आत्मा के अस्तित्व के कुछ प्रमाण

December 1968

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“वाणी को जानने से कोई लाभ नहीं, वाणी को प्रेरित करने वाली आत्मा को जानना चाहिये। गन्ध को जानकर क्या बनता है, यदि गन्ध ग्रहण करने वाली आत्मा को नहीं जाना जाता। रूप में ज्ञाता आत्मा को न जान कर रूप को जानने का प्रयत्न व्यर्थ है। जो शब्द सुनता है, उसे जानना चाहिये शब्द को नहीं। अन्न-रस के ज्ञान की कामना व्यर्थ है, उस आत्मा को जानना चाहिये, जो अन्न-रस का ज्ञाता है। कर्म, सुख-दुख, काम-सुख, पुत्रोत्पत्ति और गमनागमन को जानने से कोई लाभ नहीं, यदि इनके ज्ञाता और साक्षी आत्मा को न जाना जाय। हे प्रतर्दन! मन को जानने की जिज्ञासा भी व्यर्थ है, मननशील आत्मा को जानना चाहिये।’’

यह कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् के तृतीय अध्याय में भगवान इन्द्र ने प्रतर्दन ने कहा- ‘‘न वाचं विजिज्ञासीतवक्तारं विद्यात् न गन्ध विजिज्ञासीत घ्रातारं विद्यात्.................. न मनों विजिज्ञासीत मन्तारं विघात्।”

उपरोक्त संदर्भ में जितना अधिक चिन्तन करते हैं, उतने ही महत्वपूर्ण रहस्य प्रकट होते हैं। ऐसा लगता है कि उनको जाने बिना मनुष्य का यथार्थ कल्याण सम्भव नहीं। शास्त्रकार का यह थन कि सुन्दर स्वर-संगीत, सुगन्धित वस्तुयें, सुन्दर भोजन, रति, सुख-दुःख, साधन, श्रृंगार यह सब भौतिक आवरण हैं। इनके बीच घिरी हुई साक्षी आत्मा को जब तक नहीं जान लिया जाता, यह सारा ज्ञान निरर्थक है। यथार्थ सुख-शान्ति और बन्धन-मुक्ति दिलाने वाली आत्मा है, उसको जाने बिना मनुष्य शरीर और पशु शरीर में कोई अन्तर नहीं रह जाता।

प्रमाण, तर्क और विज्ञान-बुद्धि- इस युग का प्राणी कहता है, आत्मा का कोई अस्तित्व सम्भव ही नहीं तो जाना किसे जाय? आत्मा नाम की कोई वस्तु इस संसार में है ही नहीं, इस मूढ़ मान्यता के कारण ही भौतिक आकर्षण का मोह आज संसार में भयंकर रीति से बढ़ता और प्राणिमात्र को संकट, संघर्ष, अशाँति, उद्वेग, निराशा, कलह, वैमनस्य, युद्ध, अन्तर्द्वन्द्व से जकड़ता जा रहा है।

इसी उपनिषद् के अगले पन्नों में आत्मा के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों का विवेचन किया गया है, पर उसे कहने की अपेक्षा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करना सर्वप्रथम आवश्यक है। प्रमाण, तर्क और वैज्ञानिक तथ्यों की कमी नहीं, यदि बुद्धिजीवी लोग श्रद्धा परायण आत्मा को जानने के इच्छुक नहीं तो प्रमाण-परायण आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने में तो झिझक और हिचक न होनी चाहिये।

वैज्ञानिक धारणाओं के अनुसार कोई भी व्यक्ति जैव-ट्रव के सक्रिय परमाणुओं का समूह होता है, जो सारभूत रूप में करोड़ों वर्षों के जीव विकास क्रम की पुष्टि करता है। ये सक्रिय परमाणु सारे शरीर में उसकी अनुभूतियों में और मस्तिष्क में केन्द्रित होते हैं, इतना जान लेने के बाद विज्ञान अपने आप से प्रश्न करता है कि इन परमाणुओं की संरचना, गति और अनुभूतियों को रचने वाला, प्रेरणा और ग्रहण करने वाला कौन है? उनका उत्तर होता है- मौन। भारतीय-दर्शन वहीं से आध्यात्म का आविर्भाव मानता है और कहता है कि वह आत्मा है, आत्मा। उसे ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये।

डा. टिमोदी लिपरी ने मन को ही सब कुछ माना और अध्यात्म की सत्ता वहीं तक स्वीकार की। मन एक रासायनिक तत्व है। अन्न के स्वभाव और गुण के अनुरूप उसका आविर्भाव होता है। मनश्चेतना के विस्तार तथा उसकी अभिव्यक्ति के लिये अनेक रासायनिक द्रव्यों का विकास हुआ है। भारतीय तन्त्र और तिब्बती ताँत्रिक साधनाओं में भी रासायनिक तत्वों के आधार पर मनश्चेतना के प्रसार और उसके द्वारा विलक्षण अनुभूतियों और दूरवर्ती ज्ञान को प्राप्त कर लिया जाता है। एलन गिसबर्ग ने भी उसी की पुष्टि की है और उनका विश्वास है कि जीव-चेतना का अन्त मन है, उसके आगे न कोई सूक्ष्म सत्ता है और न कोई अति मानस ज्ञान। पर अब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने ही इन ताँत्रिक साधनाओं के आधार पर ही अतीन्द्रिय और मनश्चेतना से परे किसी ऐसे तत्व का अस्तित्व स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया है, जो सर्व-दृष्टा, शाश्वत, मुक्त और स्वेच्छा से भ्रमण और स्वरूप ग्रहण करने वाला है, जो साक्षी चेतन और अपनी इच्छा से विकसित होने वाला है। इस विश्वास की पुष्टि और शोध के लिये ही ‘लीग फार स्प्रिचुअल डिस्कवरी’ की स्थापना हुई है। यह संगठन अनेक घटनाओं के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहा है कि मनश्चेतना से परे भी कोई चेतन तत्व इस सृष्टि में विद्यमान है, शरीर धारियों का केन्द्र और मूल भी वही है।

स्काटलैण्ड के एक मकान में एक अंग्रेज दम्पत्ति रहते थे। दोनों को बहुत अधिक मदिरा पीने की आदत थी। 14 जुलाई 1876 को पति की मृत्यु हो गई। उसके दो वर्ष बाद ही पत्नी की भी अल्पायु में मृत्यु हो गई। अब इस मकान को कैप्टन मार्टिन नामक एक अंग्रेज ने किराये पर ले लिया और उसी में अपनी धर्म-पत्नी तथा बच्चों के साथ रहने लगे।

एक दिन मार्टिन की स्त्री ने घर में एक काले वस्त्र-धारण किये हुये स्त्री को देखा, उन्होंने समझा यह मेरी माँ है, जैसे ही वह उससे मिलने के लिये आगे बढ़ी कि वह स्त्री सीढ़ियों से ऊपर के कमरे में जल रही मोमबत्ती बुझा दी। फिर उसके बाद कोई दिखाई न दिया। इसके कई दिन बात वैसी ही छाया फिर दिखाई दी, पर प्रयत्न करने पर भी न तो उससे कोई बात-चीत की जा सकी, न उससे मिला ही जा सका। आगे बढ़ते ही वह छाया अदृश्य हो जाती। इस घटना को बाद में पड़ौसियों ने भी देखा और यह माना कि यह पूर्व अंग्रेज स्त्री की भटकती हुई आत्मा है। आत्माओं के इस तरह के क्रिया-कलापों की घटनायें भारतवर्ष में बहुतायत से होती हैं।

प्रसिद्ध साहित्यकार लार्ड ब्रोह्म के जीवन की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना आत्मा के अस्तित्व पर प्रकाश डालती है। उनके एक मित्र थे, उन्हें आत्माओं के अस्तित्व के सम्बन्ध में जानने का बड़ा चाव रहता था। दानों ऐसे लेख जिनमें कोई ऐसी जानकारी होती थी, ढूंढ़-ढूंढ़कर पढ़ते थे। उन्होंने सुना था कि भारतवर्ष में कुछ ऐसे योगी हैं, जो मृतात्माओं के साथ साक्षात्कार कराते हैं। एक दिन इस पर दोनों मित्रों ने निश्चित किया- ‘‘हम में से जिसकी मृत्यु हो, वह दूसरे से मिलने अवश्य आये।” यह बात मस्तिष्क में गहराई तक बैठ जाये, इसके लिये उन्होंने उंगली काट कर एक कागज में हस्ताक्षर भी किये।

कुछ दिन बाद मित्र सर्विस के लिये भारतवर्ष चला आया। इसके बाद 19 दिसम्बर 1799 की बात है, लार्ड ब्रोह्म अपने स्नानागार पहुँचे, कपड़े उतार कर कुर्सी में रखे और दरवाजा बन्द करके टब में स्नान करने लगे। ब्राह्म साहब लिखते हैं- ‘‘जैसे ही मैंने टब से अपना सिर बाहर निकाला कि देखता हूँ मेरे मित्र महोदय सामने कुर्सी पर बैठे हैं। दरवाजे बिल्कुल बन्द थे, मैं घबरा गया कि वह कोई प्रेत तो नहीं है और इसके बाद मुझे जब होश आया तो कुर्सी में कोई नहीं था, दरवाजे पहले की तरह बन्द थे। उसके 8-10 दिन बाद भारत से आया एक पत्र मिला, जिसमें यह लिखा था कि 19 दिसम्बर के दिन मित्र की मृत्यु हो गई है। इस घटना से मुझे पूरा विश्वास हो गया कि मृत्यु के बाद भी आत्मा रहती है और जागृत जीवन की उसमें तमाम स्मृतियाँ भी रहती हैं।”

विलियम हंटर नामक अंग्रेज की बहन आने गाँव में रहती थी और हन्टर दूर किसी शहर में सर्विस करता था। एक दिन बहन रात में सो रही थी। उसने स्वप्न में देखा कि एक रेल आ रही है उसका भाई पटरी पर आ गया, रेल उसे कुचलने वाली है, बहन भयंकर चीत्कार करके भाई को बचाने के लिये दौड़ी पर वह तो स्वप्न था, भंग हो गया न वहाँ कोई रेल थी और न कोई भाई।

दूसरे दिन सबेरे ही सूचना मिली कि उसका भाई रेल से कट कर मर गया है। यह घटना भी आत्मा के सूक्ष्म अस्तित्व और अमरता पर प्रकाश डालती है।

अहमद नगर जिले के श्री ऋषि महोदय के सम्बन्ध में पहले भी लिखा जा चुका है, वे मृत आत्माओं को बुलाकर उनसे बातचीत करने के आचार्य माने जाते हैं। यह विद्या विदेशों में भी है। स्वर्गीय “श्री डब्ल्यू स्टेटिड” मृतक आत्माओं से बातचीत करने में सिद्धहस्त थे।

एक बार एक फोटोग्राफर ने ‘डा. थयोव वरहाजमान’ का एक फोटो खींचा। जब फोटो खींच लिया गया तो डा. वरहाजमान ने कहा- मुझे ऐसा लगा जैसे फोटो खींचते समय कोई मेरे साथ हो, जबकि उनके साथ कोई भी दृश्य प्राणी खड़ा न हुआ था। लेकिन दूसरे दिन जब फिल्म धुल कर आई तो लोग यह देखकर दंग रह गये है कि उस फोटो के साथ ही स्वर्गीय ग्लेडस्टोन का फोटो आ गया था।

हमारे यहाँ यह कहा जाता है कि कथा-कीर्तन, संगीत, भजन, चित्रकला, जप-तप, ध्यान-धारणा के आधार पर मन को एकाग्र करके उसे आत्म-तत्व की शोध में नियोजित किया जा सकता है। निग्रहित मन की सत्ता इतनी सूक्ष्म और गतिशील हो जाती है कि उसे कहीं भी दौड़ाया जा सकता है और दूरस्थ स्थान को भी देखा और सुना जा सकता है। मन को जब आत्मा में केन्द्रित कर देते हैं, तो समाधि सुख मिलाता है।

दूसरे देशों में समाधि-सुख की कलपना तो की गई है, पर उसका कारण और कर्ता आत्मा को न मानकर मन को माना जाता है। मन यद्यपि अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है, पर वह अन्न की गैसीय स्थिति है, अन्न से रस, रक्त, माँस मेदा, मज्जा, अस्थि, वीर्य आदि सप्त धातुयें बनती हैं। वीर्य इनमें से स्थूल-तत्व की अन्तिम अवस्था है, वहाँ से मन, बुद्धि, चित्त अहंकार आदि अन्तःकरण चतुष्टय बनते हैं, इनको ज्ञान और मोक्ष का आधार माना गया है। अर्थात् यह मन के ऊपर अवलम्बित है कि वह साँसारिक पदार्थों में ही घिरा रहे अथवा सूक्ष्म-सत्ता को प्राप्त कर समाधि सुख प्राप्त करे। मन तो भी एक रासायनिक तत्व ही है, आत्मा नहीं।

अमेरिका के डाक्टर टिमोदीलियरी ने मन को अन्तिम स्थिति माना है और उसी के विस्तार को समाधि सुख। ड़ड़ड़ड़ और कुछ औषधियाँ मनश्चेतना का विस्तार कर देती डडडड जिससे अनेक गुना अधिक शक्ति अनुभव होती है, उस स्थिति में कामजन्य-सुख बहुत बढ़ जाता है। सामान्य स्थिति में भी अपने में शक्ति अनुभव होती है और बड़ा आनन्द आने लगता है। वह दरअसल चेतना को निम्न स्तर से उठाकर जगत् के मूल-भूत तत्वों के साथ एकाधिकार कर देने की क्षणिक स्थिति मात्र है। पर वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना आध्यात्मिक साधन। उससे अति-मानस तत्व की सत्यता अनुभव की जा सकती है।

इस दिशा में जैकी कैसन ने मनो-विस्तारक प्रयोगों का बड़ा महत्व है। वे प्रकाश की किरणों का विविध आकृतियों में संयोजित करती हैं और पानी के माध्यम से उन आकृतियों के छाया चित्र किसी पर्दे में प्रक्षेपित करती हैं। उन चित्रों को ध्यानपूर्वक देखने से मनुष्य सम्मोहन की स्थिति में पहुँच जाता है और उसे विचित्र प्रकार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं, इससे भी आत्मा का अस्तित्व प्रमाणित होता है। यह अनुभूति यद्यपि क्षणिक होती है और पाश्चात्य वैज्ञानिक उसे सुख की संज्ञा दे देते हैं, पर यह वस्तुतः उस आत्मा के साथ एकाकार का क्षणिक आवेग है, समाधि सुख तो आत्मा में पूर्ण विलय के साथ ही मिलता है।

सोमरस के सम्बन्ध में भारतवर्ष में अनेक तरह की मान्यतायें प्रचलित हैं, उसका अलड्डअस हक्सले ने बहुत गुणगान किया है। उत्तरी योरोप में उसी तरह का एक पेय फ्लाई एगेरिक नामक कुकुरमुत्ते से तैयार किया जाता है। फिजी द्वीप-समूह के लोग काबा नामक पेय पीते हैं। एन्डियन तराई (अमरीका) के लोग आयाहुस्का नामक पेय पीते हैं, इससे उन्हें दिवास्वप्न जैसी अनुभूतियाँ होने लगती हैं। कई बार इस अवस्था में भविष्य की और मृत आत्माओं की विचित्र और सत्य बातें फलित होती हैं। मन उस अवस्था में किसी बड़े तत्व के साथ एकाकार करके ही वह क्षणिक अनुभूतियाँ प्राप्त करता है। वह तत्व यदि है तो उसे आत्मा कहेंगे। भले ही उसका स्वरूप समझने में विज्ञान जगत को कुछ समय लगे।

शाश्वत सुख हमारे जीवन का लक्ष्य है और आत्मा उसका केन्द्र। इन्द्रियाँ उसके विषय मात्र हैं, उन विषयों को लक्ष्य न बनाकर आत्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिये, यही बात उपनिषदकार ने कही है।


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