तदात्मानं सृजाम्यहं (Kavita)

December 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

क्यों न चरण में दानवता लौटेगी होकर क्षार? जब कि रुद्र बन गरल पिया करता मैं बारम्बार॥

बढ़ी असुरता जब इस भू पर बढ़ा बहुत अभिमान। हार चला देवत्व एक क्षण, कठिन हो गया त्राण॥ तब मैंने ही अस्थि-पुंज का करके पुण्य प्रदान। दिखलाया वह पंथ, मनुजता का जिसमें कल्याण॥

त्याग, तपस्यामय जीवन है यद्यपि असि की धार। पर मैं उस पर ही चलता हूँ, सुख-सुविधायें वार॥

थी छोटी-सी बात, मगरकर दिया राज्य का त्याग। क्षण-भंगुर वैभव से मुझे न रहा कभी अनुराग॥ सोने की लंका में केवल लगी इसी से आग। स्वार्थ, असंयम, अनाचार ने खुल कर खेली फाग॥

वेध गई जब हृदय, विभीषण की अति करुणा पुकार। बहुत कष्ट झेले थे तब बदला था वह संसार॥

और एक दिन, जब दुरितों से थी यह भू बेहाल। महाधूर्त दुर्योधन ने थी चली स्वार्थमय चाल॥ उठना पड़ा मुझे ही उसका मर्दित करने भाल। रचना पड़ा महाभारत तब काट सका वह जाल॥

क्षुद्र, भोगमय स्वार्थ हेतु वे भूल गये थे प्यार। इसी हेतु निष्काम कर्म का करना है पड़ा प्रसार।

नास्तिकता बढ़ चली और जब मिटा धर्म-विश्वास। दूर बहुत हो गया क्षीण हो, सत्य, विवेक, प्रकाश॥ स्वार्थ घिरा जन-जन के मन पर, हुआ पुण्य का नाश। त्यागे राहुल और यशोधरा, चला काटने पाश॥

समझाया यह भव नश्वर है, जगत् भोग निःसार। ममता, प्रेम, दया, करुणा का, करो सभी विस्तार॥

जब भी धर्म नष्ट होता और बढ़ता है अज्ञान। स्वार्थ निरत हो तुच्छ कर्म करते हैं कुछ इंसान॥ लक्ष्य-बिन्दु से चरण भटकते, होते आकुल प्राण। तब-तब मैं करता रहता हूँ- सतत् गरल का मन।

मैं मानव हूँ, दिव्य तेज का स्रोत-शक्ति आगार। मेरे इंगित पर चलती जग-नौका की पतवार॥

*समाप्त*


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118