किन्हीं व्यक्तियों, समाजों तथा राष्ट्रों का उत्थान पतन का हेतु उतना बाह्य वातावरण नहीं होता, जितना कि उनका आन्तरिक वातावरण अथवा उनकी अपनी प्रवृत्तियाँ। यह बात सही है कि व्यक्ति पर समाज की अच्छाई बुराई का प्रभाव पड़ता है, किन्तु पड़ता उन पर ही है जो अन्दर से निर्बल होते हैं। जिसकी प्रकृति उत्तम है, स्वभाव उत्कृष्ट है और प्रवृत्तियाँ ऊर्ध्वगामिनी हैं, उस पर समाज की विकृतियों का निकृष्ट प्रभाव नहीं पड़ सकता। वह कीचड़ में कमल के समान और कमल पर पानी की बूँद के समान ही निर्लिप्त रहा करता है। इसी सिद्धान्त को कविवर रहीम ने एक दोहे में कहा है- “जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्याप्त नहीं लपटें रहत भुजंग।”
सामाजिक विकृतियों का प्रभाव उन दुर्बलमना व्यक्तियों पर ही पड़ता है जिनके पास अपनी विवेक बुद्धि, विचार शक्ति नहीं होती है। जैसा दूसरों को करते देखते हैं, अपना भला बुरा सोचे बिना खुद भी वैसा करने लगते हैं। यह वृत्ति भेड़-वृत्ति है। एक अगली भेड़ के कूयें में गिर जाने पर पीछे की सारी भेड़ें उसका अनुकरण कर कुएं में गिर जाया करती हैं। आत्मावान पुरुष-सिंहों को यह भेड़-वृत्ति शोभा नहीं देती। रोग उन्हीं पर आक्रमण करता है जिनका स्वास्थ्य कमजोर होता है। स्वस्थ व्यक्ति पर रोग के कीटाणु हावी नहीं हो पाते। रोगों के कीटाणुओं में अपनी शक्ति से अधिक व्यक्ति के निर्बल स्वास्थ्य का बल रहा करता है। यदि उनमें अपना निज का ही अमोघ बल रहा करता, तब किसी बीमारी के फैलने पर कोई भी निरोग न रहता, सभी रोगी हो जाते। पर ऐसा होता नहीं है। रोग से सामान्यतः प्रभावित होने वाले के लिए यह सोचा जा सकता है कि यह व्यक्ति स्वयं ही स्वस्थ नहीं था इसीलिये इस पर रोग की संक्रामकता का प्रभाव पड़ा है। पूर्ण स्वस्थ मनुष्य शीघ्र संक्रमित नहीं होता।
ठीक यही बात विकृतियों के संबंध में भी है। विकृतियाँ भी रोगों की तरह ही संक्रामक होती हैं। समाज में एक से दूसरे के बीच फैलती हैं। किन्तु उनके चुगल में फंस जाने वाले को इसे सहज, स्वाभाविक अथवा अनिवार्य प्रक्रिया नहीं मान लेना चाहिए। उसे समझ लेना चाहिए कि अवश्य ही उसका मन, उसकी वृत्तियाँ और उसका चरित्र निर्बल है तभी दूसरे की विकृति उसे प्रभावित कर सकी है। उसे अपने चारों तरफ देखने पर पता चलेगा कि उसी समाज एवं उसी वातावरण में अनेकों ऐसे सज्जन हैं जिन पर इन विकृतियों के संक्रमण का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे यथावत शुद्ध-बुद्ध और सुशील बने हुए हैं। किसी को अपने पतन का दोष बाह्य परिस्थितियों अथवा किसी अन्य को न देकर साहसपूर्वक उसका दायित्व अपने निर्बल अन्तःकरण को ही देना चाहिए। यही सोचने का सही ढंग है यही वह मार्ग है जिसके द्वारा को ही अपने कोई उत्तरदायी समझ कर आत्म सुधार में प्रवृत्त हो सकता है। दूसरों पर दोष थोपते रहने से आत्म सुधार की जिज्ञासा संभाव्य नहीं होती।
किन्तु खेद है कि आज समाज में निर्बल मनोभूमि वाले लोगों की ही बहुतायत है जिससे एक दूसरे के बाद अनेक विकृतियाँ समाज को घेरे ही चली जा रही हैं। ऐसी दशा में व्यक्तियों को स्वयं तो आत्म सुधार का प्रयत्न करना ही चाहिए, साथ ही सबल मनोभूमि के सत्पुरुषों को भी सामूहिक सुधार के लिए अपनी सेवायें समर्पित करनी चाहिए। सुधार-सुधार करने से ही होगा। रोग का निदान उपचार ही है, यों ही अपने आप उपाय किये बिना न कोई रोग दूर होता है और न विकृति।
भगवान तिलक ने एक स्थान पर कहा है-
‘व्यक्ति यद्यपि अपने आप में शक्तिवान एवं समर्थ है, किन्तु कोई विरले ही अपनी उस महता को समझने और कार्यान्वित कर सकने में समर्थ होते हैं। साधारणतया लोग गर्मी, सर्दी से मुरझाने, हरियाने वाले पौधों की तरह समाज के भले बुरे वातावरण से प्रभावित होते रहते हैं। यदि सामाजिक परम्परायें एवं मान्यतायें अच्छी होंगी निश्चय ही समाज के लोग सुसंस्कृति तथा सुविकि सित बनेंगे। इसके विपरीत यदि समाज में दुष्प्रवृत्तियों का बाहुल्य होगा तो लोगों का चरित्र एवं जीवन क्रम अस्त-व्यस्त होगा और वे दुःख-दारिद्रय, कष्ट क्लेशों के चुगल में फंसते चले जायेंगे। अतएव विज्ञ, विज्ञान, बुद्धिमान एवं सज्जनों का कर्त्तव्य है कि वे अपने समाज की स्थिति की बारीकी के साथ समीक्षा करें और जहाँ भी जिस प्रकार की विकृति देखें, उसे प्रयत्नपूर्वक सुधारने में तत्पर हो जायें।
जन-साधारण अपनी भेड़चाल के लिए बदनाम है। उनके पास अपनी स्वयं की वह बुद्धि विकसित नहीं होती, वह विवेक जागरुक नहीं होता जिसके आधार पर अपना पथ स्वयं प्रशस्त कर सकें अथवा भलाई-बुराई की समीक्षा कर उसका संग्रह त्याग कर सकें। उनके सामने बुरे लोग आ जाते हैं उनका अनुकरण करने लगते हैं, सत्पुरुष अथवा भले लोग आ जाते हैं तो उनसे प्रभावित होने लगते हैं। आज समाज की व्यापक विकृति का मुख्य कारण यह है कि बुरे लोग ही अधिक जन-साधारण के सम्मुख आये हुए हैं, मैदान में उतरे हुये हैं। जन-साधारण उनसे प्रभावित होकर विकारों, विकृतियों तथा अवाँछित प्रवृत्तियों को अपनाते हुये अपना सर्वनाश करते चले जा रहे हैं। स्वाभाविक है कि जो सामने आयेगा, मैदान हाथ में लेगा-वह प्रभाव डालेगा ही।
एक तो दैव दुर्विपाक अथवा सामाजिक दुर्भाग्य से सत्पुरुषों की संख्या ही बहुत अधिक नहीं है और कुछ सत्पुरुष हैं भी वे या तो समाज से दूर एकान्त में आत्म कल्याण की साधना में विश्वास किये बैठे हैं अथवा एक दर्शक की तरह तटस्थ भाव से अलग खड़े लीला देखते रहते हैं। बहुत से सत्पुरुष ऐसे भीरु स्वभाव के भी होते हैं जो समाज की विकृतियों से इस डर से संघर्ष में नहीं आते कि कोई विकृतियां उन्हें भी न पकड़ लें। और ऐसे विरागी व्यक्तियों की तो कमी नहीं है-जो हर उत्थान, हानि-लाभ, अच्छाई-बुराई को भगवान की इच्छा अथवा लोगों का कर्मभोग समझते हैं और उसमें दखल देने के लिए न तो अपने को अधिकारी समझते हैं और न हस्तक्षेप करना उचित ही। जैसा जो कुछ चल रहा है, चलने दिया जाये। ठीक होने को होगा ठीक हो जायेगा नहीं तो हरि इच्छा।
ऐसे साधु, सज्जन तथा सत्पुरुषों से क्या कहा जाये? उनकी क्या आलोचना की जाये? केवल इतना ही कहा जा सकता है कि एकान्त में आत्म-कल्याण की साधना में विश्वास रखने वाले उस स्वार्थी गृहस्थ की तरह, भौतिक न सही आध्यात्मिक स्वार्थी हैं जो घर में आग लगी होने पर असहाय स्त्री बच्चों की चिन्ता न करके सबसे पहले अपने बचाव का उपक्रम करता है। अलग से खड़े लीला देखने वाले तटस्थों को एक क्षण भी यह न भूलना चाहिए पड़ोस की आग से उपराम रहने वाले अपना घर भी जला लिया करते हैं। जिन विकृतियों को आज वे समाज को ग्रास करते देख रहे हैं, उनके प्रति उपेक्षा मान लिये बैठे हैं, वे विकृतियाँ उनकी उपेक्षा न कर सकेंगी और देर सबेर उन पर भी आक्रमण कर अशाँत एवं असन्तुष्ट बना देंगी। दुरित जब दुर्दमनीय हो जाते हैं तब समान भाव से अच्छे-बुरे, साधु-असाधु सबको धर लिया करते हैं। दिग्व्यापी अंधड़ चलने पर सभी प्रभावित होते हैं क्या वटवृक्ष क्या पौधे, सभी में कम्पन आता है और सभी समान रूप से धूल धूसरित हो जाते हैं।
स्वयं आक्राँत होने के डर से जो विकृतियों से लोहा लेने से दुबकते हैं उन सज्जनों को समझ लेना चाहिये कि अभी उनकी मनोभूमि कमजोर है, आत्म विश्वास की कमी है नहीं तो क्या आज तक अंधकार को प्रकाश पर हावी होते कहीं देखा सुना गया है। डॉक्टर यदि इस शंका से रोगियों के उपचार से विरत रहे कि कहीं कोई रोग उन्हें भी न लग जाये तो बेचारे रोगियों को मृत्यु के अतिरिक्त और कौन-सी गति शेष रह जायेगी। निर्विकार आत्मायें ही विकार ग्रस्तों की शोधक और सुधरे हुये ही बिगड़े हुओं के सुधारक होते हैं। सत्पुरुष ही समाज के त्राता हैं, उन्हें किसी भय, भ्रम अथवा आशंका से अपने इस नैतिक कर्त्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिये। यह उनकी सावधानी नहीं भीरुता अथवा पलायन ही कहा जायेगा।
समाज की हर अच्छाई-बुराई, उत्थान पतन को भगवान की इच्छा अथवा लीला समझ कर उसमें हस्तक्षेप को अनुचित मानने वालों को या तो इस ज्ञान का अभाव रहा करता है कि परमात्मा की इच्छा में विकृति नहीं होती। वह सदा शुद्ध एवं प्रबुद्ध है, अस्तु उसकी इच्छायें भी शुद्ध एवं प्रबुद्ध ही होती हैं। निर्विकार परमात्मा की इच्छा में विकार का क्या प्रयोजन? अथवा वे वाक्-चतुर ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपनी अकर्मण्यता अथवा उदासीनता को आलोचना का विषय बनने से बचाने के लिए अत्यान्तिक आस्तिकता का अनुचित सहारा लिया करते हैं।
अस्तु, कुछ भी सही आज समय की आवश्यकता है कि सज्जन एवं सत्पुरुष आगे आयें, मैदान में उतरें और पतनोन्मुख धावमान मनुष्यता की रक्षा विकृतियों, दुष्प्रवृत्तियों एवं दुष्टताओं से करें। आज अच्छाई बुराई का देवासुर संग्राम छिड़ ही जाना चाहिये, देवपुरुष सज्जनों को अपने-अपने क्षेत्रों में अपने योग्य मोर्चा संभाल लेना चाहिये। अपने सत्कार्यों सदाचरण एवं सद्वृत्तियों की मशालें लेकर निकलें और जहाँ-जहाँ अंधकार देखें उसे दूर करें। समाज की विकृतियाँ अब उस सीमा तक पहुँच चुकी हैं, जहाँ पर यदि उन्हें आगे बढ़ने से न रोका गया तो निश्चय ही भारत न रह जायेगा।
मनुष्यता बहुत अधिक मूल्यवान वस्तु है उसकी रक्षा करना प्रत्येक जागरुक व्यक्ति का परम कर्त्तव्य है। परमात्मा ने मनुष्य का निर्माण सज्जनता के ही उपकरणों से इसलिये किया है कि वह स्वयं तो दिव्य एवं अदीन जीवन जिये ही साथ ही अन्य प्राणियों को भी सुख शाँतिपूर्ण जीवन जीने में सहायता करे। उस निर्माता ने प्रत्येक मनुष्य से यह आशा की थी कि वह सृष्टि में सज्जनता, सद्भावना, सहयोग तथा साहाय्य का वातावरण उपस्थित कर उसे स्वर्ग बना देगा। किन्तु काल विक्षेप अथवा मानवता के दुर्भाग्य से आज मानव समाज ईश्वरीय आशा के विरुद्ध आचरण करने लगा है। जिन सौभाग्यवानों को अज्ञान, अंधकार अथवा अनाचरण से नहीं घेर पाया वे ईश्वरीय आशा को चरितार्थ करें। मानव समाज के सुधार में तत्पर होकर श्रेय के भागी बनें। जिनका पतन हो गया है या हो रहा है उनसे तो किसी बात की आशा की नहीं जा सकती, आशा केवल उनसे ही की जा सकती है, जो प्रभु कृपा से पतन से बचे हैं, जिन्हें अपने चरित्र एवं सद्वृत्तियों पर विश्वास है और जो यह समझते हैं कि अपेक्षाकृत उन पर दूसरों से अधिक ईश्वरीय अनुकम्पा है, जिससे उनके हृदयों में सद्भावनाओं शेषाँश विद्यमान है वे ही देवपुरुष पतनोन्मुख समाज का उद्धार कर सकते हैं। उन्हें मनुष्यता की इस आशा को पूरा करना ही चाहिये।
विकृतियों में अपनी न तो कोई शक्ति होती है और न धैर्य। उनका अस्तित्व ठीक उसी प्रकार अस्वाभाविक है जैसे प्रकाश के अभाव में अंधकार का। जिस समय समाज के सामने सत्-प्रवृत्तियाँ आने लगेंगी विकृतियाँ स्वयं ही भागने लगेंगी, विकृतियों का अस्तित्व निश्चय ही सत्-प्रवृत्तियों के गोपन के कारण हे। अच्छाई को सामने आने दिया जाये, भलमनसाहत को आगे बढ़ाया जाये, देखते ही देखते समाज का सुधार प्रारंभ हो जायेगा। जनसाधारण तभी तक बुराई को अपनाये हुए हैं जब तक बुराई उनके सामने है और अच्छाई के दर्शन नहीं होते। अच्छाई का दर्शन तो साधु संत तथा सज्जन पुरुष ही करा सकते हैं। वे किसी जगह किसी साधना में क्यों न लगे हों, समाज कल्याण के कर्त्तव्य का ध्यान रखें और अपने सुझावों, कार्यक्रमों एवं आदर्श चरित्रों से जनसाधारण को प्रकाश दें, राह दिखलायें। भारतीय समाज का नेतृत्व सदैव से धार्मिक पुरुषों ने किया है। जिस दिन से वे अपने इस अधिकार से उदासीन हो गये समाज का विकास एवं सुधार बंद हो गया। वे सावधान होकर अपने अधिकार को कर्त्तव्य समझ कर संभालें, बस समाज का कल्याण हो गया।