जो निरहंकार है, वही बुद्धिमान है

December 1968

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सारे प्राणियों को आत्मवत् मानने वाले को पण्डित कहा गया है। इसी प्रकार अन्य प्राणियों को अपने से भिन्न मानने वाले को अज्ञानी मानना होगा। पण्डित, विद्वान अथवा बुद्धिमान् अपनी आत्मा का विस्तार करने वाला होता है। अज्ञानी अपनी आत्मा को केवल अपने शरीर तक ही सीमित रखता है। पण्डित का लक्षण है, आत्म-विस्तार और अज्ञानी का संकीर्णता।

संसार में कदाचित् ही कोई ऐसा मनुष्य हो, जो पंडित न बनकर अज्ञानी बनना चाहेगा। तथापि अपनी इस कामना में कोई-कोई ही सफल हो पाते हैं, नहीं तो बहुतायत ऐसे लोगों की है, जो इच्छा तो पण्डित बनने की रखते हैं, लेकिन बनते जाते हैं अज्ञानी। इसका कारण यह है कि वे आत्म-विस्तार नहीं कर पाते। आत्म-विस्तार में कौन तत्व बाधक होता है, इस बात को न जानने के कारण ही उनका आत्म-विस्तार स्थगित रहता है और वे पण्डित बनने के स्थान पर अज्ञानी बनते जाते हैं।

आत्म-विस्तार में बाधक तत्व मुख्यतः अहंकार ही है। अहंभाव मनुष्य को पराकाष्ठा का संकीर्ण एवं स्वार्थी बना देता है। संसार का सबसे व्यापक तत्व परमात्मा ही है। इसीलिये वह सबसे महान और सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। यदि परमात्मा भी सर्वव्यापक न होकर एक देशीय होता, तो उकसा उतना मान-सम्मान न होता, जो अब हो रहा है। परमात्मा किसी को अपने से भिन्न मानने की संकीर्णता कभी नहीं करता। वह न केवल सबको अपनी प्रिय सन्तान की तरह पालता ही है, बल्कि सबको अपनी चेतना से ओत-प्रोत बना देता है। हम मनुष्यों पर तो उसकी विशेष कृपा है। उसने वे सारे तत्व और सारी शक्तियाँ मनुष्य में बीज रूप से भर दी हैं, जो उसमें स्वयं विद्यमान है।

अपनी उन शक्तियों का विकास एवं विस्तार करके मनुष्य स्वयं भी उस सर्वशक्तिमान के समान ही बन सकता है और जिन बुद्धिमान मनीषियों ने ऐसा किया है, वे ऋषि मुनियों की स्थिति में पहुँच कर उसके समकक्ष बने हैं। जिस प्रकार परमात्मा अपनी सारी शक्ति, सारी ड़ड़ड़ड़ लोक-कल्याण और जनहित के लिये वितरित करता रहता है, उसी प्रकार उक्त मनीषियों एवं महात्माओं ने भी अपने गुण, अपनी विद्या, अपनी विभूतियाँ, अपनी कृपा, करुणा और सद्भावनायें संसार के हित में वितरित कर अलौकिक मान एवं आदर प्राप्त किया है। उन्होंने अपनी इस उदारता के बल पर ही ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भावना का ड़ड़ड़ड़ और पण्डित बने।

यदि उस सर्व-शक्तिमान परमात्मा में ‘अहंकार’ दोष होता, तो निश्चय ही वह भी संकीर्णता के दोष से दूषित होकर अपनी सर्वशक्तिमत्ता, सर्वव्यापकता को सर्वस्वामित्व की विशेषता खो देता। तब उसकी तो पूजा और प्रतिष्ठा नहीं ही होती, साथ ही संसार की रचना नष्ट हो जाती। संसार की स्थिति परमात्मा की उस निरहंकार भावना पर ही निर्भर है, जो उदारता के रूप उसकी दान-वृत्ति में प्रकट होती है।

अहंकार मनुष्य को इतना स्वार्थी बना देता है कि वह न केवल अपने गुण और अपनी विभूतियाँ अपने तक ही सीमित रखता, उनका लाभ किसी दूसरे को नहीं देता डडडड बल्कि अपने अहंकार की तुष्टि के लिये दूसरों की विशेषताओं तथा विभूतियों का भी शोषण करने का प्रयत्न करता है। यह स्वार्थपूर्ण निकृष्ट प्रयत्न समाज एवं ड़ड़ड़ड़ के विकास में बहुत घातक सिद्ध होता है। यदि ऋषि-मुनियों और मनीषियों में अहंकार अर्थात् केवल अपने तक सीमित रहने की संकीर्णता होती और वे अपनी ड़ड़ड़ड़ ज्ञान-विभूति को लोक-कल्याण के लिये वितरित न डडडड केवल निज के स्वार्थ के लिये अपने पास ही संग्रह डडडड रहते, तो मानव-जाति का जो विकास आज दृष्टिगोचर होता है, वह किस प्रकार सम्भव होता। अथवा ड़ड़ड़ड़ ही ज्ञानी, विज्ञानी, विद्वान् तथा वैज्ञानिक जन अपने को अहंकार-वश अपने तक ही सीमित रख लें और लोक-कल्याण के लिये उसका वितरण न करें, तो क्या मानव-जाति की प्रगति यहीं पर ही रुककर न रह जाये। तब प्रगति का स्थगन पतन के सिवाय और क्या हो सकता है।

जगत्-पिता परमात्मा जिस प्रकार स्वयं निरहंकार और उदार है, निश्चय ही वह चाहता है कि उसकी संतानें भी उसी की तरह निरहंकार और उदार बने। ऐसा पिता कौन होगा, जो यह न चाहें कि उसकी सन्तान भी उसी की तरह गुणवान, कीर्तिवान व श्रेयवान न बने। जीव को अपनी चेतना और शक्तियाँ देने में उसका उद्देश्य यही है कि वह भी उसी की तरह लोक-कल्याण में उनका यापन करे। किन्तु खेद है कि मनुष्य अहंकारवश उसके उस उद्देश्य के विपरीत काम करता दिखलाई देता है। निश्चय ही जो परमात्मा के उद्देश्य के विरुद्ध चलता है, उसकी इच्छा के विपरीत आचरण करता है, वह उस परम प्रभु का द्वेषी है। इसी प्रकार अहंकारी व्यक्ति को नास्तिकता का लाँछन भी लगाया जा सकता है। नास्तिक वह नहीं, जो परमात्मा पर विश्वास नहीं करता अथवा जो उस पर निर्भर नहीं रहता। बल्कि वास्तविक नास्तिक वह है, जो परमात्मा में आस्था प्रकट करता हुआ भी उसके विरुद्ध आचरण करता है।

अहंकारी न केवल प्रभु विरोधी ही होता है, वह समाज विरोधी भी होता है। अहंकारी का असहयोगी होना स्वाभाविक है जो सब कुछ अपने लिये ही करना चाहेगा, सब कुछ अपने लिये ही संग्रह करेगा, केवल अपनी ही सुख-सुविधा पर दृष्टि रखेगा, वह दूसरे के जीवन-यापन, उसकी उन्नति और प्रगति में किस प्रकार सहायक तथा सहयोगी हो सकता है? समाज का अस्तित्व ही पारस्परिक सहयोग, प्रेम और मैत्री-भावना पर टिका हुआ है। यदि इस भावना का सर्वथा अभाव हो जाये, तो हर मनुष्य अकेला रह जाय। ऐसी दशा में उसके दुःखों का पारावार ही न रह जाये। आज भी संसार में जितने दुःख, क्लेश और संघर्ष दिखाई देते हैं, उनका कारण मनुष्य की अहंमन्यता ही है। यदि इस दोष का परिमार्जन कर दिया जाय, तो संसार के बहुत से दुःख और क्लेश आपसे-आप शमन हो जायें।

मनुष्य के यह सोचने का हेतु अहंकार ही है कि मैंने अपना विकास आप ही किया है, उसने समाज से कोई सहयोग नहीं लिया। यदि मनुष्यों में सहयोग की सामाजिक भावना न रही होती, तो कोई भी मनुष्य उन्नति न कर पाता। यह मानव-समाज भी पशुओं के समूह के समान ही अविकसित पड़ा रहता। उदाहरण के लिये रामू नाम के उस लड़के को लिया जा सकता है, जो दैवयोग से भेड़ियों के बीच पला था और बाद में किन्हीं शिकारियों के हाथ लग गया था। वह लखनऊ के एक अस्पताल में लाया गया। यद्यपि रामू की आयु लगभग आठ दस वर्ष की हो चुकी थी लेकिन उसमें मनुष्यों के कोई लक्षण विकसित न हुए थे। उसके सारे लक्षण भेड़ियों जैसे थे। वह उन्हीं की तरह चारों हाथ-पैरों पर चलता था। उन्हीं की तरह गुर्राता और आवाज करता था। उन्हीं की तरह कच्चा माँस खाना पसन्द करता था।

रामू के यह लक्षण इस बात का प्रमाण हैं कि मनुष्य का विकास स्वयं नहीं होता। समाज की सहायता और सहयोग से ही वह मनुष्य बन पाता है। ऐसी दशा में यह अहंकार करना कि किसी ने अपना विकास स्वयं किया है। वह बिना किसी की सहायता के अपने पैरों आप खड़ा हुआ, अज्ञान के सिवाय और क्या है। पशुओं के बच्चे तो पैदा होने के कुछ समय बाद ही आत्म-निर्भर होने लगते हैं, किन्तु मनुष्य के बच्चे को आठ-दस वर्ष की अवधि तक सर्वथा दूसरों के सहयोग पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि उसे प्रारम्भ में सहयोग से वंचित कर दिया जाय, तो वह जीवित तक नहीं रह सकता, फिर स्वयं सारा विकास कर लेना बहुत दूर की बात है। किन्तु अहंकारी व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं होता। यह समाज के प्रति उसकी कृतघ्नता के सिवाय और क्या कहा जा सकता है?

अहंकार का दोष मनुष्य को साधारण मनुष्यता तक से गिरा देता है। इसकी वृद्धि मनुष्यों को पिशाच बना देती है। अहंकार असुरता का प्रधान लक्षण है। मनुष्य में जितना अधिक अहंकार होता है, उसमें उतनी ही गहरी आसुरी वृत्ति होती है। दृष्टता का जन्मदाता अहंकार को ही माना गया है। अपराधियों को दुष्कर्म की प्रेरणा देने वाले तत्वों में अहंकार का स्थान प्रमुख है। चोर, डाकू जो दूसरों को लूटते और हानि पहुँचाते हैं, उसकी प्रेरणा में धन का लोभ कम होता है, अहंकार का ही हाथ अधिक होता है। यदि किसी उपाय से अपराधियों के मस्तिष्क से अहंकार का तत्व निकाला जा सके, तो इसमें सन्देह नहीं कि वे शीघ्र अच्छे और भले आदमी बन जायें।

अहंकार की वृत्ति मनुष्य को आततायी बना देती है। सिकन्दर, तैमूर, नादिरशाह आदि जो भी महत्वाकाँक्षी आक्रमक हुए हैं और जिन्होंने अकारण ही मानव-जाति का संहार किया है, वे अहंभाव से ही पीड़ित रहे हैं। यदि उनमें अहंभाव की प्रधानता न रही होती, तो वे अपनी शक्तियों को किन्हीं ऐसे कामों में लगाते, जिनसे मनुष्य-जाति का हित साधन होता। उनके अहंकार ने उन्हें उन कर्मों की प्रेरणा दी, जिनके कारण वे इतिहास के काले पृष्ठों पर अंकित किये गये। कितना अच्छा होता कि वे संसार विजय करने का विचार करने से पूर्व अपने अहंभाव को विजय करते- ऐसा करने पर उन्हें जिन कर्मों की प्रेरणा मिलती, उन्हें देव कोटि के मनुष्यों में पहुँचा देते।

मनुष्य में कितने ही महान और कितनी ही संख्या में गुण क्यों न भरे हों, यदि उसमें एक अहंकार का दोष मौजूद है, तो वह उसके सारे गुणों को झूठा बना देगा। उनका विकास रुक जायेगा और उसके गुणों से संसार को तो कोई लाभ नहीं होगा, साथ ही वह स्वयं भी उनका कोई लाभ न उठा पायेगा। अहंकार गुणी से गुणी व्यक्ति को भी अगुणी बना देता है। मनुष्य के दोषों में जो दोष परमात्मा को सबसे अधिक अप्रिय है, वह है ‘अहंकार’ परमात्मा अपने जीवों को बन्धन मुक्त देखना चाहता है, अहंकार उसके लिये बन्धनों का सृजन करता है। इसलिये जब परम प्रभु जीवों पर दया करना चाहता है, तो डडडड उनके अहंकार को सबसे पहले नष्ट करता है। उनका डडडड जब किसी सफलता से मतवाला होने लगता है, तब वह ऐसा उपाय कर देता है कि उसका सारा अहंकार चूर हो जाता है।

नारद, विश्वामित्र, दुर्वासा आदि ऋषियों और ड़ड़ड़ड़ नल, ययाति आदि राजाओं का अहंकार उसने बात की बात में नष्ट करके उनकी लौकिक एवं पारलौकिक प्रगति को निरापद बना दिया। अहंकार पर आघात को परमात्मा की महती कृपा ही मानना चाहिये और समझ लेना चाहिये कि परमात्मा ने ऐसा कर उसके उस मानसिक विरोध का शमन कर दिया है, जो किसी समय भी उसको पतन के गहरे गड्ढे में गिरा सकता था।

निःसन्देह, जिसने अपने अहंकार को नष्ट कर डाला है, अपने आचरण में नम्रता, विनय और सहानुभूति का समावेश कर लिया है, उसने मानो अपने लोक और परलोक दोनों का मार्ग निष्कंटक बना लिया है। अहंकार के नष्ट होते ही मनुष्य का आत्म-विस्तार प्रारम्भ हो जाता है और शीघ्र ही वह ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भावना में निमग्न होकर जीवन में ही परमपद का आनंद पाने लगता है। निश्चय ही निरहंकार व्यक्ति, पंडित, विद्वान और बुद्धिमान ही होता है, क्योंकि वह अपनी आत्मा में सब ड़ड़ड़ड़ आत्मा और सब की आत्मा में अपनी आत्मा का दिव्य दर्शन करता है।


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