्ग कह सकते हैं।

यदि आपको ऐसा स्वर्ग वाँछित तथा अपेक्षित है, तो अपने आत्म-भाव का विस्तार कर अनुकूल तथा प्रियतापूर्ण परिस्थितियां प्राप्त कर लीजिये। आज से ही अपने-पराये की संकीर्णता त्याग दीजिये। जन-जन को आत्मीयता का अमृत और प्रेम का प्रसाद बाँटने लगिये। अपने पड़ौसियों को अपना परिजन, दूसरे के बच्चों को अपना बच्चा और आगे बढ़कर जीव-मात्र को अपना आत्मीय समझिये और वैसा ही व्यवहार करिये। उनके लिये उसी प्रकार का त्याग और वैसी ही सेवा करने में तत्पर रहिये, जैसी की आप अपने प्रिय एवं परिजनों के लिये करने को तैयार रहते हैं। दूसरों के दुःख से उसी प्रकार दुःखी और सुख से उसी प्रकार सुखी होइये, जिस प्रकार अपने प्रिय एवं परिजनों के लिये होते हैं। और तब देखिये कि आप वह आनन्द और वह संतोष पाते हैं या नहीं, जिसको कल्पना किसी लोकान्तरिक स्वर्ग में की जाती है।

शुद्ध और निर्विकार बात तो यह हे कि अपनी दी हुई आत्मीयता के बदले में प्रेम अथवा प्रशंसा की कामना न की जाय और सारा सद्व्यवहार केवल अपनी ओर से एकाकी ही करते रहा जाय। इस निस्वार्थ-भाव में जो आनन्द और जो संतोष है, वह तो स्वर्गीय आनंद और सन्तोष से भी बढ़कर है। तथापि आत्मीयता के बदले में आत्मीयता मिलना स्वाभाविक है। जो जिसको प्रेम देता है, वह उससे प्रेम पाता है। जो जिसे अपना मानता है, जैसा व्यवहार करता है, वैसा ही अपनत्व और व्यवहार पाता भी है।

जब जन-जन को निस्वार्थ-भाव से आत्मीय मानकर तदनुसार व्यवहार करेंगे और दूसरों के आत्मीय बनकर तदनुसार व्यवहार पायेंगे, तो ऐसे किसी सुख-सन्तोष से वंचित रह सकते हैं, जिसकी कल्पना लोकान्तरित स्वर्ग में भी जा सकती है। आत्म-निर्मित पृथ्वी का यह स्वर्ग अधिक सत्य, अधिक सरल और अधिक महत्वपूर्ण है। यदि आपके इस आध्यात्मिक उपाय से पृथ्वी पर अपना स्वर्ग निर्माण कर लिया, तो निश्चय मानिये इसके उपलक्ष अथवा प्रतिफल में आप उस स्वर्ग को भी प्राप्त कर लेंगे, जिसका वर्णन मन मोह लेता है।


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