महाभारत युद्ध का बारहवाँ दिन था। कौरव सेना के सेनाध्यक्ष द्रोणाचार्य ने उस दिन चक्रव्यूह की रचना करके यह निश्चय किया था कि इसके द्वारा वे पांडवों का संहार कर डालेंगे। क्योंकि उनमें से कोई अर्जुन के अतिरिक्त चक्रव्यूह को तोड़ने की विधि नहीं जानता और अर्जुन को हम चालाकी से युद्ध क्षेत्र से दूर हटा देंगे। यह चाल किसी हद तक सफल हो गई और जब राजा युधिष्ठिर को इसका रहस्य मालूम हुआ तो वे घबरा गये। इस परिस्थिति में अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु आगे बढ़ा और कहने लगा कि घबराने का कोई काम नहीं, मैं निश्चय ही चक्रव्यूह को भंग कर दूँगा-
द्रोणस्य दृढ़मत्युग्रमनीकप्रवरं युधि। पितृणाँ जयमाकाँक्षत्रवगाहेऽविलम्बितम्॥
नाहं पार्थे न जातः स्याँ न च जातः सुभद्रया। यदि में संयुगे कदिचंजीवितो नाद्यमुच्यते॥
अर्थात्- ‘‘हे महाराज! मैं अपने पितृवर्ग की विजय अभिलाषा से युद्ध-स्थल में द्रोणाचार्य की अत्यन्त भयंकर, सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ सेना में शीघ्र ही प्रवेश करता हूं। यदि आज मेरे साथ युद्ध करके कोई भी वीर बच जाय, तो मैं अर्जुन का पुत्र नहीं और सुभद्रा की कोख से मेरा जन्म नहीं।’’
इसके पश्चात् अभिमन्यु ने शत्रु सेना में घुसकर जो वीरता दिखाई और अकेले ही बड़े-बड़े महारथियों को भगा दिया, उसकी कथा बहुत विख्यात है और उस वीर बालक के अद्भुत शौर्य की प्रशंसा में सैकड़ों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। पर चक्रव्यूह वेधन करके फिर लौटने की विधि की जानकारी न होने से अन्त में उस अकेले को कई महारथियों ने मिलकर घेर लिया और अन्यायपूर्वक आक्रमण करके मार डाला। जब यह संशप्तकों को हराकर लौटने पर अर्जुन को ज्ञात हुआ, तो उसने यह घटना के मुख्य जिम्मेदार जयद्रथ को दूसरे ही दिन संध्याकाल तक मार डालने की शपथ खाई और प्रण किया कि “अगर मैं उसे कल सूर्यास्त से पूर्व न मार डालूं, तो स्वयं जल कर मर जाऊँगा।’’
दूसरे दिन युद्ध में अर्जुन ने भयंकर अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध किया। उसकी कथा यहाँ वर्णन नहीं की जा सकती। पर फिर भी कौरवों ने अपनी पूरी शक्ति केन्द्रित करके जयद्रथ की रक्षा का प्रयत्न किया। जिससे अति भयंकर युद्ध होते-होते सूर्यास्त का समय निकट आ पहुँचा। यह देखकर भगवान कृष्ण को चिन्ता हुई और उन्होंने सोचा कि इस तरह लड़कर जयद्रथ नहीं मारा जा सकेगा। उन्होंने इस सम्बन्ध में कहा-
एताननिर्जित्य रणे षड् रथान् पुरुषर्षम। न शक्या सैन्घवो हन्तुँ यतो निर्व्याजसर्जुन॥
“हे नर-श्रेष्ठ अर्जुन रणभूमि में इन छः महारथियों को परास्त किये बिना सिन्धुराज को केवल माया द्वारा ही मारा जा सकता है।’’
योगमन्त्र विधास्यामि सूर्यस्यावरणं प्रति। अस्तंगत इति व्यक्तं द्रक्ष्यत्येकः स सिन्धुराज॥
“अतः मैं सूर्यदेव को ढ़कने के लिये कोई योगिक क्रिया करता हूँ, जिससे अकेला सिन्धुराज (जयद्रथ) ही उसे अस्त होता हुआ देख सके।”
हर्षेण जीविताकाँक्षी विनाशार्थ तव प्रभो। न गोप्स्यति दुराचारः स आत्मानं कथंचन॥
“तब वह दुष्टात्मा अपने जीवित रहने और तुम्हारे विनाश की आशा से प्रसन्न होकर अवश्य ही तुम्हारे सामने निकल आयेगा।’’
तत्र छिद्रे प्रहर्तव्यं त्वयास्य कुरुसत्तम।, व्ययेक्षर नैव कर्तव्य गतोऽस्तमिति भास्करः॥
“हे कुरुश्रेष्ठ! ऐसा अवसर आने पर तुम तुरन्त उसके ऊपर प्रहार करना। इस बात का भ्रम मत करना कि सूर्य वास्तव में अस्त हो गया है।’’
अन्त में ऐसा ही हुआ और अन्यायाचरण करने वाला जयद्रथ अर्जुन के बाणों से नष्ट होकर भूमिशायी हो गया। इस कथा में भगवान् कृष्ण द्वारा समय से पूर्व सूर्य को अस्त दिखला देने और उसे फिर प्रकट कर देने की जो घटना वर्णन की गई है, आधुनिक युग के अनेक शिक्षित व्यक्ति उस पर अविश्वास करते हैं। उनका कहना है कि ऐसा कार्य वास्तविक जगत् में हो सकना सम्भव नहीं, यह कवि की कल्पना मात्र है। यद्यपि काव्य-ग्रन्थों में कल्पना प्रसूत घटनाओं का मेल कोई असम्भव बात नहीं है और पौराणिक कथाओं के लिये पूरे ऐतिहासिक अथवा वैज्ञानिक प्रमाण देना भी आवश्यक नहीं, क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य सामान्य जनता को धर्मोपदेश, धर्माचरण की प्रेरणा देनी होती है।
अब अमरीका के एक मनोविज्ञान शास्त्री डा. राल्फ एलेक्जेंडर ने इच्छा-शक्ति को जागृत करके बादलों को इच्छानुसार हटाने और पैदा कर देने का प्रयोग किया है। वे बहुत वर्षों से मन को एकाग्र कर उसकी शक्ति से बादलों को प्रभावित करने का प्रयोग कर रहे थे। सन् 1951 में उन्होंने मैक्सिको सिटी में 12 मिनट के भीतर आकाश में कुछ बरसाती बादल जमा कर दिये। उस अवसर पर कई स्थानों के वैज्ञानिक और अन्य विद्वान् वहाँ इकट्ठे थे। पर डा. एलेक्जेंडर की शक्ति के सम्बन्ध में उनमें मतभेद बना रहा। तो भी सब ने यह स्वीकार किया कि जब आकाश में एक भी बादल न था, तब दस-बारह मिनट में बादल पैदा हो जाना और थोड़ी बूंदा-बाँदी भी हो जाना आश्चर्य की बात अवश्य है।
इसलिये डा एलेक्जेंडर ने फिर ऐसा प्रयोग करने का निश्चय किया, जिसमें किसी प्रकार का सन्देह न रहे। उन्होंने कहा कि “वे आकाश में मौजूद बादलों में से जिसको दर्शक कहेंगे, उसी को अपनी इच्छा-शक्ति से हटा कर दिखा देंगे।” इसके लिये ओण्टैरियो ओरीलियो नामक स्थान में 12 सितम्बर 1954 को एक प्रदर्शन किया गया। उसमें लगभग 50 वैज्ञानिक पत्रकार तथा नगर के बड़े अधिकारी इस चमत्कार को देखने के लिये इकट्ठे हुये। नगर का मेयर (नगर-पालिकाध्यक्ष) भी विशेष रूप से बुलाया गया, जिससे इस प्रयोग की सफलता में किसी को सन्देह न हो। यह भी व्यवस्था की गई कि जब बादलों को गायब किया जाय, तो कई बहुत तेज कैमरे उनका चित्र उतारते रहें। इसकी आवश्यकता इसलिये पड़ी कि कुछ लोगों का ख्याल था कि डा. एलेक्जेंडर दर्शकों पर “सामूहिक हिप्नोटिज्म” का प्रयोग करके ऐसा दृश्य दिखा देते हैं, वास्तव में बादल हटता नहीं। इससे मनुष्य का मन भ्रम में पड़ सकता है, पर तब आटोमेटिक कैमरा उस दृश्य का चित्र उतार लेगा, तो सन्देह की गुंजाइश ही नहीं रहेगी। कैमरे के चित्र में तो वही बात आयेगी, जो उसके सामने होगी। आगे की घटना के विषय में एक स्थानीय समाचार-पत्र “दी डेली पैकेट एण्ड टाइम्स” ने जो विवरण प्रकाशित किया वह इस प्रकार है-
“जब सब लोग इकट्ठे हो गये, तो डा. एलेक्जेंडर ने उनसे कहा कि वे स्वयम् एक बादल चुन लें, जिसको गायब कराना चाहते हों। क्षितिज के पास बहुत से बादल थे। उनके बीच-बीच में आसमान भी झलक रहा था। उनमें बादलों की एक पतली-सी पट्टी काफी घनी और अपनी जगह पर स्थिर थी। उसी को प्रयोग का लक्ष्य बनाया गया। कैमरे ने उसकी कई तस्वीरें उतार लीं।”
“डा. एलेक्जेंडर ने थोड़ी देर प्राणायाम किया, भौहें सिकोड़ी (त्राटक की क्रिया की) और टकटकी लगा कर बादलों की उसी पट्टी की ओर देखने लगे। अकस्मात् उन बादलों में एक विचित्र परिवर्तन दिखाई पड़ने लगा। बादलों की वह पट्टी चौड़ी होने लगी और फिर धीरे-धीरे पतली होने लगी। कैमरे चालू थे और हर सेकेंड में एक तस्वीर उतारे जा रहे थे। मिनट पर मिनट बीतते गये, पट्टी और पतली पड़ने लगी, उसका घनत्व भी कम होने लगा। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा मानो कोई रुई को धुन-धुन कर अलग कर रहा है। आठ मिनट के भीतर सब लोगों ने आश्चर्य से देखा कि वह पट्टी आसमान से बिल्कुल गायब हो गई है, जबकि आस-पास के बादल जहाँ के तहाँ स्थिर रहे।”
“लोगों की आँखें आश्चर्य से फटी जा रही थीं। पर डा. एलेक्जेंडर स्वयं अभी संतुष्ट नहीं थे। हो सकता है, कुछ लोग यह समझे कि यह सिर्फ दैवयोग की बात है। बादल तो बनते-बिगड़ते ही रहते हैं। उन्होंने लोगों से फिर किसी दूसरे बादल का चुनाव करने को कहा और फिर कैमरे उस नये बादल पर केन्द्रित कर दिये गये। उस दिन तीन बार यही प्रयोग हुआ और तीनों बार डाक्टर एलेक्जेंडर ने सफलतापूर्वक बादलों को गायब कर दिया। जब कैमरे की फिल्में साफ की गईं और फोटो निकाले गये, तो देखा कि हर बार बादलों का गायब होना उनमें पूरी तरह उतर आया है। तब वहाँ के प्रमुख अखबार ने इस समाचार को “क्लाउड डेस्ट्रायड बाई डाक्टर” (बादल डाक्टर द्वारा नष्ट किये गये) का बहुत बड़ा हैडिंग देकर प्रकाशित किया।
अमरीका में इस विद्या को “साइकोकिनासिस” अथवा पी. के. कहते हैं और इसका अभ्यास करने वालों का दावा है कि कुछ समय पश्चात् वे इसके द्वारा बादलों को ही नहीं अन्य अनेक पदार्थों को भी इधर-उधर कर सकेंगे।
जिस विद्या को अमरीका वाले अब सीखना आरम्भ कर रहे हैं, वह पूर्वी देशों में हजारों वर्षों से उपयोग में लाई जा रही है। आजकल भी मलाया के ध्यान-योगी “बमोह” इसी प्रकार बादलों को हटाकर मेघ बरसना रोक सकते। उनकी यह शक्ति इतनी सुनिश्चित मानी जाती है कि आधुनिक विचारों के व्यक्ति भी आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता लेते हैं। अभी एक क्रिकेट मैच के समय ‘बमोह’ द्वारा प्रयोग करने के फलस्वरूप मैच कई दिन तक निर्विघ्न चलता रहा, जब कि उसके आस-पास सर्वत्र मूसलाधार वर्षा होती रही।
वास्तव में ये क्रियायें योग की साधारण शक्तियों से सम्बन्धित है। “योग-दर्शन” में कहा गया है-
स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयावर्थत्व सयमाद् भूतजयः।
अर्थात्- ‘‘पाँचों भूतों के स्थल-स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय, अर्थवत्त्व में संयम करने से भूतों पर जय प्राप्त होती है। अर्थात् उस अवस्था में सभी भूततत्त्व योगी की इच्छानुसार चलते हैं।”
बादलों का हटाना तो प्राणायाम को पूरी तरह सिद्ध कर लेने पर ही सम्भव हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि महायोगी भगवान् कृष्ण ने अवसर आने पर दस-पाँव मिनट के लिये सूर्य के सम्मुख कृत्रिम (मायामय) बादल उत्पन्न करके उसके अस्त हो जाने का भ्रम उत्पन्न कर दिया हो, तो इसमें कोई असम्भव बात नहीं। पर भारतीय प्रणाली की मुख्य विशेषता यही है कि उसका लक्ष्य आध्यात्मिक रहा है। ऐसी चमत्कारी शक्तियों की प्राप्ति होने पर भी साधकों के लिये यह स्पष्ट आदेश दे दिया जाता है कि उनका उपयोग स्वार्थ के लिये न करके परमार्थ संबन्धी कार्यों के लिये ही किया जाय।