आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय

December 1968

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इस संसार में भौतिकतावादी भी रहते हैं और अध्यात्मिक व्यक्ति भी। आकार प्रकार में भी उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं होता। दोनों ही सामान्यतः समान रूप से खाते-पीते, सोते-जागते और काम-काज करते हैं। शारीरिक बनावट और मानवीय वृत्तियों में भी काई विशेष अन्तर नहीं होता। दोनों ही गृहस्थ बसाते हैं। दोनों साधारणतः एक जैसी परिस्थितियों में रहते और व्यवहार करते हैं। विपत्ति, सम्पत्ति, सुख-दुःख और उत्थान-पतन का काल-चक्र दानों को छूकर गुजरता है। दोनों के सामने हंसने और रोने के अवसर आते हैं और वे हंसते भी हैं और रोते भी हैं। साधारण रूप से देखने पर भौतिक ड़ड़ड़ड़ आध्यात्मिक व्यक्तियों में कोई अन्तर दिखाई नहीं ड़ड़ड़ड़। दोनों प्रकार के व्यक्ति एक जैसे दीखते और व्यवहार करते दृष्टिगोचर होते हैं। तथापि उनमें आकाश-पाताल का अन्तर होता है।

भौतिक और आध्यात्मिक व्यक्ति बाह्य आकार-प्रकार से मनुष्य ही होते हैं और साधारण दृष्टि से उनके बीच कोई अन्तर नहीं होता। उनके बीच जो मूल अन्तर होता है वह होता है आचार-विचार और जीवन के प्रति दृष्टिकोण का। भौतिक व्यक्ति लोभ और वितृष्णाओं से डडडड अधिकतावादी और आध्यात्मिक व्यक्ति संतोष डडडड होने से ‘उत्कृष्टतावादी’ होते हैं। जिसे अपने विषय ड़ड़ड़ड़ निश्चय करना हो कि वह वस्तुतः आध्यात्मिक व्यक्ति है अथवा भौतिक व्यक्ति, वह अपने आचार-विचार डडडड तटस्थ, होकर निरीक्षण करे और पता लगाये कि डडडड वृत्ति अधिकता की ओर जाती है अथवा उत्कृष्टता ड़ड़ड़ड़ ओर। यदि उसकी वृत्ति अधिकता की ओर जाती है, तो उसे निःसंकोच-भाव से स्वीकार कर लेना चाहिये कि वह भौतिक व्यक्ति है। और यदि वह पाये कि उसकी डडडड अधिकता में न होकर उत्कृष्टता में है, तो उसे ड़ड़ड़ड़ होकर परमात्मा को धन्यवाद देना चाहिये कि डडडड आध्यात्मिक वृत्ति का मनुष्य है। उसे अधिकार है कि वह अपने पर प्रसन्न हो और विश्वास कर ले कि उसका भविष्य उज्ज्वल है।

सामान्यतः लोग आस्तिक होते हैं और बहुत बार कुछ न कुछ भजन-पूजन और उपासना-अनुष्ठान भी करते रहते हैं। यह बातें बहुत कुछ इस बात की शिफारिस करती हैं कि ऐसे लोग अपने को आध्यात्मिक व्यक्ति मान लें। लेकिन यह मान लेने में भय न करना चाहिये कि मनुष्य की यह क्रियायें ही आध्यात्मिकता का प्रमाण नहीं हैं। आध्यात्मिकता वास्तव में वह आत्म-गौरव, आत्म-सन्तोष और आत्म-शाँति है, जो किन्हीं भी कार्य-व्यवहारों में उत्कृष्टता के समावेश से उत्पन्न होता है। यदि सच्ची भावना से विरत रहकर चार-चार घंटे भजन-पूजन किया जाय, अनेक यज्ञ अनुष्ठानों का आयोजन किया जाय, धर्म-कर्मों की झड़ी लगादी जाय, तो भी आध्यात्मिक उपलब्धि का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता और न ऐसा अन्यमनस्क धार्मिक व्यक्ति आध्यात्मिक ही माना जा सकता है। इससे भिन्न यदि कोई व्यक्ति भावनापूर्वक श्रेष्ठ साधनों तथा उत्कृष्ट उद्देश्य के साथ आध घण्टे भी भजन-पूजन कर लेता है, छोटा-सा अनुष्ठान पूरा कर लेता है, तो निश्चित रूप से वह आध्यात्मिक माना जायेगा और उसका अध्यात्म-परक प्रयोजन भी पूरा हो जायेगा। अध्यात्म का सम्बन्ध क्रियाओं की अधिकता से नहीं उनकी श्रेष्ठता तथा उत्कृष्टता से है।

अधिकता का लोभ छोड़कर उत्कृष्टता की ओर अग्रसर होने में आत्म-कल्याण की बड़ी गहरी सम्भावनायें सन्निहित हैं। आधिक्यवादी व्यक्ति बहुधा संसार-लोलुप होते हैं। उनकी इच्छा रहती है कि वे संसार-भोगों को अधिकाधिक मात्रा में भोगें। संसार की संपत्ति का अधिक से अधिक भाग उनके अधिकार आ जाय। संसार लोलुप जब आय की कामना करता है, तो उसकी असीमता में वह जाता है, किसी संख्या अथवा मात्रा में उसे संतोष नहीं होता। सौ के बाद हजार और हजार के बाद लाख- इसी तरह उसकी वित्त-वितृष्णा प्रसार पाती चली जाती है। जब वह मकान की कामना करता है तो चाहता है कि हो सके तो हर शहर और हर मोहल्ले, में उसकी कोठियाँ और हवेलियाँ हों। सवारियों की कल्पना करता है, तो बग्घी से लेकर स्थल, जल और वायु में चलने वाली हर सवारी चाहा करता है। भोजन और वस्त्रों के विषय में वह हर प्रकार और मूल्य की ओर उसकी जिज्ञासा दौड़ जाती है। सन्तानों से तो उसका जी भरता ही नहीं। तात्पर्य यह कि भौतिक अथवा संसार-लोलुप का विस्तारवाद किसी क्षेत्र में अपनी सीमा निर्धारित नहीं करना चाहता। वह संसार का सब कुछ अपने पक्ष में अधिकाधिक चाहा करता है।

यह बात ठीक है कि उपलब्धियों की एक निश्चित सीमा नहीं बाँधी जा सकती और न बाँधना ही चाहिये। इससे उन्नति, विकास और प्रगति में व्यवधान पड़ता है। अधिकाधिक उन्नति करना मनुष्य का लक्ष्य होना ही चाहिये। तथापि उसे अपने इस विस्तार अथवा आधिक्यवाद वर कुछ प्रतिबन्ध लगाने ही होंगे। ऐसा किए बिना वह अपने शस्त्र से आप घायल हो जायेगा, अपनी उन्नति से आप पतित हो जायेगा।

उन्नति और प्रगति पर लगाने योग्य प्रतिबन्ध है ‘उत्कृष्टता’। मनुष्य जिस सीमा तक चाहे उन्नति और विस्तार करता चले किन्तु इस बात का ध्यान रखे कि उसकी उस विस्तार गति में उत्कृष्टता का सन्निवेश बना रहे। आर्थिक विस्तार में उसे चाहिये कि वह कोई ऐसा व्यवसाय न करे जो निम्नकोटि का हो। लाभ के लिये असत्य, अशुद्धता व विश्वासघात का सहारा न ले। धोखा, ठगी, मक्कारी और कपट से अपने कार्य-कलापों को बचाये रहे। व्यापार में सच्चाई का व्यवहार करे, वस्तुओं की शुद्धता सुरक्षित रखे। उचित मुनाफा और लाभ कमाये। अपने व्यवसाय की उन्नति तथा प्रगति के लिये न तो अनुचित साधनों का प्रयोग करे और न गर्हित उपायों का अवलम्बन ले। साथ ही इस बात का ध्यान रखे कि उसका विस्तार किसी के ह्रास का कारण न बने और न शोषण अथवा परपीड़न का आधार लेकर ही आगे बढ़े। इस प्रकार की पवित्रता रखकर जो और जितना भी विस्तार किया जायेगा, वह श्लाघ्य ही होगा। इसके विपरीत जिस विस्तार अथवा विकास का आधार असत्य, अशुद्धता, शोषण और परपीड़न होगा, वह गर्हित तथा अवांछनीय माना जायेगा। इस प्रकार का निकृष्ट तथा अवांछनीय विस्तार मनुष्य के पतन का कारण बनता है। लोक-परलोक का कल्याण नष्ट कर देता है।

वह छोटी-सी प्रगति भी जो श्रेष्ठता और उत्कृष्टता अलंकृत हो, उस विशाल विस्तार की अपेक्षा कहीं अधिक शुभ, कल्याणकारी, महान् और वाँछनीय है, जो निकृष्ट उपायों को आधार बनाकर किया गया है। ‘थोड़ा किन्तु उत्कृष्ट’ एक ऐसा दिव्य सिद्धांत है, जो लोक से लेकर परलोक तक और भौतिकता से लेकर आत्मा तक सारे क्षेत्र में होने वाली क्रियाओं और उनके फलों को आध्यात्मिक बना देता है।

अधिकता का ध्येय लेकर चलने वाले कई लोग यदि उत्कृष्टता की रक्षा कर लेते हैं, तो यह सहता नहीं बल्कि एक अपवाद होगा। वैसे विस्तारवाद अथवा आधिक्यवाद में निकृष्टता की सम्भावना स्वाभाविक है। यही कारण है कि ज्ञानियों, विद्वानों और मनीषियों ने मनुष्यों को डडडड की शिक्षा दी है और तृष्णा, एष्णा और लोभ का निषेध किया है। अन्यथा वे- व्यक्ति और समाज के उत्थान का समर्थक विद्वान अप्रगति अथवा सीमाबद्धता के काँक्षी डडडड हो सकते। उन्होंने मनुष्य की अतिवादी और विस्तारवादी नीति का निषेध उनकी प्रगति अवरुद्ध करने के मन्तव्य से नहीं बल्कि इसलिये किया है कि लोभ और वितृष्णाओं तक वशीभूत विस्तारवाद में पड़ने वाला व्यक्ति जीवन ड़ड़ड़ड़ उत्कृष्टता की रक्षा नहीं कर पाता। यह स्खलन मनुष्य ड़ड़ड़ड़ उस आत्मा के लिए बड़ा अहितकर होता है, जो जीव का सर्वश्रेष्ठ सार और व्यक्ति की सबसे बड़ी सम्पदा मानी गई है। वह वैभव, वह संपत्ति, वह ऐश्वर्य, वह प्रतिभा, वह महानता और वह विस्तार आदि सारी उपलब्धियाँ, जिनका आधार आत्मघातिनी निकृष्टता रही हो उन्नति रूप में महान पतन ही होती है। जिसकी आत्मा गिर कर मलीन और निस्तेज हो गई, वह इन्द्रपद पाकर भी डडडड ही रहेगा, सर्वस्ववान होकर भी निकृष्ट बना रहेगा। डडडड उन्नति- उन्नति है, जो अस्तित्व के साथ व्यक्तित्व की डडडड संराधिका हो अन्यथा वह उस सोने के समान ही अग्राह्य डडडड जिसे पहनने से कान ही कट जायें।

ऐसा समझना कि भौतिकवाद कोई अपशब्द है अथवा भौतिकवादी कोई पापी लोग होते हैं, ठीक नहीं। मानव-जीवन में भौतिकवाद भी आवश्यक है। मनुष्य शरीर का जन्म ही पंच-भौतिकता से हुआ है। उसकी आवश्यकतायें भी भौतिक हैं। जिनकी पूर्ति भी भौतिक आधार पर ही हो सकती है। कोरा अध्यात्मवाद शरीर यात्रा को पूरा नहीं कर सकता। संसार में भौतिकता की भी आवश्यकता है किन्तु उसी सीमा तक, जहाँ वह आत्मा का क्षेत्र प्रभावित न कर सके। भौतिकता की आवश्यकता शरीर निर्वाह तक है, उसके आगे जब उसमें अतिशयता, आधिक्य अथवा विस्तार का दोष आ जाता है, तो यही शरीर निर्वाह की आवश्यकता अनुचित और अवांछनीय बन जाती है। शरीर डडडड उस निर्वाह के लिये, वस्तुतः जितने की आवश्यकता डडडड मनुष्य को कोई भी ऐसा काम करने की डडडड नहीं है, जिसका प्रभाव आत्मा पर कलुष फेंकने वाला हो।

यदि आवश्यकता भर भौतिकता को साथ लेकर ड़ड़ड़ड़ जीवन-यात्रा में चला जाय तो उससे आत्मा को किसी डडडड की हानि नहीं पहुँचती और भौतिकता का वह ड़ड़ड़ड़ कलुष निर्वाह जिससे आत्मा प्रभावित नहीं होती, ड़ड़ड़ड़ ही कही जायेगी। अध्यात्म संसार से अलग ड़ड़ड़ड़ विचित्र वस्तु नहीं है। वह उत्कृष्टता से अलंकृत ड़ड़ड़ड़ का एक दृष्टिकोण है, जिसके समावेश से क्या ड़ड़ड़ड और क्या आत्मिक कोई भी विषय अथवा व्यवहार ड़ड़ड़ड ही बन जाता है।

जीवन-यात्रा के लिये आवश्यक साधनों से आगे बढ़ ड़ड़ड़ड जब मनुष्य ‘आधिक्य’ अथवा विस्तार को अपना लक्ष्य ड़ड़ड़ड भौतिकवाद का उपासक बन जाता है और आत्म ड़ड़ड़ड की उपेक्षा करने लगता है, तब ऐसे निकृष्ट भौतिक ड़ड़ड़ड शब्द अवमाननापूर्वक उच्चारण किया जाता है ड़ड़ड़ड ऐसे ही निकृष्ट भौतिकवादी को निम्न दृष्टि से देखा ड़ड़ड़ड है। उत्कृष्टता द्वारा आत्मा की रक्षा करते हुए, जो ड़ड़ड़ड भी भौतिक उन्नति कर सकता है करे। ऐसा ड़ड़ड़ड और पवित्र व्यक्ति बाहर से भौतिक अथवा साँसारिक दीखता हुआ भी वस्तुतः आध्यात्मिक ही होता है। ऐसे महान् संसारियों का श्रेय-पथ सदैव निष्कंटक और निरापद रहता है।

किन्तु भौतिकता द्वारा अध्यात्म की साधना एक दुःसाध्य काम है। न तो यह साधना सामान्यतः की जा सकती है और न सर्व-साधारण इसे सुरक्षापूर्वक कर सकते हैं। इसीलिये समाज के शुभेच्दु ऋषि-मुनियों ने अनुभव और साधना के आधार पर यह सिद्धान्त स्थिर किया है कि मनुष्य को भौतिक वितृष्णाओं से दूर रहकर सन्तोषपूर्वक जीवन निर्वाह की शर्तें पूरी करते हुए, इस प्रकार जीवन-यापन करना चाहिये, जिससे संसार भी निभाता चले और आत्मा की भी रक्षा होती चले। इसी सिद्धान्त को ‘थोड़ा पर उत्कृष्ट’ के कतिपय शब्दों में भी व्यक्त किया जा सकता है।

जो अधिकता के स्थान पर उत्कृष्टता का ध्यान कर संसार में रमण करते हैं, वे वितृष्णाओं के संकट से बचे रहते हैं। उनका शरीर और आत्मा, लोक और परलोक साथ-साथ ही प्रेय और श्रेय दोनों के द्वारा समान रूप से सुशोभित और आनन्दित हो चलता है। अस्तु हम सबको अधिकता की वितृष्णा त्यागकर उत्कृष्टता को ही ग्रहण करना चाहिये। इस वाँछनीय ग्रहण द्वारा हमारा भौतिकवाद भी अध्यात्मवाद की तरह ही सुख एवं शाँतिदायक बन जायेगा।


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