समाज से विलग अस्तित्व नहीं :-
कौत्स्य से उनके एक गुरुभाई नीरभ्र बहस कर रहे थे। कौत्स्य का मत था कि संन्यासियों तथा संसारियों, सभी को अपने जीवन में लोक-सेवा तथा परमार्थ को प्रमुख स्थान देना चाहिये, इसी से जीवन का वास्तविक उद्देश्य सिद्ध होता है। नीरभ्र का मत था कि अपने आत्म-कल्याण, पूजा, उपासना द्वारा आत्मा की मुक्ति के प्रयास को जीवन में प्रथम स्थान देना चाहिये। एक दूसरे को समझाने का, अपनी बात प्रमाणित करने का प्रयास चल रहा था।
अन्त में नीरभ्र ने तर्क प्रस्तुत किया- “आत्मा को बन्धन मुक्त करना परम लक्ष्य है। लोक सेवा आदि तो अज्ञान जनित माया की भ्रान्तियाँ हैं।”
कौत्स्य का उत्तर था- “आत्मा तो परमात्मा का अंश होने के नाते सहज मुक्त है। उसे मुक्त कराने की कल्पना भी क्या माया की भ्राँति नहीं?”
इतना विवाद हो लेने के पश्चात भी कोई पक्ष संतुष्ट नहीं हुआ। आश्रम की परिचारिका दीपा ने सारी बातें सुनी और जाकर आचार्य देवदत्त से कह दीं। देवदत्त बहुत देर तक उस पर विचार करते रहे फिर कुछ सोचकर एक ओर चल दिये।
सायंकालीन आरती समाप्त हुई और सभी स्नातक भोजनशाला की और चल पड़े। नियमपूर्वक सबको भोजन परोसा गया, एक नीरभ्र ही ऐसे विद्यार्थी थे, जिनके पास अब तक भी थाली नहीं पहुँची थी। हाँ, इसी समय परिचारिका ने एक पत्र दिया- नीरभ्र ने उसे खोलकर पढ़ा- आचार्य देव के अक्षर थे, लिखा था- “यदि अन्न देने वाला अन्न देने से इन्कार कर दे तो क्या आप अपना विद्याभ्यास जारी रख सकते हैं? क्या मुक्ति आपका जीवन ध्येय है औरों का नहीं? यदि हाँ तो क्या आपका यह उत्तरदायित्व नहीं कि आप समाज की वह सेवा करने के लिये तत्पर हों, जिससे वह भी उस शाश्वत लक्ष्य का अनुगमन कर सके?”
जो बात तब समझ में न आई थी, वह अब आ गई और उसके साथ ही भोजन का थाल भी।