शास्त्रों में अणिमा, गरिमा, महिमा, लछिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व और वाशित्व आदि अष्ट सिद्धियों का वर्णन मिलता है। कहीं-कहीं इन सिद्धियों को परकाया प्रवेश, जल-असंग, उत्क्राँति, ज्वलन, दिव्य श्रवण, आकाश मार्ग-गमन आदि नाम दिये जाते हैं। शंकराचार्य ने सिद्धियों का विवेचन और तरह से किया है। किन्हीं रोगियों में विविधा सिद्धि, आत्म-सिद्धि और शरीर-सिद्धि आदि सिद्धियों के नाम दिये हैं। प्रकारान्तर के विवरण भेद-मूलक नहीं। सब एक ही हैं, नाम अलग-अलग हैं।
अपार शारीरिक बल, अद्भुत मनोबल, वाणी से कहे हुए आशीर्वाद और शापों का सफल होना शरीर सिद्धि के ही अंतर्गत आता है। यद्यपि सिद्धियों और चमत्कारों को आत्म-कल्याण में बाधक माना गया है, उससे साधक का अहंकार बढ़ता है और वह योग-भ्रष्ट हो सकता है। इसलिये उनका सार्वजनिक प्रदर्शन वर्जित है, तथापि शाप और वरदानों के द्वारा दूसरों का हित अथवा अहित करने की बात आदिकाल से प्रचलित रही है। जहाँ महापुरुषों का आशीर्वाद और वरदान प्राप्त करने के लिये लोग उनकी सेवा करते थे, अपनी पात्रता सिद्ध करते थे, वहाँ कई बार दुष्ट लोगों को दण्ड देने के लिये शाप का भी आश्रय लिया जाता था।
राजा प्रतापभानु और अरिमर्दन ब्राह्मणों के शाप से ही राक्षसकुल में पैदा हुये थे। परीक्षित को साँप ने काटा और उससे उनकी मृत्यु हो गई, वह भी शापवश ही था। श्रवणकुमार के पिता-माता के शाप का प्रभाव था कि पुत्र वियोग में चक्रवर्ती सम्राट् दशरथ का तड़प-तड़प कर निधन हुआ।
ऐसी सैकड़ों कथायें पुराणों में भरी हैं, वहीं आशीर्वादों द्वारा दूसरों को लाभ पहुँचाने के भी अनेक उदाहरण हैं। गुरु वशिष्ठ के आशीर्वाद से ही राम रावण को परास्त कर सके। यमाचार्य के आशीर्वाद से नचिकेता महायोगी और महर्षि विश्वामित्र के वरदान ने हरिश्चन्द्र को विश्वविख्यात कर दिया। रावण, कुम्भकरण, भस्मासुर, सहस्त्रार्जुन आदि के वरदान ही तो प्राप्त किये थे, योगी की शक्ति और संकल्प बल के अनुरूप एक ही नहीं सैकड़ों व्यक्तियों का कल्याण भी सम्भव है और अकल्याण भी।
अब यह बात पाश्चात्य देश भी मानने लगे हैं। विशुद्ध अन्तःकरण से, आहत अन्तःकरण से निकली हुई वाणी प्रायः असत्य नहीं हुआ करतीं, इसलिये कहा जाता है, कि दीन-दुःखी, पीड़ित, अपंग और पिछड़े हुओं के हैरान नहीं करना चाहिये। कहीं ‘आह’ न लग जाये। महापुरुषों, सन्तों और सच्चे अर्थों में लोक-कल्याण की भावना जाग गई है, जिनकी उनको सेवा करनी चाहिये, उनका न मालूम कौन-सा शब्द वरदान बन जाये। योग- ग्रन्थों में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुये लिखा है- ‘‘वह संकल्प स्वरूप है, अपनी संकल्प शक्ति से ही वह विश्व का पालन, सृजन और विनाश किया करता है।” यद्यपि “प्राणै वा ब्रह्म’ प्राण ही ब्रह्म भी कहा गया है। पर इस प्रथम सूक्ति में कोई परिभाषायी भेद नहीं संकल्प मूल है और प्राण माध्यम जिस प्रकार कोई विचार पहले मस्तिष्क में उठता है, फिर उसकी विद्युत तरंगें सारे शरीर के प्राण को कम्पित करती हुई, हाथ को क्रियाशील होने की प्रेरणा देती हैं और हाथ काम करने लगता है, वहीं सामंजस्य, संकल्प और प्राण का है। मूल प्रेरणा संकल्प की होती है और कर्ता प्राण होता है। संकल्प की स्थिति के अनुरूप एक तरह के प्राण विशिष्ट प्राणों में कैसे परिवर्तित होते हैं, इनका वर्णन फिर कभी करेंगे, यहाँ इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि वायरस या विषाणु का संसर्ग जब किसी अन्य प्रकार के जीवाणुओं से होता है, तो वे उन सारे जीवाणुओं को अपने स्वरूप में बदल लेते हैं, इस तरह दूसरे प्रकार के अणु भी एक ही तरह का काम करने लगते हैं, इसी तथ्य को सिद्ध करके आर्थर कार्नबर्ग और डाक्टर आकोआ ने नोबुल पुरस्कार प्राप्त किया था।
मनुष्य भी परमात्मा की तरह का एक छोटा संकल्प है, जिस प्रकार परमात्मा सारे ब्रह्माण्ड को अपने संकल्प में घेरे रहता है, उसी प्रकार एक व्यक्ति एक निश्चित क्षेत्र के प्राणों को अपने संकल्प द्वारा एक तरह के अणुओं में परिवर्तित कर सकता है। यह संकल्प यदि विध्वंसक हो तो उसकी प्रतिक्रिया भी विध्वंस की हो जाती है और यदि सर्जक संकल्प है, तो वह बुरी परिस्थितियों और वस्तुओं को भी अच्छी परिस्थितियों में बदल सकता है। प्राचीन काल में ऋषि-आश्रमों में जाकर गाय और सिंह एक घाट पानी पी आते थे, वह संकल्प शक्ति का ही चमत्कार था। शाप और वरदान के साथ भी यही संकल्प विज्ञान जुड़ा हुआ है। विचार वेत्ता विद्वान भी संकल्प शक्ति की इस महान महत्ता को स्वीकार करते हैं।
“कोई विश्वास क्यों नहीं करेगा? यदि प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाये।” इस कथन की पुष्टि के लिये हम आपको महाराष्ट्र के जिला जलगाँव के अंतर्गत सोयगाँव ले जाना चाहेंगे। जलगाँव अजिष्ठा मार्ग पर पहुर नामक एक छोटा-सा गाँव है, वहाँ से शेदुर्णी जाने वाली कच्ची सड़क पर 3 मील दूर पर सोयगाँव अवस्थित है। इस गाँव में वाणी सििद्ध का एक अद्भुत चमत्कारी नीम का एक पेड़ है। जिसकी प्रत्येक डाल के पत्ते कड़ुवे हैं, किन्तु एक डाल ऐसी है, जिसमें आज भी इस विज्ञान के युग में भी मीठे पत्ते लगते हैं। अनेकों पत्रकार, नेता और भक्त लोग उसका दर्शन करने सोयगाँव जाते और प्रकृति के इस अद्भुत चमत्कार को देखकर आश्चर्य चकित हो जाते हैं।
इस चमत्कार का रहस्य प्रकृति की विलक्षणता नहीं एक साधु के वरदान का परिणाम है। शेदूर्णी में कड़ोवा महाराज नामक एक सन्त रहते थे। उन्हें भगवान् के दर्शन हुये थे, ऐसा लोगों का विश्वास है, किन्तु पाखण्डी लोग उन्हें द्वेष और तिरस्कार से कटु-कटु कहकर चिढ़ाया करते थे।
एक दिन वे सोयगाँव से गुजर रहे थे। इस नीम के पेड़ के नीचे कई लोग बैठे थे। उन्होंने कड़ोवा महाराज को तंग करना प्रारम्भ कर दिया। उनका कहना था- “यदि तुम्हें भगवान् के दर्शन हुये हैं, तो हमें भी कराओ अन्यथा तुम्हारा ढोंग नहीं चल सकेगा।”
महाराज थोड़ा मुस्कराये और निर्विकार भाव से बोले भाई- ‘‘भगवान् बड़ा शक्तिशाली, भयंकर और विकराल भी है, पहले उसे देखने का साहस और भाव उत्पन्न करो। अचानक देख लोगे तो डर जाओगे, मर जाओगे।” पर वे लोग इतने श्रद्धालु होते, तो छेड़खानी ही क्यों करते?
इस पर महाराज ने कहा- ‘‘अच्छा वह नीम की डाली देखते हो- सबने कहा हाँ। नीम कड़ुवा होता है पर यदि भगवान् है तो आज से इस डाली की पत्तियाँ जब तक यह वृक्ष रहेगा, मीठी ही रहेगी।” इतना कहकर कड़ोवा महाराज वहाँ से चले गये। पीछे लोगों ने चढ़कर पत्तियाँ तोड़ीं और चखीं तो वह सचमुच मीठी निकलीं और यह चमत्कार अब तक ज्यों का त्यों है। लोगों का यह भी विश्वास है कि इन पत्तों को खाने से शरीर की बीमारियाँ दूर होती हैं।
अब एक फकीर की ‘बद्दुआ’ का भी जिक्र समयोचित है। यह घटना स्वतन्त्र भारत के पूर्व की है, किन्तु अभी भी उसका प्रभाव वैसा ही है और उसका परिणाम इस समय पाकिस्तान में कराँची स्थित अमेरिका दूतावास भुगत रहा है।
कहते हैं, इस स्थान पर किसी पीर की मजार थी। उस पीर का एक शिष्य वहाँ बैठकर नित्य-प्रति कुरान शरीफ पढ़ा करता था। वह स्थान काफी दूर तक खुला हुआ था और वहाँ काफी स्थान भी था, इसलिये इमारत बनवाने के लिये श्री सोहराब जी रुस्तम जी पोतवाला ने यह जमीन खरीद ली और नींव खुदाई प्रारम्भ करा दी।
इस पर फकीर ने मना किया- इस स्थान पर इमारत खड़ी न करिये, यह पीर की मजार है और धार्मिक पूजा-पाठ, उत्सव के लिये सुरक्षित है किन्तु पोतवाला जी ने उसकी एक न सुनी। बिल्डिंग बननी प्रारम्भ हो गई।
इस पर उस फकीर ने शाप दिया, इस जमीन पर रहने वाला कभी जीवित और चैन से न रहेगा। यह कह कर वह वह फकीर कहीं अन्यत्र चला गया। कुछ लोग कहते हैं उसने वहीं साँस चढ़ाकर प्राणान्त कर दिया। पर पोतवाला जी ने इन सब बातों का बकवास कहकर मकान का बनवाना जारी रखा।
प्रतिक्रिया चार-छः दिन बाद ही दिखाई देने लगी। एक मजदूर को साँप ने काट लिया और वह मर गया। एक की गर्दन टूट जाने से मृत्यु हो गई। पोतवाला जी ने दुगुनी-तिगुनी मजदूरी दी, इसलिये मकान तो बनता रहा, पर एक-एक कर उनके वंश के लोग मरने लगे। एक दिन उनका भतीजा छत से गिरकर मर गया। उसको बचाने के प्रयत्न में स्वयं पोतवाला जी की मृत्यु हो गई। अब उस मकान का स्वामित्व पोतवाला के पुत्र दोराब जी के हाथ आ गया। वे भी अपने पिता के समान ही हठवादी थे, उन्होंने भी मकान बनाना जारी रखा, किन्तु कुछ ऐसा हुआ कि थोड़े ही दिन में एक जंग लगी खिड़की खोलते समय हाथ कट गया। जंग का जहर सारे शरीर में फैल गया और उनकी मृत्यु हो गई। इस तरह मकान तो बन गया, पर उस पर रहने वाला कोई न बचा।
कुछ दिन बाद चार अंग्रेजों ने उस मकान को किराये पर लिया। लोगों ने मना भी किया, किन्तु उन्होंने कहा- ‘‘न तो कोई आत्मा होती है, न कोई भूत प्रेत, सब अन्ध विश्वास है।” लोगों ने कहा- ‘‘भाई, अन्ध-विश्वास की अपनी सीमा है पर कही-कहीं सच्चाई भी होती है।’’ सच्चाई न हो तो अन्ध-विश्वास फैले कहाँ से?”
उन्होंने किसी की बात न मानी। पर पहले ही दिन चारों ने रात में एक ही स्वप्न देखा कि कोई कह रहा है- ‘‘तुम लोग इस घर में रहे तो तुम्हें हवा-पानी, आग और मिट्टी खा जायेगी।” चारों विस्मित तो हुये पर उन्होंने कहा यह सब अवचेतन मन की प्रतिक्रिया है। दिन भर इस तरह की चर्चा और विचार करते रहने से ही इस तरह का स्वप्न दिखाई दिया है।
किन्तु थोड़ ही दिन बीते थे कि उसमें से एक अंग्रेज लापता हो गया। बाद में पता चला कि वह एक गड्ढे में गिर गया, मजदूरों ने भूल से ऊपर से और मिट्टी पटक दी, जिससे वह उसी में दबकर मर गया। दूसरा अंग्रेज इंग्लैंड लौटते समय हवाई जहाज से गिरकर मर गया। तीसरे के शरीर में आग लग गई और उसकी भी मृत्यु हो गई। चौथे के मुंह से सोड़ावाटर की बोतल फट गई और उसकी भी मृत्यु हो गई। इस तरह चारों को मिट्टी हवा, आग और पानी ने खा लिया।
अब तक यह महान पूरी तरह भुतहा घोषित हो गया था। बाद में उसे गिरवा दिया गया। किन्तु जब अमेरिका ने अपना दूतावास कराँची में खोला तो अधिकारियों ने फिर वही जगह चुनी। लोगों ने मना भी किया पर अमेरिकन न माने, हाँ जब कई अंग्रेजों और उच्च अधिकारियों ने भी इस बात की पुष्टि की तो उस मजार के स्थान को छोड़ कर मशहूर डिजाइनर जे. न्यूतरासे ने दूतावास की बिल्डिंग का नक्शा बनाया। भूतपूर्व प्रेसीडेन्ट मेजर जनरल इस्कन्दर मिरजा और अनेक धार्मिक व्यक्तियों ने उस स्थान की पूजा की। तब से कोई मृत्यु तो नहीं हुई किन्तु जब अमेरिका के राष्ट्रपति जान्सन ने पाकिस्तान का दौरा किया, तो उनका विशेषज्ञ भीतर कमरे में अकेला रह गया। न किसी दरवाजे को साँकल लगी, न ताला फिर भी लाख प्रयत्न करने पर दरवाजे न खुले। तोड़कर ही बाहर के लोग अन्दर जा सके। दूतावास के निवासियों को ऐसी अनेक घटनाओं का सामना अभी भी करना पड़ जाता है। उन्हें कई प्रकार की आवाजें भी सुनाई देती हैं, पर चूँकि वे लोग मजार पर पूर्ण श्रद्धा रखते हैं, इसलिये अब कोई मृत्यु नहीं होती, किन्तु अभी लोगों का ख्याल है कि पाकिस्तान में विदेशनीति में परिवर्तन और अमेरिका की ओर से झंझट उस दूतावास पर लगे शाप का ही परिणाम है।
आशीर्वाद और शाप उच्च आत्माओं, पवित्र आत्माओं के लिये कोई बड़ी बात नहीं पर समझदार लोग उसे लाभान्वित भी हो सकते हैं और किसी दीन-दुखी की ‘बद्दुआ’ से बच भी सकते हैं।