परमात्मा का सान्निध्य और संपर्क साधें

December 1968

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दुःख मनुष्य की स्वाभाविक अनुभूति नहीं है। उसकी स्वाभाविक अनुभूति सुख है। यदि मनुष्य की स्वाभाविक अनुभूति दुःख होती तो मानव मात्र हर समय रोते, कलपते ही नजर आते। पर ऐसा होता नहीं। हर मनुष्य अपने जीवन में अधिकांशतः हँसता, खेलता और मौज मनाता दिखाई देता। दुःख मनाता हुआ तो वह यदा-कदा ही दिखलाई देता है। दुःख के प्रसंगों में भी वह सुख, शाँति और सन्तोष के सूत्र निकाल लिया करता है। बड़े से बड़े आघात को भी वह दिन दो दिन, माह दो माह में भूल जाता है और उसका शौक-सन्ताप धीरे-धीरे शीतल हो जाता है।

यदि मनुष्य की स्वाभाविक अनुभूति दुःख होती तो वह हर समय दुःखी ही बना रहता। और तब ऐसी स्थिति में उसका कुछ दिन भी जीवित सकना सम्भव न होता। इसके विपरीत वह एक लम्बी आयु तक जीता, खुशी-खुशी जीता है।

मनुष्य परमात्मा का अंश है। परमात्मा आनन्दस्वरूप है। अस्तु मनुष्य की सहज अनुभूति, सुख होना असंदिग्ध रूप से प्रमाणित है।

तब आखिर वह यदा-कदा भी दुःखी क्यों दिखलाई देता है? इसका कारण है। वह यह कि जब मनुष्य अपने स्वरूप को भूल जाता है, तब वह किन्हीं परिस्थितियों से प्रभावित होकर दुःखी दीखने लगता है। सब कुछ होने पर भी मनुष्य में विस्मरणशीलता की एक प्रवृत्ति रहती है। किन्तु यह प्रवृत्ति बुरी नहीं कही जा सकती। यदि मनुष्य का स्वभाव चिर-स्मरणशील हो तो एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाये। मनुष्य जीवन में ऐसी न जाने कितनी घटनायें आ जाती हैं, जो दुःखद होती हैं। यदि मनुष्य मस्तिष्क में विस्मरण की प्रणाली न बनी हो तो वे दुःखद घटनायें बहकर बाहर न जा सकें और हर समय मस्तिष्क में जागरूक रहकर उसे पागल ही बना डालें।

अप्रिय घटनायें एक-एक कर इतनी जमा हो जायें कि फिर व उनसे एक क्षण भी अवकाश नहीं पा सकता। उसके मस्तिष्क में पुरानी स्मृतियाँ इतनी अधिक मात्रा में जमा हो जायें कि नई बातें सुनने, समझने, सोचने और ग्रहण करने के लिये स्थान ही न रह जाये, जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य का विकास ही रुक जाये। अपनी इसी विस्मरणशीलता के कारण वह अपना आनंदस्वरूप भूला रहता है।

जिस प्रकार मनुष्य अपनी आँखों से अपनी आंखें नहीं देख सकता और उन्हें देखने के लिये दर्पण का सहारा लेना पड़ता है। ठीक उसी प्रकार अपना स्वरूप स्मरण करने के लिये परमात्मा का स्मरण करना होगा। उसे जानकर ही हम अपने को सरलतापूर्वक जान सकते हैं।

यों तो कहने के लिये हम सब आस्तिक हैं। परमात्मा को जानते और मानते हैं। पर वास्तविकता यह है कि हम उसे जानते-मानते तो क्या, उसकी एक अबूझ-सी छाया मात्र, एक धुँधली-सी, भूली-बिसरी-सी स्मृति हमारे किसी कोने में पड़ी रहती है, जो यदा-कदा चमक भर जाती है। इतने मात्र का जानना नहीं कहा जा सकता। जानना तो तब माना जा सकता है, जब वह हर समय हमारे हृदय-पटल पर अंकित रहे, मनो-मंदिर में विराजमान बना रहे।

किन्तु यह सम्भव तभी हो सकता है, जब हम उसका बार-बार स्मरण करते रहें, उससे संपर्क बनाये रहें। जिन लोगों को हम कभी जानते थे, उनमें से बहुत से ऐसे लोग होंगे, जिनको हम अब बिल्कुल भूल गये हैं। इनका एक मात्र कारण यही होता है कि या तो हम उनके संपर्क में नहीं रहते या बार-बार उन्हें याद नहीं करते रहे होते हैं। सामान्य उपभोग की वस्तुयें भी जब बहुत दिन तक हमारे व्यवहार में नहीं आतीं तो हमारे स्मृति-पटल पर से उतर जाती हैं और हम उन्हें बिल्कुल भूल जाते हैं। विद्यार्थी प्रारम्भ में वर्णमाला या गिनती याद करता है। उसके पहले वह उनको जरा भी नहीं जानता था। पर बार-बार याद करते रहने पर एक दिन वे सब याद हो जाती हैं और तब तक बनी रहती हैं, जब तक उनसे किसी प्रकार का संपर्क बना रहता है। कुछ दिन को भी संपर्क हटा देने या याद न करने पर उनकी स्मृति बालक के मस्तिष्क से निकल जाती है। तथापि जब वह पूर्ण तन्मयता के साथ उन्हें आत्मसात् कर लेता है तो वे उसे आजीवन ही याद बनी रहती है।

स्मरण अथवा विस्मरण की जो बात किसी अन्य वस्तु अथवा व्यक्ति के विषय में है, वही परमात्मा के विषय में है। हम उसे बार-बार याद करते रहेंगे तो वह हमारे मस्तिष्क में जीता, जागता रहेगा और जब हम उसे याद करना छोड़ देंगे तो वह हमें विस्मरण हो जायेगा।

जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होती है, उसे हृदयंगम करने के लिये उतने ही सूक्ष्म, एकाग्र तथा निर्द्वन्द्व, मनन, चिन्तन और स्मरण करने की आवश्यकता होती है। परमात्मा सूक्ष्माति-सूक्ष्म तत्व है, उसे साधारण और स्थूल बुद्धि द्वारा यदा-कदा मनन, स्मरण करने से हृदयंगम नहीं किया जा सकता। उसे हृदय की गहराई और सूक्ष्म विवेक द्वारा निरन्तर चिन्तन करने से ही धारण किया जा सकता है।

चिन्तन में हृदय की गहराई उसी के लिये आविर्भूत होती है, जिससे प्रेम होता है। प्रेमी के जीवन में उसका प्रियतम साँगोपाँग रूप से ओत-प्रोत हो जाता है। उसकी सारी भावनायें और कर्मों की सीमा अपने प्रियतम तक केन्द्रित हो जाती हैं। वह उसी के लिये जीता और उसी के लिये मरता है। प्रियतम प्रेमी का सर्वस्व बन जाता है और प्रेमी प्रियतम का रूप हो जाया करता है। तथापि यह प्रेम-भाव भी उसी के लिये उत्पन्न हो सकता है, जिसको सम्पूर्ण रूप से आत्म-समर्पण कर दिया जाये।

अस्तु, अपना स्वरूप जानने के लिये, परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिये इस क्रम से चलना आवश्यक होता है- कि उसे संपूर्ण आत्म-समर्पण कर हृदय की गहराई से स्मरण किया जाये और यह स्मरण चिन्तन के आधार पर सम्भव हो सकता है। सतत् चिन्तन की सिद्धि तब ही सम्भव है, जब उपासना द्वारा परमात्मा के संपर्क में रहा जाये।

परमात्मा के प्रति विस्मरणशीलता दूर करने का उपासना से अच्छा और कोई उपाय नहीं है। जप, तप, पूजा, अर्चना आदि के जो भी विधान बनाए गये हैं, वे सब परमात्मा को अपने स्मृति-पटल पर बनाये रखने के लिये ही बनाये गये हैं। नित्य-प्रति जब नियत समय पर उपासना की जायेगी तो परमात्मा की स्मृति हृदय-पटल पर उसी प्रकार अंकित हो जायेगी, जिस प्रकार बार-बार याद करते रहने पर किसी बालक की गिनती अथवा पहाड़ा याद हो जाता है। किसी का संपर्क उसकी स्थायी याद के लिये सबसे बड़ा कारण है। हमें अपने परिवार और कुटुम्ब के लोग औरों की अपेक्षा अधिक याद क्यों रहते हैं? इसीलिये कि उनसे हमारा सतत् और घनिष्ठ संपर्क बना रहता है।

यह एक मनो-वैज्ञानिक सत्य है कि हम जिसके संपर्क में जितना अधिक आते हैं, उसके विषय में उतनी ही गहराई से जान जाते हैं। उसके वास्तविक स्वरूप से हमारा घनिष्ठ परिचय हो जाता है। कोई भी उपासना द्वारा जब परमात्मा के सतत् संपर्क में रहेगा तो अवश्य ही एक दिन उसके सत्यस्वरूप को जान ही जायेगा। परमात्मा को साक्षी करते ही उसे अपना सत्य स्वरूप स्मरण हो उठेगा। अपने आनंद रूप सत्यस्वरूप को जानते ही मनुष्य की सारी दुःखद अनुभूतियाँ दूर हो जायेंगी और वह सदा-सर्वदा के लिये अपनी स्वाभाविक अनुभूति में स्थिर हो जायेगा।

सुख की अनुपस्थिति ही दुःख का कारण है। किन्तु इस प्रकार जब कोई आनन्द रूप हो जायेगा, तब उसके पास किसी भी परिस्थिति में दुःख का कोई प्रयोजन ही न रह जायेगा। उस स्थिति में सुख तो सुख, दुःख भी सुख-रूप आभासित होने लगेगा।

संसार के समस्त आघातों को दूर करने के लिये अपने सहज एवं आनंदस्वरूप का स्मरण आवश्यक है। आत्मस्वरूप देखन के लिए परमात्म रूप दर्पण अपेक्षित है, परमात्मा की प्राप्ति सूक्ष्म-चिन्तन एवं मनन द्वारा ही हो सकती है। चिन्तन की यह सूक्ष्मता हृदय की गहराई से और हृदय की गहराई प्रेम द्वारा और प्रेम की उत्पत्ति सम्पूर्ण आत्म-समर्पण द्वारा ही सम्भव है। और इन सब का आदि सूत्र उपासना ही है। इस आध्यात्मिक क्रम को उपासना से प्रारम्भ कर दुःखों के आत्यांतिक अभाव तक आसानी से पहुँचाया जा सकता हैं

किन्तु यह उपासना प्रगतिवती हो तभी सकती है, जब इसका स्वरूप विशुद्ध आध्यात्मिक होगा। जो परमात्मा को छोड़कर अन्य किसी प्रयोजन से पूजा-पाठ या जप-तप किया करते हैं, उनकी वह उपासना वाँछित दिशा में फलीभूत नहीं होती। यद्यपि लोग सुख पाने के लिये ही सकाम उपासना किया करते हैं, तथापि यह उल्टा प्रयत्न ही है। सकाम उपासना करने का अर्थ है, अपने जीवन में और अधिकाधिक दुःखों की इच्छा करना। एक तो कामनायें यों भी दुःख का बहुत बड़ा हेतु हैं। फिर यदि उपासना द्वारा किसी ने अपनी लौकिक कामनाओं की सिद्धि भी करली, तब भी उसके दुःखों का अन्त कदापि न हो सकेगा। वह धन-दौलत, पुत्र-पौत्र पायेगा, शक्ति और सम्बल का अर्जन कर लेगा। किंतु वह सकाम उपासक यह कभी नहीं सोचता कि इन सब लौकिक लाभों के उपयोग अथवा उपभोग का परिणाम क्या होगा, वही विस्मरण, अज्ञान और अन्धकार डडडडडडडडडड।

ऐसी दशा में वह अपने दुःखों की नितान्त निवृत्ति की आशा कैसे कर सकता है। वह तो घूमघाम कर फिर उसी दुःख-दर्द के चक्र में पड़ जायेगा। चूँकि लौकिक कामनाओं के अनुसार वह जिन विभूतियों को माँगेगा और पायेगा, वे सब अपने निसर्गानुसार नश्वर ही होंगी। एक दिन उनका नष्ट हो जाना निश्चित है और वे एक शोक-सन्ताप देकर नष्ट हो भी जायेंगी। सकाम उपासना करना ठीक वैसी ही गलती है, जैसे कोई अनजान व्यक्ति रत्नोपम वस्तु का विनियम किसी रंगीन काँच से कर लेता है। जिस उपासना के आधार पर सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा और परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है, उसके लिये उन भौतिक वस्तुओं का क्या माँगना जो किसी पुरुषार्थी व्यक्ति के हाथों का मैल कही गई हैं। उपासना कीजिये, निष्काम उपासना और उसके उपहार स्वरूप त्रिदानन्द की उपलब्धि कर सदा-सर्वदा के लिये संसार के दैहिक, दैविक और भौतिक पाप तापों से उस पार उतर जाइये।


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