प्रेम-तत्त्व को ज्ञानियों ने अमृत की संज्ञा दी है। निस्सन्देह प्रेम तीनों प्रकार से अमृत ही है। यह स्वयं अमर होता है। जिसकी आत्मा में यह आविर्भूत होता है, उसे अमर बना देता है। इसकी अनुभूति और इसका रस अमृत के समान अक्षय आनंद देने वाला होता है। प्रेम अमृत अर्थात् अमर होता है। यह तत्त्व ने तो कभी मरता है, न नष्ट होता है और न इसमें परिवर्तन का विकार उत्पन्न होता है। एक बार उत्पन्न होकर यह सदा-सर्वदा बना रहता है। संसार की हर वस्तु, अवस्था, विचार, परिस्थितियाँ, विश्वास, धारणाएं, मान्यतायें, प्रथायें यहाँ तक कि मनुष्य और शरीर तक बदल जाते हैं, किन्तु प्रेम अपने पूर्णरूप में सदैव अपरिवर्तनशील रहता है। यही इसकी अमरता है। प्रेम अमृत है, स्वयं अमर है।
प्रेम न स्वयं ही अमृत है, बल्कि जिसकी आत्मा में इसका आविर्भाव होता है, उसे भी अमर बना देता है। प्रेम की पूर्णता प्राप्त किये बिना, जिस प्रेममय को निर्यात के अधीन शरीर त्याग करना पड़ता है, वह पुनः शरीर धारण कर उसी स्थान से अपनी प्रेम-साधना को आगे बढ़ाता है। अवधि पूरी होने पर नियति उसका एक शरीर तो ले सकती है, किन्तु साधना पूरी करने के लिये उसका नया शरीर धारण करना वर्जित नहीं कर सकती। साधना के लिये एक ही जीवात्मा की यह शरीर परम्परा अमरता का ही तो लक्षण है। उपरान्त जब उसकी प्रेम साधना अपनी पूर्णता को प्राप्त होती है, तब तो प्रेमी जीवन-मरण की पुनरावृत्ति से ही मुक्त हो जाता है और मोक्ष नामक उस पद को प्राप्त कर लेता है, जो न के अमर ही होता है, बल्कि अक्षय शाश्वत होता है।
प्रेम-तत्त्व में अमृतानंद की अनुभूति होती है। प्रेम-तत्व से ओत-प्रोत आत्मायें प्रायः वीतराग हो जाती हैं। उनके विषय-भोग की वासनायें शान्त हो जाती हैं। इसलिये नहीं कि वे इसके योग्य नहीं रहते अथवा अक्षय हो जाते हैं, बल्कि वे प्रेम के अमृतानंद की उपस्थिति में विषय-भोगों की नश्वरता तथा मिथ्यात्व से अवगत हो जाते हैं। जो सत्य और सब कुछ पा सका है, वह मिथ्या तथा तुच्छता की कामना किस प्रकार कर सकता है। भौतिक रूप से प्रेमियों को प्रायः घाटे में रहना पड़ता है। वे त्याग और उत्सर्ग की मूर्ति होते हैं। अपने प्रेमास्पद के लिये सर्वस्व बलिदान कर देते हैं, तब भी प्रेम के प्रसाद से एक अनिवर्चनीय आनन्द से ओत-प्रोत बने रहते हैं। वे आत्म-तुष्ट, आत्मानन्दित तथा आत्म-सुखी बने रहते हैं। देश से प्रेम करने वालों, धर्म से प्रेम करने वालों, विचार और आदर्श से प्रेम करने वालों ने गोली, शूली, फाँसी और अंग-भंग की भयानक यातनायें पाईं, किन्तु प्रेम के प्रसाद से उनके मुख की आनन्दमयी मुस्कान कभी बन्द नहीं हुई।
यदि प्रेम में अमृत आनन्द का गुण न होता तो उसके आधार पर न तो कोई मर्मान्तक मानना सहन करता और न त्याग एवं उत्सर्ग के द्वारा प्राप्त निर्धनता और अभाव को अहोभाग्य मानता। प्रेम से परिपूर्ण आत्मा वाला उसके अक्षय आनन्द से भरा हुआ, गूंगे के गुड खाने जैसे अबोल आनन्द का रस लेता हुआ प्रतिक्षण संतुष्ट बना रहता है। प्रेम का अमृतानन्द सारे आनन्दों से ऊपर और स्पृहणीय है।
बहुत बार देखा जाता है कि लोग अपने प्रेमास्पद के लिये आँसू बहाते हैं। अपने आराध्य के सम्मुख मंदिरों में विलाप करते हैं। याचना करते हैं कि उन्हें शरीर कारा से मुक्त कर प्रेमास्पद के साथ एक रूप कर दिया जाय। इस प्रकार की व्याकुलता से व्याप्त मनुष्य को देखकर उसके भक्त अथवा प्रेमी होने का अनुमान होता है। किन्तु वे ही व्यक्ति जब अपने आस-पास के दुःखी और क्लान्त मनुष्यों को देखकर उनकी पीड़ा जानकर भी मौन और उदासीन बना रहता है। दया, संवेदना अथवा करुणा से द्रवित वही हो तो तुरन्त ही उसे प्रति बना प्रेमी का भाव बदल जाता है और मानना पड़ता है कि अमुक व्यक्ति यथार्थ रूप में प्रेमी नहीं है, बल्कि प्रेम प्रदर्शन करने वाला ढोंगी है। प्रेम-तत्व ओत-प्रोत व्यक्ति की आत्मा बड़ी करुण और हृदय बड़ा दयावान होता है। करुणा और दया प्रेम के प्रमुख प्रसाद हैं। अपने को प्रेमी मानकर भी जो अकरुण है, कठोर है, निश्चित रूप से वह आडम्बरी है, फिर भावातिरेक में वह अपन प्रेमास्पद अथवा आराध्य के लिये रो-रो कर नदियाँ क्यों न बहाता रहे। सच्चा प्रेमी-भोगी अणु-अणु में अपने प्रेमास्पद का ही आभास पाता है, वह सदा-सर्वदा सबके लिये करुणापूर्ण प्रेम को प्रसाद बाँटता रहता है।
किसी दीन-दुखी को देखकर उसका मार्मिक हृदय उसकी सेवा, सहायता किए बिना रह ही नहीं सकता। महात्मा गाँधी, महात्मा ईसा, सच्चे ईश्वर भक्त और मानवता के प्रेमी थे। महात्मा गाँधी अपन आश्रम के कोढ़ियों तक की सेवा-सुश्रूषा किया करते थे और महात्मा ईसा तो मार्ग में मिले दुःखियों का, जब तक दुःख दूर नहीं कर लेते थे, अपनी आगे की यात्रा तक स्थगित रखते थे। जहां वे ईश्वर को पाने और उसमें मिल जाने के लिये व्यग्र रहते थे, उसके लिए आँसू बहाते थे, वहाँ उसकी दुनियाँ के दुःखी लोगों की सेवा भी करते थे। महात्मा ईसा और महात्मा गाँधी यथार्थ रूप में भक्त और प्रेमी थे। मनुष्य को अपने आनन्द और आत्म-कल्याण के लिये आडम्बरपूर्ण प्रेम से बचना और सच्चे प्रेम को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।
प्रेम अमूल्य व निःस्वार्थ वस्तु है। प्रेम का काई मूल्य नहीं। प्रेम के सम्मुख संसार के सारे सुख, सारी सम्पदायें और सारी विभूतियां तुच्छ हैं। संसार के एक नहीं सैकड़ों ऐसे प्रेमी जन हुए हैं, जिन्होंने इस तत्व की रक्षा में धन-दौलत, कुटुम्ब-कबीला, जमीन-जायदाद यहाँ तक राज-सिंहासनों को तक तृण के समान त्याग दिया है। प्रेमियों ने प्रेम के स्थान पर उसके मूल्य में हँसते-हँसते अपने शीश दान कर दिये हैं। उन्होंने सब कुछ दे दिया, लेकिन प्रेम-त्याग की कल्पना तक नहीं की। प्रेम-धन के समक्ष संसार की सारी संपदायें तुच्छ तथा नगण्य हैं।
इतना अनमोल होने पर भी प्रेम निर्मूल्य ही है। न तो उसके लिये कोई मूल्य दिया जाता है और न लिया जाता है। यदि मनुष्य के पास बिना मूल्य बाँटने योग्य कोई वस्तु है तो वह प्रेम ही है। इस अमृत की कोई थाह नहीं। जन्म-जन्म तक झोली भर-भरकर बाँटते रहिये इसमें कमी नहीं होती। बल्कि ज्यों-ज्यों जितना अधिक प्रेम का प्रसाद बाँटा जाता है, उसका भण्डार उतना ही अधिक भरता जाता है। प्रेम का प्रसाद वितरण करने में न तो कोई पैसा लगता है और न कोई उपकरण। यही तो एक ऐसी संपत्ति इस भाग्यवान मनुष्य के पास है, जो अनमोल होने पर भी निर्मूल्य है। प्रेम का प्रसाद वाणी से, शरीर सेवा से, भावना से, विचार से, करुणा, दया, सहानुभूति, संवेदना आदि किसी भी रूप में संसार भर में वितरित किया जा सकता है। प्रेम के अमृत में न तो धन लगता है और न उसका दान करने में कुछ व्यय ही होता है। प्रेम का अमृत न केवल अमूल्य ही नहीं बल्कि निर्मूल्य भी है।
प्रेम रूपी संपत्ति को न तो कहीं से लाना होता है और न किसी से प्राप्त करना होता है मनुष्य की अन्तरात्मा में उसका सागर भरा हुआ है। ऐसा अथाह सागर कि जिसको हजारों जन्मों तथा संसार के प्राणियों को क्यों न बाँटा जाय, तब भी उसमें रंच-मात्र कमी नहीं आती। प्रेम का वह सागर ज्यों का त्यों लबालब भरा रहता है। प्रेम मनुष्य की आत्मा का स्वयं प्रकाश है। प्रकाश वितरण से उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं आती। कोई भी प्रकाश कितनी ही वस्तुओं को आलोकित क्यों न करले अपना आभास कितने ही विस्तार में क्यों न डाले, किन्तु उसकी मूल मात्रा में जरा भी अन्तर नहीं आता। वह यथावत् पूरे का पूरा बना रहता है। तथापि आत्मा में वर्तमान प्रेम प्रकाश उपलब्धियाँ ही अनायास नहीं हो जाती। उसके लिए उपाय तथा साधना करने की आवश्यकता होती है।
जब तक मनुष्य आत्मा को आवृत किये मल, विक्षेप स्वार्थ, संकीर्णता आदि आवरण को नहीं हटायेगा, तब तक आत्मा में वर्तमान प्रेम-प्रकाश का उद्घाटन नहीं हो सकता। इन भौतिक आवरणों को हटाने के उपाय स्वरूप मनुष्य को संसार के दीन-दुःखी मनुष्यों के प्रति दया, करुणा तथा सहानुभूति का व्यवहार करना होगा। उनके दुःखों को अपना दुःख और उनके आँसुओं को अपने आँसू समझना होगा। अपनी शक्ति भर लोगों की सेवा-सहायता करनी होगी। और इस सहायक सहानुभूति को जागृत तथा विकसित करने का उपाय यह है कि संसार के इस चरम सत्य को स्वीकार कर लिया जाय कि मेरे सहित इस निखिल ब्रह्मांड के सारे प्राणी एक उस परम पिता परमात्मा की ही सन्तानें हैं। स्थल, नभ ता जलचारी जितने भी मनुष्य, पशु-पक्षी अथवा कीट-पतंग दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब हमारे भाई ही हैं। मनुष्य का यह व्यापक भ्रातृ-भाव सहज ही सबके लिये हृदय में प्रेम का प्रवाह आन्दोलित कर देगा, जिससे आत्मा के उस पावन प्रकाश को आवृत रखने वाले सारे आवरण छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो जायेंगे आत्मा में वर्तमान प्रेम का अखण्ड प्रकाश निरावरण होकर फैलने लगेगा, जिसकी कृपा से तुच्छ मानव-जीवन एक अद्भुत उपलब्धि बन जायेगी। प्रेम आत्मा का सहज प्रकाश है, उसको किसी से पाने अथवा कहीं से लाने की आवश्यकता नहीं होती।
प्रेम मनुष्य की सर्वोपरि आवश्यकता है। मानव-आत्मा अथवा संसार से प्रेम रूपी अमृत का ज्यों-ज्यों ह्रास होता जाता है, मनुष्य दानव और संसार नरक बनता जाता है। इसका कारण प्रेम-तत्व की कमी ही तो है कि मनुष्य क्रूर, कपटी, स्वार्थी और शोषक बनकर अपने ही भाइयों को उत्पीड़ित करता है। उन्हें हानि पहुँचाता है और उसके फलस्वरूप अपनी आत्मा में ही नरक का निर्माण नहीं करता, बल्कि देहांतर के लोकों को भी अन्धकारपूर्ण बना लेता है। प्रेम के अभाव में ही धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा, परिवार, परिजन आदि सब कुछ होने पर भी मनुष्य सुख-शाँति की एक श्वास के लिये भी तरसता रहता है। प्रेम की कमी के कारण ही तो यह संसार, परमात्मा की यह सुन्दर रचना, जीव की यह कर्मभूमि जो उसके लिये स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति अथवा अमृतपद की साधिका है, उल्टे शोक-सन्ताप तथा मोह-बन्धनों और जन्म-मरण के दुःखदायी चक्र का करण बनती है। संसार में चारों ओर पनपने वाली त्राहि-त्राहि और शाँति की याचना के मूल में प्रेम की कमी ही तो काम कर रही है। प्रेम मानव-जीवन और संसार की सर्वोपरि आवश्यकता है। अस्तु कल्याणकारी मार्ग यही है कि आत्मा तथा संसार, अन्तर तथा बाह्य में स्नेह, सौजन्य तथा दया, करुणा व सहानुभूति की परिस्थितियाँ बढ़ाई तथा दृढ़ बनाई जाती रहें। मनुष्य अपने से, अपने परिवार से, पास-पड़ौस से, परिजन तथा संसार-जनों से यहाँ तक कि जीव-मात्र से सच्चा तथा नि-स्वार्थ प्रेम करे। प्रेम का विकास होते ही यह संसार जो आज अपनी परिस्थितियों से भयावह विदित होता है, शीघ्र ही स्वर्गीय सम्पदाओं से भर जायेगा, जिनके बीच मनुष्य न केवल इह लीला ही आनन्दपूर्वक चला सकेगा, बल्कि मुक्ति तथा मोक्ष का जीवन-लक्ष्य पाने में भी सुविधा का अनुभव करेगा।