धर्म परम्परावादी नहीं, सत्य की प्रतिष्ठा के लिये है

December 1968

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एक थे पंडित जी! नाम था सज्जनप्रसाद, सज्जन और सदाचारी भी थे और ईश्वर-भक्त भी किन्तु धर्म का कोई विज्ञान सम्मत स्वरूप भी है, यह वे न जानते थे।

प्रतिदिन प्रातःकाल पूजा समाप्त करके पंडित जी शंख बजाते। वह आवाज सुनते ही पड़ौस का गधा किसी गोत्र-बन्धु की आवाज समझकर स्वयं भी रेंक उठता। पंडित जी प्रसन्न हो उठते कि यह कोई पूर्व जन्म का महान तपस्वी और भक्त था। एक दिन गधा नहीं चिल्लाया, पंडित जी ने पता लगाया। मालूम हुआ कि गधा मर गया। गधे के सम्मान में उन्होंने अपना सिर घुटाया और विधिवत तर्पण किया। शाम को वे बनिये की दुकान कुछ सौदा लेने गये। बनिये को शक हुआ- महाराज! आज यह सिर घुटमुन्ड कैसा?” “अरे भाई शंखराज की इहलीला समाप्त हो गई है।”

बनिया पंडित का यजमान था, उसने भी अपना सर घुटा लिया। बात जहाँ तक फैलती गई, लोग अपने सिर घुटाते गये। छूत बड़ी खराब होती है। एक सिपाही बनिये के यहाँ आया उसने तमाम गाँव वालों को सर मुड़ाये देखा- पता चला शंखराज जी महाराज नहीं रहे, तो उसने भी सिर घुटाया। धीरे-धीरे सारी फौज सिर-सपाट हो गई।

अफसरों को बड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पूछा- भाई बात क्या हुई। पता लगाते-लगाते पंडित जी के बयान तक पहुँचे और जब मालूम हुआ कि शंखराज कोई गधा था, तो मारे शर्म के सबके चेहरे झुक गये।

एक अफसर ने सैनिकों से कहा- ‘‘ऐसे अनेक अन्ध-विश्वास समाज में केवल इसलिये फैले हैं कि उनके मूल का पता नहीं है। धर्म परम्परावादी नहीं, सत्य की प्रतिष्ठा के लिये है, वह सुधार और समन्वय मार्ग है। उसे ही मानना चाहिये।”


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