धर्म ही सच्चा विज्ञान- वैज्ञानिकों के उपाख्यान

December 1968

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एक बार सर आइजक न्यूटन से उनके एक मित्र ने प्रश्न किया- ‘‘धर्म के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है?” तो उन्होंने गम्भीर होकर कहा-

“मुझे नहीं पता मेरे प्रति लोगों की भावनायें क्या हैं? लोग विद्वान समझें यह उनकी कृपा, किन्तु जब मैं अपने सम्बन्ध में विचार करता हूं, तो ऐसा लगता है कि अज्ञ अल्पवय बालक की तरह किसी समुद्र के किनारे खेल रहा हूं। ज्ञान कण जो मैंने पाये हैं, वह अथाह सागर की सीपियों की तरह हैं, जो न तो अथाह हैं, न अन्तिम। जो अथाह और असीम है, वही शाश्वत और सत्य है, उसका रहस्य मैं समझ नहीं पाता हूँ।”

न्यूटन जैसा महान वैज्ञानिक जब उस असीम सत्ता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका, तो उसने अपनी विद्या का अहंकार त्याग दिया। किन्तु आज के अल्प-बुद्धि व्यक्ति अहंकार के वशवर्ती होकर अपना और समाज का जीवन किस तरह विश्रृंखलित कर रहे हैं, यह सर्वविदित है। ज्ञान के लिये श्रद्धा आवश्यक है, जो श्रद्धालु नहीं, वह धार्मिक नहीं। धर्म वेत्ता के लिये निरहंकार होना आवश्यक है। वह तो कोई और ही शक्ति है, जो विश्व की महान व्यवस्था पालन और सृजन में समर्थ है।

एटामिक फिजीसियन लीज मिटनर कहते हैं- ‘‘मनुष्य से भी कोई ऊँची शक्ति है, वही परमाणु शक्ति पर नियन्त्रण कर सकती है।” यह ठीक है कि श्री लीज का कार्य क्षेत्र अणु शक्ति की ही खोज रहा है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे धर्म विमुख हो गये हों, उक्त कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है। हम भी तो यही मानते हैं कि परमात्मा परमाणु शक्ति से भी कोई सूक्ष्म सत्ता है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नियम और व्यवस्थापूर्वक संचालन करती है।

पिछले दिनों के धर्म-वेत्ताओं की एक महान भूल यह हुई कि उन्होंने विज्ञान को धर्म का विरोधी बताकर सामान्य जनता को भ्रम में डाल दिया। मानव-जीवन की सुख-शाँति के लिये यद्यपि विज्ञान अपूर्ण है, किन्तु वह तो धर्म विमुख है और न अनुपयोगी। यदि विज्ञान को पूरक मानकर धर्म का विवेचन किया गया होता, ड़ड़ड़ड़ धार्मिक मान्यताओं- आस्तिकता, ईश्वर विश्वास, कर्मफल, पुनर्जन्म, परलोकवाद की मान्यतायें असत्य नहीं कही डडडड वरन् उनकी सत्यता के प्रमाण ही निकलते। महान विद्वान वैज्ञानिक माइकेल रैक्जे आर्कबिशप आफ कैन्टर लिखते हैं- ‘‘पिछली शताब्दी के इतिहास से मालूम होता है कि धार्मिक विचारों वाला व्यक्ति अधिक गलतियाँ ड़ड़ड़ड़ सकता है, क्योंकि धर्म को सच्चा सिद्ध करने के लिए पूर्व का आश्रय लिया गया, जबकि आवश्यकता थी वैज्ञानिक तत्वों के समावेश की। वही बात विज्ञान के लिये भी डडडड उसे यदि धर्म-संगत न बनाया जाय, तो वह भी मनुष्य डडडड विनाश की ओर ले जायेगा। धर्म और विज्ञान दोनों डडडड पास-पास रहना चाहिये।”

विज्ञान और धर्म के क्षेत्र अलग-अलग हैं। ड़ड़ड़ड़ परिभाषा और कार्य प्रणाली अवश्य है, विज्ञान ड़ड़ड़ड़ भूत है, धर्म श्रद्धा का परिणाम किन्तु दोनों का डडडड मिलन बिन्दु है, जहाँ विज्ञान थक जाता है, उससे डडडड भावनायें ले जाती हैं। भावनायें थक जाती हैं, डडडड विज्ञान प्रादुर्भूत हो जाता है। इनमें से न तो ड़ड़ड़ड़ विज्ञान ही और न धर्म ही सन्तोष प्रदान कर डडडड यही बात फिजीसियन आर्थर कामटन ने इस प्रकार कही है-

“विज्ञान और धर्म के बीच कोई मतभेद ड़ड़ड़ड़ है। विज्ञान वास्तविकता की खोज का सही ड़ड़ड़ड़ और धर्म द्वारा जीवन में संतुष्टि का रास्ता खोजा डडडड है। विज्ञान निःसन्देह उन्नति कर रहा है, किन्तु ड़ड़ड़ड़ संसार जो विज्ञान मय है, पहले से भी अधिक ड़ड़ड़ड़ प्रेरणाओं की आवश्यकता अनुभव कर रहा है, ड़ड़ड़ड़ विज्ञानमय जीवन में शाँति और सन्तोष का आनन्द और अधिक की थकावट है।

अध्यात्मोपनिषत् का ऋषि कहता है-

“सन्तः शरीरे निहितो गुहायामज एकोनित्यमस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवी मन्तरे संचरन यं पृथिवी न वेदा।........................।”

अर्थात्- शरीर के भीतर हृदय रूपी गुहा में एक ‘अजन्मा नित्य’ रहता है। वह पृथ्वी के भीतर रहता है पर पृथ्वी उसे नहीं जानती। मन-बुद्धि, अहंकार, चित्त से भी अत्यन्त सूक्ष्म जिसे न कोई मार सकता है, न खण्ड और विनाश कर सकता है, वही सर्वभूतों का अन्तरात्मा है, देह इन्द्रियाँ आदि अनात्म पदार्थ हैं।

यह शास्त्र वचन है, इसलिये उसे मान्यता नहीं दी जा सकती है, ऐसा विज्ञानवादी कहें किन्तु यदि कोई वैज्ञानिक ही उक्त तथ्य को स्वीकार करने लगे तब तो उसे न मानने का कोई कारण नहीं रह जाना चाहिये।

मिसाइल एक्सपर्ट श्री वर्नहर वान ब्रान कहते हैं- ‘‘विज्ञान ने यह सिद्ध कि पदार्थ का नाश नहीं किया जा सकता, इसलिये जीवन और आत्मा का भी नाश नहीं किया जा सकता है। आत्मा अमर है। मैं अमर आत्मा में विश्वास करता हूँ।’’

उपनिषदकार ने अपने उक्त कथन में आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए, उसे अजन्मा और नित्य कहा है, अर्थात् इस सृष्टि का जहाँ आदि-अन्त है, वहीं आत्मा का भी आदि-अन्त है और चूँकि ब्रह्मांड को कोई अन्त नहीं। सनातनकाल से ही एक सुस्थिर व्यवस्था चल रही है, इसलिये आत्मा अथवा परमात्मा भी सनातन हैं, एक व्यवस्था है। प्रसिद्ध वायोलाजिस्ट श्री एडविन काँकलिन का तर्क है- ‘‘यदि जीवन का निर्माण अकस्मात सम्भव है तो यह भी सम्भव है कि एक छापाखाने में अकस्मात् भड़ाका हो और सारे शब्द स्वयं व्यवस्थित होकर एक शब्द कोष बना दें।”

किन्तु ऐसा कभी कहीं भी सम्भव नहीं है। आत्मा कर्मफल के विधान के अनुसार रूप परिवर्तित करती है। न तो उसका नाश ही होता है और न ही कर्मफल मिटते हैं, अर्थात् कर्म की गति के अनुसार संसार-चक्र चल रहा है, जो अच्छे श्रेष्ठ एवं विचारपूर्ण कार्य करता है, वह ऊर्ध्वगामी लोकों का आनन्द प्राप्त करता है, पाप और मूर्खता की जिन्दगी जीने वाला अधोगामी स्थिति में चिन्ता और विक्षोभ के कारण दुःखी रहता है।

उपनिषदकार का मत है कि- प्रारब्ध फल की सत्यता के लिये प्रमाणों की आवश्यकता नहीं-

प्रारब्धं सिध्यति तदा यदा देहात्मना स्थिति। -अध्यात्मोपनिषत् 56,

अर्थात् प्रारब्ध कर्म तो उसी समय सिद्ध होता है, जब देह के ऊपर आत्म-बुद्धि प्रकाशित हो।

इस उपनिषद् में यह भी कहा है कि जिस तरह छोड़ा हुआ बाण बाघ को बेधे बिना नहीं रहता, उसी प्रकार कर्मकम से आत्मा वंचित नहीं रह सकता। इसमें विज्ञान को कोई सिफारिश चल नहीं सकती।

यदि विज्ञान की यह बात ही मानली जाये कि संसार में न तो कोई कर्मफल है और न कर्मफल का नियन्त्रण करने वाला ईश्वर है, तो भी फिजीसियन जार्ज डैविस की बात तो माननी ही पड़ेगी-

“यदि ब्रह्माण्ड ने स्वयं अपने को उत्पन्न किया है तो इसको बनाने वाले शक्ति-केन्द्र भी तो स्पष्ट नजर आते हैं, उदाहरण के लिये पृथ्वी की सारी गति-विधियाँ, रहन-सहन, उत्पादन, क्रियाशीलता सूर्य की गति पर आधारित हैं। ऐसी स्थिति में मानना पड़ेगा कि ब्रह्माण्ड स्वयं भगवान है।”

जार्ज डेविस माण्डूक्योपनिषद के प्रथम मंत्र के आख्यान से शत-प्रतिशत मेल खा जाते हैं। इस मंत्र में भी यही बताया गया है कि- ‘‘सम्पूर्ण जगत ही ब्रह्म है, विराट्-विश्व को परमात्मा का रूप मान लेने से ही साकार उपासना का उद्देश्य पूरा होता है। पर तब किसी से छल-कपट, अभद्र-व्यवहार पाप और अत्याचार नहीं किया जा सकता। संसार के प्रत्येक पदार्थ और प्राणी के प्रति ईश्वर जैसी श्रद्धा रखने से उसके प्रति सहज ही सेवा और सद्-व्यवहार की भावना जागृत होती है, यही भावना विश्व-शान्ति एवं आत्म-कल्याण का प्रधान आधार होती है।”

अब जो विज्ञान का तर्क देकर भौतिक सुखों और निज स्वार्थों तक ही सीमित रहने की बात सोचते हैं उनके लिये थ्योरिटिकल फिजीसियन अल्बर्ट आइन्स्टाइन का प्रवचन पढ़ना चाहिये। आइन्स्टाइन का कथन है- ‘‘वह आदमी जो अपने ही जीवन को महत्व देता है और आपने साथियों के जीवन को निरर्थक मानता है तो वह केवल अभाग्यशाली ही नहीं है, बल्कि जीवन के योग्य भी नहीं है।”

बायोलाजिस्ट अल्बर्ट विनचेस्टर जब परीक्षण और प्रयोग करते-करते थक गये, तो उन्हें भी कहना ही पड़ा- ‘‘भगवान में गहरी और सच्ची आस्था ही सत्यता की गहराइयों तक पहुँचा सकती है। विज्ञान की सीमा क्षेत्र तो पदार्थ तक ही सीमित है। किन्तु धर्म की मापकता उससे भी सूक्ष्म भावनाओं तक जा पहुँचती है, इसलिये धर्म ही सत्य है।”

धर्म का उद्देश्य मनुष्य को परमात्मा की समीपता का सुख और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति कराना है, इसलिये उसे जीवन में प्रमुख स्थान देकर ही मनुष्य स्थिर कल्याण की ओर अग्रसर हो सकता है। विज्ञान दृश्य जगत में सुख और सुविधायें बढ़ता है, इसलिये वह आवश्यक तो है पर प्रमुख नहीं। अदृश्य जीवन की आयु अनन्त है, अनन्त सुख के लिये लौकिक सुखों को- विज्ञान को प्रमुख मानना कोई बुद्धिमानी नहीं। हमें वह ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, जो परमात्मा की प्राप्ति कराये, इस बात को एस्ट्रोनामर श्री जोन्स केपलर महोदय स्वीकार करते हुए लिखते हैं- ‘भगवान ज्ञान स्वरूप है और हम उसके बारे में बहुत कम जानते हैं।’

न्यूटन से लेकर केपलर तक सभी महान वैज्ञानिक कक्षा ‘क’ के विद्यार्थी की तरह धर्म की पाठशाला में आ बैठते हैं। तो फिर शेष विश्व के लिये भी आत्म-शान्ति और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग धर्म ही रह जाता है, उसके विज्ञान लंगड़ा और अधूरा ही रहेगा। ऐतरेयोपनिषद् तृतीय अध्याय के दूसरे मंत्र में ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने का माध्यम ज्ञान, आदर्श विज्ञान, प्रतिज्ञान, मेधा दृष्टि, धैर्य, मनन, स्मृतः, संकल्प, गति, कामना आदि को बताया गया है। इनका विकास बाह्य पदार्थों से नहीं अन्तःवृत्तियों के द्वारा ही प्राप्त कर सकना सम्भव है। धर्म हमारी अन्तःवृत्तियों को जागृत और विकसित करता है, इसलिये उसका परित्याग कर हम जिन्दा नहीं रह सकते, विश्व-कल्याण के महान परिणाम भी उपलब्ध नहीं कर सकते।


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