अपनों से अपनी बात- - हमारा संतोषप्रद भूत और आशाजनक भविष्य

December 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अखण्ड-ज्योति का 29 वाँ वर्ष इस अंक के साथ समाप्त होकर अगला 30 वाँ वर्ष आरम्भ होगा। इस पिछले छोटे से जीवनकाल में उसने जो कुछ किया है, वह निस्सन्देह अनुपम और अद्भुत ही कहा जायेगा। एक लाख से अधिक प्रबुद्ध कार्यकर्त्ताओं की एक बड़ी सेना उसने संगठित करके नव-निर्माण के कार्य क्षेत्र में उतारी है। इतना बड़ा और इतना सफल प्रयास इन दिनों शायद ही कोई हुआ हो। स्वतंत्रता संघर्ष का दौर समाप्त हो जाने के बाद भावनात्मक नव-निर्माण की दिशा में रचनात्मक प्रयत्न आवश्यक थे, उनका शुभारम्भ किया जाना समय की सबसे बड़ी माँग थी, सो पूरी करने के लिये अखण्ड-ज्योति ने अपने स्वल्प साधनों की कठिनाइयाँ रहते हुये भी जो कार्य किया है, उसे भावी पीढ़ियां गर्व और गौरव के साथ स्मरण करती रहेंगी।

अनाचार और विसंगठन की दुष्प्रवृत्तियाँ इन दिनों इतनी तेजी पर हैं कि उनकी तुलना आँधी तूफान, बाढ़ और भूकम्प जैसी विभीषिकाओं से ही की जा सकती है। पापा और अज्ञान इन दिनों पूरे जोश, आवेश पर हैं। ध्वंसात्मक आसुरी प्रवृत्तियाँ मनुष्यता को निगल जाने के लिए सुरक्षा की तरह मुँह फाड़े खड़ी हैं। ऐसे समय में ‘अखण्ड-ज्योति’ के प्रयत्न ‘नक्कार खाने में तूती’ की तरह स्वल्प प्रतीत हो सकते हैं और उनका कोई प्रत्यक्ष परिणाम दृष्टिगोचर नहीं भी हो सकता है। पर यह भी जान ही लेना चाहिये कि अनाचार की बाढ़ की एक बड़ी सीमा तक रोका गया है और मस्तिष्कों में वह प्रकाश पैदा किया गय है जिनके आधार पर अवाँछनीय से लड़ने के लिए जन-मानस में आवश्यक उत्साह एवं साहस उत्पन्न हो सके। यह प्रयत्न कम मूल्यवान् नहीं। कुछ ही दिनों में यह देखा जा सकेगा कि अखण्ड-ज्योति ने जो बीच बोये थे, वे उगे ही नहीं- फले-फूले ही नहीं वरन् उनके आश्रय में नये युग की नई सम्भावनायें विनिर्मित हुईं।

अखबार अनेक निकलते हैं और अनेक रुचियों के पाठक उनमें से अपने अनुकूल साहित्य खरीदते, पढ़ते रहते हैं। धार्मिक, अध्यात्मिक पत्र भी अनेक निकलते हैं और उन्हें उस प्रवृत्ति के लोग मँगाते, अपनाते हैं। उस प्रक्रिया की तुलना अखण्ड-ज्योति से नहीं की जा सकती। वह जानकारी मात्र देने का- पिसे को पीसने का- जो कहा जाता रहा है, उसे दुहराने का ढर्रा अपनाकर किसी तरह विज्ञापन या दान के सहारे अपना जीवन-क्रम चलाती रहने वाली पत्रिका नहीं है। उसका अपना ढंग, उद्देश्य, क्रिया-कलाप सबसे अनोखा और सबसे भिन्न है। नये युग की सन्देश-वाहिका के रूप में वह अवतीर्ण हुई है और नये व्यक्तित्व, नया समाज, नया विश्व बनाने के लिये अनवरत भागीरथ प्रयत्न कर रही है। जिनमें इस प्रयोजन के उपयुक्त क्षमता देखी गई है। उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर एक सूत्र में पिरोया है, उन्हें सोते से जगाया है, दिशा बताई है और लक्ष्य की और दृढ़ता के साथ चल पड़ने के लिये आवश्यक उत्साह एवं साहस प्रदान किया है।

अखण्ड-ज्योति के लेख कागज पर काले अक्षर छाप देने मात्र की प्रक्रिया नहीं है वरन् उनकी एक-एक पंक्ति में एक दर्द, एक आग और एक प्रकाश भरा रहता है। आत्मिक अनुभूतियों के आधार पर उन्हें लिखा जाता है, यही कारण है कि उन प्रेरणाओं को पाठक अनसुनी न कर सके और नव-निर्माण के महान् अभियान में लाखों व्यक्ति जुट गये। उनके द्वारा जो किया जा रहा है और जो सोचा जा रहा है, उसे देखते हुए यह आशा एक सुनिश्चित सम्भावना बनती जा रही है कि कल इस पृथ्वी पर देवत्व उतरेगा और यहाँ स्वर्गीय परिस्थितियों का निर्माण होगा।

आज की सर्वग्राही असुर विभीषिकायें कम प्रबल नहीं हैं। यों इतिहास में रावण, कंस, जरासन्ध, हिरण्यकश्यप आदि के द्वारा विनिर्मित असुर वातावरण की चर्चा मिलती है और पता चलता है कि इस दुष्ट वातावरण से अगणित लोग प्रभावित होकर असुर कर्म करने लगे थे। फिर भी उसकी एक सीमा रही। सीमित भू-भाग में ही उसका प्रभाव रहा। आत्मा, परमात्मा, कर्म, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक की मान्यताओं में उनकी आस्था पूर्णतया नष्ट नहीं हुई थी। इसलिये दुष्कर्म करते हुये भी अन्तः करण से काँपते रहते थे और कोई सुधारने वाला मिल जाय तो आसानी से सुधर भी जाते थे। पर आज की परिस्थिति तब की अपेक्षा बहुत अधिक विषम है। अब कोई व्यक्ति राक्षसराज बनकर नहीं प्रगटा है, जिसे धनुष-बाण से मारा जा सके। इस शताब्दी में भौतिकवादी प्रतिपादन- असुरता के अति व्यापक और अति प्रभावशाली रूप में सामने आये हैं। वे लोभ या भय से लोगों को अपना अनुचर बनने के लिये विवश नहीं करते वरन् भोले-भोले लोगों के मस्तिष्कों पर इस तरह कब्जा कर लेते हैं, मानों वे वस्तुतः तर्क, प्रमाण, उदाहरण एवं प्रत्यक्ष परख के आधार पर सौ फीसदी सही हों। लोग उन्हें सही मानते और अपनाते हैं, फलतः उनकी विचारणा और क्रिया-पद्धति एक सभ्य कलेवर ओढ़कर-सिद्धान्तवाद का जामा पहनकर- असुरता से ओत-प्रोत हो जाती है। वर्तमान पीढ़ी की यही स्थिति है। शिक्षित समाज उसी रंग में रंगता चला जा रहा है।

आज के लंगड़े-लूले, काने-कुबड़े विज्ञान प्रतिपादनों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि- ‘ईश्वर कोई नहीं, आत्मा का अस्तित्व कहीं नहीं, मनुष्य की चेतना एक जड़ प्रकरण की हलचल मात्र है। जिसका प्रजनन के साथ आरम्भ होता है और मरण के साथ अन्त हो जाता है। परलोक कहीं नहीं, यदि राजदण्ड से बचा जा सके तो दुष्कर्मों के दण्ड को फिर कोई सम्भावना नहीं। आक्रमण और शोषण हर बलवान का जन्मसिद्ध अधिकार है। वासनाओं की मनमानी पूर्ति से ही व्यक्तित्व सबल होता है, संयम की बात सोचना हानिकारक है आदि, आदि। इन प्रतिपादनों को जब साइन्स, तर्क, मनोविज्ञान, दर्शन आदि का कलेवर पहना कर प्रमाणित किया जा रहा हो, तब जन-साधारण के मन में आदर्शवादिता, उत्कृष्टता, संयम, सदाचार, पुण्य, परमार्थ के लिये कोई स्थान कैसे रहेगा, फिर लोग अनाचार के आकर्षण को क्यों त्यागना चाहेंगे? फिर स्वेच्छाचार पर कोई नियन्त्रण रह कहाँ जायेगा? आज की स्थिति यही है। तथाकथित शिक्षा जैसे-जैसे बढ़ रही है, उसी क्रम में अनास्थायें भी बढ़ रही हैं। बेचारा अशिक्षित पाप-पुण्य की- स्वर्ग-नरक की बात सोच सकता है, पर तथाकथित सुशिक्षितों के लिये यह सब दकियानूसी मान्यतायें। प्रगतिशीलता की परिभाषा अब अनास्था बढ़ाती चली जा रही है।

फलस्वरूप दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का उफान भी दिन-प्रति-दिन प्रबल होता चला जा रहा है। चारों ओर स्वार्थ, संघर्ष प्रबल होते चले जा रहे हैं। अपराधों की बाढ़ अपनी सभी मर्यादायें तोड़ देना चाहती हैं। फलतः रोग-शोक, दुःख-दारिद्रय, क्लेश-कलह, उद्वेग-संशय से मनुष्य समाज बुरी तरह आक्रांत होता चला जा रहा है।

इस स्थिति को यथावत बनी रहने दिया जाय और जिस क्रम में उफान आ रहा है और वैसे ही उबलने दिया जाय तो सभ्यता, संस्कृति, धर्म, ईमान, शान्ति, सदाचरण के लिये ही नहीं समस्त मानवता के विनाश का संकट पैदा हो जायेगा। गृह-कलह और परस्पर संघर्ष में यादव कुल की तरह लड़-झगड़कर सभी वर्ग और सभी देश नष्ट हो जायेंगे। एक सामूहिक आत्म-हत्या की स्थिति कुछ ही दिनों में सामने आ उपस्थित होगी। असुरता का यह कलेवर अति भयंकर है। उसका सामना करना पिछले सभी देवासुर संग्रामों की अपेक्षा अति कठिन है। पिछले जमाने में असुरों को कोई बलशाली देवात्मा तीन-तलवारों की लड़ाई से परास्त कर देता था। अब जब कि वे असुर जन-मानस में अनास्था एवं स्वेच्छाचार की एक उपयोगिता एवं वास्तविकता, जैसा दर्शाते जब अपना अड्डा जमा बैठे हैं, तब उन्हें किन तीर-तलवारों से किस मैदान में लड़ाई छेड़कर मारा जाय? यदि मारा जा सके तो इन प्रतिपादनों से प्रभावित जनता नारकीय दुष्परिणामों में तिल-तिल जलकर अपना अन्त करेगी। इस स्थिति को भी अन्य मनस्क होकर उपेक्षापूर्वक यथावत् चलते और बढ़ते नहीं देखा जा सकता।

इस विषम धर्म-संकट की घड़ियों में अखण्ड-ज्योति की तलवार की धार पर चलने जैसा कठिन कर्त्तव्य पालन करना पड़ रहा है। उसे उसी मोर्चे पर अड़ाया गया है। भौतिकवादी मान्यताओं का प्रभाव चला तो शिक्षित वर्ग से है, पर वह घने जंगलों में रहने वाले अशिक्षितों तक जा पहुँचा है। था तो वह पहले भी पर उस जमाने में लोग उसे पाप मानते थे और भीतर ही भीतर डरते तथा धिक्कारते रहते थे और उस अनीति से निकल सकने पर अपना सौभाग्य मानते थे। अब निर्भय और निःशंक होकर एक उपयोगी सिद्धान्त के रूप में असुरता में सराहा और अपनाया जा रहा है। ऐसी दशा में तीन अरब जनसंख्या वाले इस संसार में फैली हुई इस दुर्बुद्धि से लोहा लेना, उसे असत्य, अवाँछनीय, अहितकर और त्याज्य सिद्ध करना निस्सन्देह कठिन कार्य है। वह भी तब, जबकि अखण्ड-ज्योति एकाकी इस महान् अभियान में जुटी हुई है और उसके साधन अति स्वल्प हैं।

जो हो, जो काम सौंपा गया है, उसे अखण्ड-ज्योति ने अपनी शक्ति और सामर्थ्य को एक-एक कर निचोड़ कर, पूरा करने का प्रयत्न किया है। जितने साधन थे उसकी तुलना में हजारों गुनी अधिक सफलता मिली है। पर इतने मात्र से संतोष थोड़े ही किया जा सकता है, जो काम करने को पड़ा है, वह अति विस्तृत है, अभी मंजिल बहुत लम्बी है और इस पर देर तक-कठिन व्यवधानों से टकराते हुए आगे बढ़ना है। ध्यान इस अगली मंजिल का ही रखना है। रुकने का कोई प्रश्न नहीं। असुरता के विरुद्ध जो संघर्ष छेड़ा गया है, उसमें विराम नहीं किया जा सकता है।

देवत्व परास्त हो जाय, धर्म हार जाय, विवेक कराहता रहे, चिर-संचित मानव-सभ्यता को निर्बल कर दिया जाय, यह नहीं होने दिया जायेगा। लड़ाई जारी रखी जायेगी, दुनिया के योद्धा, नेता, धनी, बुद्धिमान्, विद्वान साथ न दें तो निराश न बैठा जायेगा। रीछ-वानरों को-अपने नगण्य स्तर के परिजनों को लेकर अखण्ड-ज्योति आगे आयेगी, और सोने की लंका में साधन सम्पन्न-कुम्भकरणों, मेघनाथों, रावणों को ललकारेगी। विजय दूर हो तो हर्ज नहीं। आगे बढ़ना और लड़ना अपना काम है, सो उसे बिना राई-रत्ती हिचकिचाहट लाये, दिन-दूने-रात चौगुने उत्साह के साथ जारी रखा जायेगा।

अभिलाषा इतनी भर है कि अपने परिवार से जो आशायें रखी गई हैं, उन्हें कल्पना मात्र सिद्ध न होना पड़े। अखण्ड-ज्योति परिजन अपना उत्साह खो न बैठें और जब त्याग, बलिदान की घड़ी आवे, तब अपने को खोटा सिक्का सिद्ध न करने लगें। मनुष्य की महानता उसकी उन सत्प्रवृत्तियों की चरितार्थ करने में है, जिनसे दूसरों को प्रकाश मिले। जिसमें ऐसा कुछ नहीं- जो उदरपूर्ण और प्रजनन प्रक्रियाओं तक सीमाबद्ध है, उसे नर-पशु ही कहा जा सकता है। हम नहीं चाहते कि हमारे बड़ी आशाओं के साथ संजोये हुए सपनों की प्रतिमूर्ति- परिजन उसी स्तर के चित्र हों, जिसका कि घर-घर में कूड़ा-कटकर भरा पड़ा है।

इस महत्वपूर्ण वेला में जो अपने कर्त्तव्यों का स्मरण रख सकें और जो उसके लिये वासना और तृष्णा को एक सीमा में नियन्त्रित रखकर कुछ अवसर अवकाश युग की पुकार- ईश्वरीय पुकार को सुनने, समझने और तद्नुसार आचरण करने में लग सकें, वे ही हमारी आशाओं के केन्द्र हो सकते हैं। उन साथी, सहचरों, में हम आगे बढ़ते और निर्धारित मोर्चों पर लड़ते हुए आगे बढ़ेंगे।

गत अंक में एक प्रथम कर्त्तव्याचरण परिजनों के सम्मुख रखा था कि अपने परिवार को जागृत, सुगठित और विस्तृत बनाया जाय, ताकि निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए अधिक व्यापकता और अधिक सफलता के साथ आगे बढ़ा जा सके। उम्मीदें, अन्यमनस्क, विसंगठित, थोड़े से लोग उस समस्त विश्व को अपना कार्यक्षेत्र बनाकर उसका तेजी से भावनात्मक नव-निर्माण करने का काम ठीक तरह न कर सकेंगे। इसलिये उत्कृष्टता भी चाहिये और विशालता भी। हमारे परिजनों का मनोबल, साहस, त्याग और पुरुषार्थ बढ़ा-चढ़ा होना चाहिए, साथ ही उनकी संख्या भी बढ़नी चाहिये। इस आवश्यकता की पूर्ति हम सब मिल-जुलकर बड़ी आसानी से कर सकते हैं।

परस्पर मिल-जुलकर हमें एक टीम की तरह गठित होना चाहिये। जहाँ जितने परिजन हैं, उन्हें समय-समय पर मिलन-गोष्ठी के रूप में इकट्ठे होते रहना चाहिये। जन्म-दिनों के मनाने के माध्यम से यह प्रक्रिया बड़ी सरलता और बड़ी सफलतापूर्वक चलती रह सकती है। अखण्ड-ज्योति परिवार के सभी सदस्यों के जन्म-दिन मनाये जाया करें, और उनमें वे सदस्य उत्साहपूर्वक भाग लेते रहा करें तो थोड़े ही दिनों में सबमें परस्पर प्रेम-भाव बढ़ता चला जायेगा। परिचय की घनिष्ठता और बार-बार मिलते रहने की क्रम-श्रृंखला हमें निश्चित रूप से संगठित करेगी और यह संगठन एक समर्थ शक्ति के रूप में परिणत होगा, जन्म-दिन मनाने के कार्यक्रम जहाँ भी चल पड़े, वहाँ बहुत ही आशाजनक परिणाम उत्पन्न हुये हैं। वहाँ की शाखा अति संतोषजनक ढंग से प्रगति कर रही है।

हम चाहते हैं कि हर जगह यह प्रक्रिया चल पड़े। जहाँ भी अखण्ड-ज्योति पहुँचती है, वहाँ के एक-दो व्यक्ति आगे बढ़ें, उत्साह से काम लें। स्थानीय अन्य सदस्यों से संपर्क बनायें, उन्हें इकट्ठा करें या उनके घरों पर जाकर संगठन का महत्व समझायें और उसके लिये उत्साह पैदा करें। एक बार में नहीं- दो चार बार के मिलन में सफलता अवश्य मिल जायगी और अपने विचारशील सदस्य संगठित होने में में उदासीनता दिखाने की अपेक्षा उत्साह प्रदर्शित करने लगेंगे। एक का उत्साह दस में उत्साह भर सकता है। एक सक्रिय दस में सक्रियता उत्पन्न कर सकता है। इस तथ्य में संदेह की गुंजाइश नहीं। जहाँ कहीं संगठित कार्य बड़े आशाजनक ढंग में चल रहे हैं, वहाँ मूलतः एक-दो व्यक्ति की लगनशील हैं- उन्हीं की तत्परता ने एक संगठन खड़ा किया है और उसे सुसंचालित बना रखा है।

जहाँ कहीं भी एक-दो व्यक्ति खड़े हो जायेंगे, वहीं अपना प्रथम चरण आगे बढ़ जायेगा। परिवार संगठित हो जायगा और जन्म-दिन मनाने की प्रक्रिया बड़ी आसानी से चलने लगेगी। अब यह चल ही पड़नी चाहिए, हम चाहते हैं कि हम अपना जीवन-क्रम समाप्त करने से पूर्व यह देखकर जायें कि हमारे परिजन हर जगह संगठित हो गये और निष्क्रियता छोड़कर सक्रियता के क्षेत्र में प्रवेश कर गये। हमारे लिये यह एक बहुत बड़े संतोष की बात होगी। जहाँ इतना होने लगेगा, वहीं से हमें भविष्य में भी कुछ होने की आशा रहेगी, जो इतना भी न कर सकें उनमें और कुछ बड़ी आशा किस आधार पर रखी जाय।

युग-निर्माण का दूसरा चरण है- झोला पुस्तकालय। अपने सभी कर्मठ सदस्यों को झोला पुस्तकालय चलाना चाहिये। छोटे ट्रैक्ट गजब की प्रेरणा और रोशनी से भरे पड़े हैं। उन्हें हमने हृदय की कलम और भावनाओं की स्याही से लिखा है। उन्हें जो पढ़ेगा, अवश्य बदलेगा- जैसा था वैसा बना नहीं रह सकता। भले ही वह परिवर्तन प्रत्यक्ष दिखाई न पड़े पर अन्तरंग में हलचल निश्चित रूप से उठेगी और उसे ऊँचा उठने एवं आगे बढ़ने के लिये विवश करेगी। युग-परिवर्तन का आधार विचार परिवर्तन है। विचार परिवर्तन की प्रक्रिया प्रेरक तथ्यपूर्ण और बुद्धि-संगत विचार ही प्रस्तुत करती है। छोटे ट्रैक्टों में यह सब कुछ है। जब तक लगभग 200-250 पुस्तिकायें छप चुकीं, यह सब मिलाकर लगभग 75) रु. का है। उनमें से अधिकांश तो परिजनों ने मंगा भी लिया है, जो न मंगा पाये हों अब मंगा लेना चाहिये और इस वर्ष का प्रकाशन जो अब पूरा हो चुका, लेकर अपना पुस्तकालय पूरा कर लेना चाहिये।

यह आशा नहीं रखनी चाहिये कि कोई हमारे घर पर आकर यह साहित्य माँगेगा या पढ़ेगा। यह तो हमीं को करना है कि अपने दफ्तर में, दुकान पर, कार्यक्षेत्र में जिनसे भी संपर्क बने, उनसे अन्य बातों से मिलाकर अपनी बात छेड़ी जाय, प्रस्तुत पुस्तिकाओं की प्रशंसा करके उन्हें पढ़ने की रुचि पैदा की जाय और यदि थोड़ा भी उत्साह दिखाई दे तो उस पुस्तिका को सर्वप्रथम देना चाहिये, जो उनकी किसी समस्या से अथवा वर्तमान रुचि से संबंधित हो। इस तरह इन पुस्तिकाओं का देना और वापिस लेने का क्रम अपने अन्य कामों के साथ-साथ चलाया जा सकता है और थोड़ी-सी दिलचस्पी लेने लगने मात्र से अपने संपर्क क्षेत्र में पत्र पत्रिकाओं को नये प्रकाश का लाभ दिया जा सकता है। अध्यापक और अध्यापिकायें अपने छात्रों में बड़ी आसानी से यह प्रवृत्ति चला सकते हैं और भावी पीढ़ी के भावनात्मक नव-निर्माण में भारी योगदान दे सकते हैं।

झोला पुस्तकालयों की हलचलें हमारी आशा का केन्द्र है। जहाँ यह हलचलें गतिशील होंगी, केवल उन्हीं स्थानों या व्यक्तियों के बारे में यह माना जा सकेगा कि वहाँ हमें तथा हमारे मिशन को समझा गया है और हमारे साथ चलने के लिये कदम बढ़ाया और हमारा भार हल्का करने के लिये कंधा लगाया गया है। अपनी विचार-धारा को व्यापक बनाने में सबसे सरल और सबसे महत्वपूर्ण कार्य झोला पुस्तकालय ही है। जो उस छोटी प्रक्रिया को संचालित कर सकता है, वह अपने महान् मिशन की- हमारा व्यक्तिगत संतुष्टि की एक अत्युत्तम साधना कर रहा है, यही कहा, माना और समझा जायेगा।

तीसरा चरण अति साधारण और बिलकुल सामयिक है, उसे इसी महीने, इन्हीं दिनों- आज ही उठाया जाना चाहिये। अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकाओं ने अपना कलेवर और स्तर यकायक बहुत ऊँचा उठा दिया है, क्योंकि उन्हें जो कार्य जितनी शीघ्र और जितनी व्यापकता से करना है, उसे देखते हुये यह वृद्धि नितान्त आवश्यक एवं अनिवार्य थी, साथ ही मूल्य भी बढ़ा है। कलेवर पृष्ठ स्तर बढ़ने की बात से तो कौन प्रसन्न न होगा, पर मूल्य बढ़ने वाली बात अखर सकती है और कुछ कमजोर तबियत के वे लोग जो नये-नये ही किसी के ड़ड़ड़ड़, सुनने या दबाव से सदस्य बने थे, कच्चे पड़ जाते हैं और सदस्यता छोड़ सकते हैं। इस संबंध में सतर्कता बरती जाय। सदस्य घटने नहीं देने हैं वरन् बढ़ाने हैं। इसके बिना अपना कार्यक्षेत्र संकुचित होता ड़ड़ड़ड़ जायगा और मिशन की व्यापकता में भारी बाधा उत्पन्न होगी। इस वर्ष तो नये सदस्य बढ़ाने का लक्ष डडडड जाना चाहिये और उसे पूरे उत्साह के साथ पूरा किया जाना चाहिए। यह सामयिक कार्य है, इसी महीने आरम्भ और इसी महीने समाप्त होने वाला है, पर है अति महत्वपूर्ण और अति आवश्यक।

इस महीने हमें एकाकी या कई परिजनों की सम्मिलित टोली के रूप में सक्रिय होना चाहिए। वर्तमान सदस्यों से आग्रहपूर्वक चन्दा जमा करना चाहिये और नये विचारशील लोगों को ढूंढ़-ढूंढ़कर उन्हें अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर के तीनों अंक नमूने के रूप में दिखाते हुये नये सदस्य बनाना चाहिये। पत्रिकाओं के स्तर एवं कलेवर को देखते हुये 6) रु. किसी भी प्रकार अधिक नहीं। जो पत्र-दान या विज्ञापन पर नहीं चलते उनकी पंक्ति में अपनी पत्रिकायें सबसे सस्ती और सबसे अच्छी है। इन्हें मंगाने के लिये किसी भी विवेकशील को तैयार किया जा सकता है। प्रभावशाली परिजनों की टोली एक सप्ताह के लिये भी अपने नगर में निकल पड़े, तो अब की अपेक्षा दूने-चौगुने सदस्य सहज ही बन सकते हैं और युग-निर्माण आन्दोलन का क्षेत्र उसी अनुपात से बढ़कर मिशन की सफलता में चार चाँद लगा सकता है।

इस अंक के साथ एक रसीद बही जैसा पृष्ठ लगा है। जिनसे चन्दा वसूल किया जाय, उन्हें यह रसीद काटकर दी जा सकती है और उनका पैसा इकट्ठा ही चैक ड्राफ्ट या बीमे से भेजा जा सकता है। मनीआर्डरों में उन दिनों बहुत देर हो जाती है और अंक पहुंचने में अनावश्यक विलम्ब होता है, इसलिए पैसा भेजने के उपरोक्त तरीके अधिक सुविधाजनक एवं कम खर्चीले हैं।

अखण्ड-ज्योति के हर सदस्य को इस महीने यह सामयिक कर्तव्य पालन करना चाहिये कि वह कम से कम तीन नये सदस्य और बढ़ायेगा। सच्चे मन से निश्चय करने भर की बात है, संकल्प किसी का भी अधूरा नहीं रहेगा।

अखण्ड-ज्योति ने, उसके परिवार ने- अब तक जो किया है, वह आशाजनक और उत्साह-वर्धक है। आगे उसे ऐसा करना है-उतना करना है- जो मानव-जाति के भाग्य भविष्य का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करे। उसके लिये इस वर्ष के इस अन्तिम महीने में उपरोक्त तीन कार्य पूरे कर लेने चाहिये ताकि अगले वर्ष के लिये अधिक प्रभावशाली और अधिक व्यापक योजनायें बना सकना सम्भव हो सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118