पांडिचेरी के प्रधान न्यायाधीश लुई जकालिफ्ट ने गुप्त विद्या की जानकारी के लिए सारे भारत वर्ष में भ्रमण किया-18 जनवरी 1866 को वे बनारस पहुँचे और पेशवा के महल में ठहर गये। त्रिवेन्द्रम का एक साधु भी गंगा तट पर पेशवा के महल में ठहरा था। उसका नाम था गोविन्द स्वामी।
एक दिन श्री जकालिपट ने उक्त साधु को कुछ चमत्कार दिखाने के लिये राजी कर लिया। साधु ने कई प्रकार के करिश्मे दिखाये, उसका वर्णन भी जकालिपट इस प्रकार करते हैं-
साधु पालथी मारकर बैठ गये। कई फुट की दूरी पर रखे हुए काँसे के कलश की ओर उन्होंने हाथ बढ़ाया, यद्यपि यह उसे छू नहीं लगा सकते थे, तो भी पाँच ही मिनट में इतना वजनदार कलश अपनी पेंदी से चारों ओर हिलने-डुलने लगा। फिर धीरे-धीरे साधु की ओर चलने लगा। जब थोड़ा ही अन्तर रह गया, तो कलश से विचित्र प्रकार की ध्वनियाँ निकलने लगीं। जबकि उसके अन्दर कोई यन्त्र नहीं था, केवल ऊपर तक पानी भरा था। फिर साधु ने उसे पीछे जाने का आदेश दिया। आश्चर्य कि कलश फिर अपनी जगह पर लौट गया। मेरे कहने पर उन्होंने कलश से ढोलक आदि अनेक वाद्य-यन्त्रों की स्वर लहरियाँ निकालीं। मैंने कहा अब 10-10 सेकेंडों के अन्तर से आवाजें चाहियें। घड़ी मिलाकर देखता तो आश्चर्य-चकित रह गया कि ठीक दस सेकेंड होने पर आवाज आती। इसके बाद उससे पूरे गीत की संगीत ध्वनि निकली, एक बार सारा घड़ा उलट-पुलट हो गया, पर पानी की एक बूंद भी नीचे न गिरी।
मेरे पूछने पर साधु ने बताया- ‘‘शरीर में ऐसी शक्ति विद्यमान है, जो बिना किसी भौतिक संपर्क से वस्तुओं को हिला-डुला सकती हैं, ठोस पिन्डों में गति उत्पन्न कर सकती है। वह किसी के मन की बात जानने और शाप, वरदान तक सफल करने में समर्थ है।