सच्चाई की परख :-
श्रावस्ती में वैदेहिका नाम की एक संपन्न महिला रहती थी। सौजन्य और माधुर्य के लिये वह सारे नगर में विख्यात थी। किसी भी दुःखी का दुःख उससे देखा नहीं जाता था। सब लोग उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे। तो भी वैदेहिका को कुछ अहंकार अवश्य रहता था।
वैदेहिका के परिवार में उसकी एक नौकरानी थी। नाम तो काली था, पर उस जैसा स्वामि-भक्त और कर्तव्य परायण उस समय सारी श्रावस्ती में कोई नहीं था। वैदेहिका उसे अपनी पुत्री की तरह मानती और प्रायः कहा करती कि उसके जीवन में काली से बढ़कर और किसी को स्नेह और आदर नहीं।
पर सच्चाई की परख तो समय पर होती है। कुछ ही दिनों में पता चल गया कि यह स्नेह और आदर तभी तक था, जब तक काली उपयोगिनी थी।
एक दिन किसी कार्यवश काली को रात देर तक जागना पड़ा। अतएव वह प्रातः शीघ्र उठ न सकी। देर से वैदेहिका के पास पहुंची तो वह क्रोध से उबल पड़ी- ‘‘आजकल तू बहुत ढीठ हो गई है। मेरे अन्न खाकर मुझसे ही बहाने बनाती है।”
काली ने झिड़की खाई और अपने काम में लग गई। सोचा, कोई कष्ट हुआ होगा, इसीलिये मालकिन को गुस्सा आ गया होगा।
संयोगवश दूसरे दिन काली को रात ज्वर हो आया। प्रातः हल्की नींद आ जाने से उस दिन कुछ और विलम्ब हो गया। वह जैसे ही वैदेहिका के पास पहुंची, क्रोध से आग बबूला वैदेहिका ने लोहे की छड़ उसके सिर पर दे मारी। काली अचेत भूमि पर गिर पड़ी। इस बीच और भी लोग इकट्ठे हो गये। एक वयोवृद्ध ने कहा- ‘‘वैदेहिका, आज तुम्हारा यश झूठा पड़ गया। सच्चे आदमी में क्षमा और धैर्य भी होता है।