सामाजिक उन्नति में व्यक्ति की उन्नति सन्निहित

December 1968

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यह खेद करने से पूर्व कि हमारा वास्तविक विकास नहीं हो रहा है, हम विकास से वंचित हैं, प्रगति के अर्थ में कुछ भी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं- यह सोचना चाहिए कि हमारी उन्नति और प्रगति हो क्यों नहीं हो रही है, हम उन्नति से वंचित हैं क्यों?

यदि अपनी स्थिति पर खेद करते रहने के बजाय उसके कारणों वर विचार किया जाये, तो पता चलेगा कि हमने जो विचार और कार्य पद्धति अपना रक्खी है, वह ही ठीक नहीं है और इसीलिये हम उन्नति और विकास से वंचित बने हुये हैं। हम सोचते यह हैं कि संसार की सारी सम्पदा, सारा वैभव और सारे सुख-साधन हमें ही प्राप्त हो जाये। हमें हास-विलास और आमोद-प्रमोद की परिस्थितियाँ मिले, हम समाज में सबसे अधिक धनवान् और शक्तिशाली बने, समाज में हमारी पूजा प्रतिष्ठा हो।

न केवल इस प्रकार सोचते ही हैं, बल्कि उसके अनुरूप अपने आचरण का भी व्यवहार करते हैं। व्यापार में अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहते हैं। नौकरियों में दूसरों को पीछे ढकेल कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर दूसरों की चिन्ता नहीं करते। जहाँ भी रहते और भी जाते हैं, अपनी ही सुख-सुविधा और लाभ पर ध्यान रखते हैं। दूसरे की सुविधा-असुविधा अथवा सुख-दुख का कोई ध्यान नहीं रखते। हमारे ये स्वार्थ-परक विचार और कार्य ही हमारी उन्नति एवं प्रगति में बाधक बने हुए हैं।

हम यह नहीं सोच पाते कि हम केवल एक अकेले व्यक्ति नहीं हैं। हमारा अस्तित्व सामाजिक है। हमारा सर्वस्व अभिन्न रूप से हमारे समाज के साथ जुड़ा हुआ है। जितनी देर तक हम अपने को एक अलग इकाई मानकर अपनी उन्नति और विकास के लिये सोचते और कार्य करते रहेंगे, हमें निराश ही रहना पड़ेगा। जब तक हमारा जीवन-कोण और कार्य-पद्धति समष्टिगत न होकर व्यक्तिगत रहेगा, हमें अपनी स्थिति पर इसी प्रकार खेद करते रहने पर विवश होना पड़ेगा।

हमें न केवल सोचना ही होगा, बल्कि यह आस्था लानी होगी कि हमारा जीवन व्यक्तिगत नहीं, समष्टिगत है। हमें केवल अपने को आगे रखकर सोचने का कोई अधिकार नहीं है। समष्टिगत सोचना और उसी के अनुसार आचरण करना ही हमारा कर्तव्य भी है और अधिकार भी। जिस दिन से हम अपनी यह आस्था बनाकर उसके आधार पर अपने आचरण का सुधार कर लेंगे, हमारी प्रगति के द्वार आपसे आप खुलने लगेंगे।

हमारा जीवन समाज का दिया हुआ है। वह हमारी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है। समाज की एक धरोहर है। इसका उपयोग समाज के कल्याण और उसके हित के लिये ही होना चाहिये। इस तथ्य को तब ही चरितार्थ किया जा सकता है, जब हम यह आधार लेकर चलें कि हमारा जीवन अपने व्यक्तिगत रूप में भले ही कुछ कष्टपूर्ण क्यों न हो पर दूसरों के लिये यह हितकारी हो। दूसरों का सुख और दूसरों की सुविधा ही हमारी सुख-सुविधा है और दूसरों का दुख-क्लेश हमारा दुख-क्लेश है- यह परमार्थ भाव मनुष्य में जिस व्यक्तित्व का विकास करता है, वह बड़ा आकर्षक होता है। इतना आकर्षक कि समाज की शक्ति और विकास मूलक सद्भावनायें आपसे-आप खिंचती चली आती हैं। पूरा समाज उसका अपना परिवार बन जाता है, कुटुम्ब के रूप में बदल जाता है। ऐसी बड़ी उपलब्धि मनुष्य को किस ऊँचाई पर नहीं पहुँचा सकती।

किन्तु यहाँ पर भी एक सावधानी बरतने की आवश्यकता है। बहुत बार लोग प्रारम्भ में सामाजिक बने रहते हैं। समाज के लिये सोचते और बहुत कुछ करते हैं, किन्तु जब उस परमार्थ के परिणामस्वरूप किसी पद पर पहुँच जाते हैं, तो स्वार्थ में पड़ जाते हैं। लोभ में आकर अपने लिये संचय एवं संग्रह करने लगते हैं। वे समाज के उस अनुग्रह को अपना अधिकार और अपनी सम्पत्ति मानकर चलने लगते हैं। बस यहीं से उनका पतन प्रारम्भ हो जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि कोई भी शक्ति, सम्पदा, पद अथवा प्रतिष्ठा, वह चाहे सद्व्यवहार के परिणामस्वरूप समाज के बीच से अर्जित हुई हो अथवा संयोगवश उत्तराधिकार में मिल गई हो, कभी भी अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति न मानी जानी चाहिये।

किसी भी क्षेत्र में पाई हुई शक्ति, पद अथवा प्रतिष्ठा, होती तो अपने ही हाथ में है, उसका आवश्यकता भर व्यक्तिगत रूप में उपयोग भी किया जा सकता है तथापि यह कभी न भूलना चाहिये कि उस पर अन्ततः अधिकार समाज का ही है। उसे उसके लाभ से वंचित रखकर केवल अपने तक सीमित कर लेने का हमें कोई अधिकार नहीं है। और यदि हम ऐसा करते हैं, तो गलती करते हैं, अनाधिकार चेष्टा करते हैं, जिसका दण्ड हमें अधिकार-वंचना के रूप में किसी समय भी मिल सकता है।

हम जियें, खूब हँसी-खुशी और आनन्दपूर्वक जियें, यह ठीक भी है और इसका हमें अधिकार भी है। तथापि हमें अपनी हँसी-खुशी में दूसरों को भी भाग देना चाहिये। हम तो आमोद प्रमोद और आनन्द-मंगल मनाते चलें और हमारे आस-पास का समाज दुःख के आँसुओं से भीगता रहे, तो हमारी हँसी-खुशी एक सामाजिक अपराध है। हमें अपने व्यक्तिगत आमोद-प्रमोद में इस सीमा तक नहीं डूबा रहना चाहिये कि आस-पास का क्रन्दन ही सुनाई न दे। आस-पास के क्रन्दन के बीच भी जो उपेक्षा-भाव से खुशियाँ मनाता रहता है, उसे तो क्रूर और अकरुण व्यक्ति मानना होगा। ऐसे समाज के विरोधी व्यक्ति को समझ लेना चाहिये कि उसकी यह क्रूर पाशविक वृत्ति शीघ्र ही उसकी सारी हँसी-खुशी छीन लेगी। हँसी-खुशी तो उसी की स्थायी और सुरक्षित रह पाती है, जो अपने साथ दूसरों को भी उसमें भागीदार बनाकर मंगल मनाया करता है।

संसार के अन्य समाजों की बात तो नहीं कही जा सकती पर अपने भारतीय समाज की यह पद्धति कभी नहीं रही कि दूसरों के कष्ट-क्लेशों की उपेक्षा करके आनन्द मनाया जाये। आनन्द जीव की सहज प्रवृत्ति है। यह सुर-दुर्लभ मानव शरीर मिला ही अनंत आनन्द को पाने और मनाने के लिये। फिर भी एकाकी आनन्द मनाने का निषेध भी है। दूसरों से साथ मिलकर ही आनन्द का उपभोग वास्तविक उपभोग है। अन्यथा वह एक अन्याय है, अनुचित है और चोरी जैसी बात है। हमें आनन्द का संभोग मिला है, उसकी सुविधा उपलब्ध है, तो हमें उसे जन-जन को साथ लेकर मनाना चाहिये। भारतीय संस्कृति और धर्म में सामूहिक मेले, त्यौहार, पर्व और पारिवारिक उत्सव मिल-जुलकर मनाने का नियम है। नीतिकारों ने व्यक्तिगत एकाकी आनन्दोपभोग को अनुचित कहा है। भारतीय संस्कृति के अंतर्गत जिन पर्वों, त्यौहारों मेलों एवं उत्सवों की व्यवस्था की गई है, उन सबको सामाजिक आधार पर मनाने का निर्देश भी दिया गया है।

इस सामूहिक आनन्दोपभोग के पीछे एक बड़ा कल्याणकारी मंतव्य सन्निहित है। वह यह कि इससे समाज के संगठन, सद्भावना, शक्ति और पारस्परिक प्रेम की वृद्धि होती है। लोगों में बन्धुत्व की भावना का विकास होता है। समाज को पीछे धकेलने वाली ईर्ष्या-द्वेष और स्वार्थ की विकृतियों का हतोत्साहन होता है। समाज में अमन चैन और सुख-शाँति का वातावरण स्थिर होता है। व्यक्ति व्यक्ति और व्यक्तियों के साथ पूरा समाज उन्नति और प्रगति की और अग्रसर हो चलता है। संसार में प्रतिष्ठा और नेकनामी का गौरव प्राप्त होता है।

यदि हमारी उन्नति नहीं हो रही है, हम विकास के पथ पर नहीं बढ़ पा रहे हैं, तो इसका कारण यही हो सकता है कि हम सम्पूर्ण समाज को सामने न रखकर केवल अपने लिये ही सोचते और आचरण करने की गलती करते हैं। उन्नति और विकास की आधार-शिला सामूहिक भावना है। व्यक्तिगत विचार संकीर्णता का द्योतक है और संकीर्ण व्यक्ति संसार में कभी उन्नति नहीं कर सकता। यदि उन्नति की इच्छा यथार्थ है और निश्चय ही हम जीवन में कुछ उल्लेखनीय कार्य करना चाहते हैं, तो व्यक्तिगत- के संकीर्ण दायरे से बाहर आकर समष्टिगत भावों में विस्तार लाना होगा। हमें वहीं कुछ करना होगा जो रचनात्मक और समाज के लिये हितकारी हो। हमें केवल अपने व्यक्ति के लिये नहीं सम्पूर्ण समाज के लिये जीना होगा और यह मानकर चलना होगा कि हमारे पास आज जो कुछ है, वह सब समाज के लिये उसका हित करने के लिये ही है और आगे भी भविष्य में जो कुछ उपलब्ध होगा, वह सब भी समाज का अनुग्रह होने से उसी का होगा। जिसे उसी के हित और कल्याण में लगाना होगा।

इस प्रकार जिस दिन हमारे प्रयत्नों और प्रवृत्तियों का आधार ‘बहुजन हिताय’ की भावना बन जायेगी, हमें अपनी प्रगति एवं विकास के लिये प्रवंचित न होना होगा। समाज स्वयं ही हमें हाथों-हाथ ऊपर उठा लेगा। हमें सहयोग और सहायता की कमी न रहेगी। हम न स्वयं एकाकी रह जायेंगे और न हमारे प्रश्न और हमारी समस्यायें ही हमारी मात्र रह जायेंगी। वे सब की, पूरे समाज की बन जायेंगी और पूरा समाज उन्हें हल करने में हमारा साथ देने लगेगा। इसीलिये तो वेदों में स्थान-स्थान पर कहा गया है-

‘समानी प्रया सहवोऽन्नभागः’- तुम्हारे खाने-पीने के स्थान और भाग एक जैसे हों। ‘समानी व आकृतिः समानो हृदयानिव’-तुम्हारे हृदय की संकल्प भावनायें एक जैसी हों। ‘संगच्छह्मम् सम्बद्ध्वम्”-तुम्हारी गति और वाणी में एकता हो- आदि-आदि।

इस प्रकार सामूहिक और सामाजिक भावना को जीवन में स्थान देने पर व्यक्ति एवं समाज दोनों की उन्नति एक साथ और एक समान होती चलती है। अस्तु, व्यक्तिगत विकास के लिये भी सामाजिक वृत्ति का विकास करना होगा।


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