व्यक्ति का मूल्याँकन करने में उतावली न करें।

January 1967

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महाराज जनक के द्वार पर एक विचित्र-सा व्यक्ति आकर ठहरा और द्वारपाल से कहा कि महाराज को सूचित कर दो कि एक पर्यटक आपका साक्षात्कार करना चाहता है।

द्वारपाल उस विचित्र व्यक्ति को देखकर दूसरे साथियों के साथ जोर से हँस पड़ा। टेढ़ा, कुबड़ा, काला, कुरूप, नाटा और नंगा-भला देखकर कोई क्यों न हँस पड़ता।

द्वारपाल ने तिरस्कार करते हुए कहा-’जा-जा, महाराज से साक्षात्कार करेगा! जरा अपनी सूरत तो देख जाकर कहीं।’

आगन्तुक द्वारपाल की बौद्धिक योग्यता तथा तदनुकूल शिष्टाचार एवं सभ्यता का अनुमान रखता ही था। उसकी बात का बुरा न माना और फिर कहा-’आप जरा जाकर खबर तो कर दें। आगे महाराज की इच्छा, मिलने की अनुमति दें या न दें। सूचना करना आपका कर्तव्य है, उसे पूरा करिए।

एक दूसरे सेवक ने कहा-’जाकर कह भी दो। महाराज का भी मनोरंजन हो जाएगा। दरबार से निकाले जाने पर इसे शिक्षा हो जायेगी। आगे भविष्य में किसी राजदरबार में जाने का साहस नहीं करेगा।’ सेवकों ने आगन्तुक का अपने मापदण्डों से मूल्याँकन किया और पूरे विवरण के साथ महाराज जनक को सूचना दे दी। विवरण की विलक्षणता ने ही दरबार में आगन्तुक के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न कर दी। द्वारस्थ आगन्तुक दरबार में बुला लिया गया।

दरबार में आगन्तुक द्वारा पदार्पण करते ही इधर से उधर तक उपहासपूर्ण हँसी की एक लहर दौड़ गई। उसे अनायास फूटी हुई हँसी की लहर को राजसभा की मर्यादा भी न रोक सकी। आठ स्थानों से टेढ़ा-मेढ़ा काला-कुरूप, एक लंगोटी की अतिरिक्त नंग-धड़ंग आगन्तुक कुछ कम हास्यास्पद था भी नहीं। स्थिति के अनुसार महाराज जनक ने दरबारियों की अशिष्टता सहन कर ली। गम्भीर होकर आगन्तुक ने परिचय प्रकट किया-

‘मेरा नाम अष्टावक्र है। आपकी तथा आपके दरबारियों की विद्वता सुनकर सत्संग-लाभ के लोभ से आया था, किन्तु देखता हूँ कि आपके दरबार में चर्मदर्शी चमारों की ही बहुतायत है।’

महर्षि अष्टावक्र की बात सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया। हँसने वालों पर घड़ों पानी पड़ गया और सभी सिर झुकाकर मन-ही-मन पश्चाताप करते हुए सोचने लगे कि इसकी बाह्य-दशा के आधार पर मूल्याँकन में जल्दी कर हमने भूल की है।

महाराज जनक ने महर्षि का अभिनन्दन कर उचित आसन दिया और दरबारियों की ओर से उनकी इस अयोग्यतापूर्ण अशिष्टता के लिए क्षमा माँगी।

यह घटना मनुष्य के मूल्याँकन सम्बन्धी मापदण्ड पर प्रकाश डालती है। द्वारपाल से लेकर सभासदों तक सबने महर्षि अष्टावक्र के मूल्याँकन का मापदण्ड उनका बाह्याकार ही रक्खा। उन्होंने यह विचारने की बुद्धिमानी नहीं की कि हो सकता है इस टेढ़े-तिरछे शरीर में कोई गहन विद्या, महान् तेज और उज्ज्वल आत्मा निवास कर रही हो और इस प्रकार दृश्य आधार पर किया हुआ इसका अवमूल्यन उक्त गुणों का अपमान सिद्ध हो। क्योंकि मूल्य आकार का नहीं, आचार-विचार का ही होता है। निस्सन्देह दरबारियों से भूल हुई जिसका फल उनके अवमूल्यन के रूप में उनके सामने आया। राज-सभासद होकर भी चर्मपारखी चमार कहलाना पड़ा।

महाराज जनक धीर, गम्भीर, अंतर्दर्शी तथा मनुष्य के मूल्याँकन करने में कुशल विद्वान थे। वे मनुष्य की बाहरी अवस्था देखकर ही किसी को कुछ भी अनुमान न कर लेते थे। अन्य दरबारियों की तरह उन्होंने भी वह अष्टावक्र आकार देखा किन्तु हँसे नहीं, सोचने लगे। यदि इस व्यक्ति में साहस, आत्म-विश्वास, विद्या, बुद्धि, अनुभव आदि गुणों का अभाव होता तो मेरे दरबार में आकर साक्षात्कार करने की कल्पना भी न करता। यदि वह पीड़ित अथवा याचक होता तो द्वारपाल से वैसी सूचना भिजवाता। वंचक अथवा मूर्खों की इस दरबार में गम्य कहाँ? और यदि संयोगवश ऐसा हो भी तो दो शब्दों में ही प्रकट हो जायेगा। किसी के प्रति बिना परखे हीन या ओछे भाव बना लेने की अमानवीय मूर्खता क्यों की जाये? महाराज जनक का अनुमान ठीक निकला और वे मनुष्य के ऊँचे पारखी सिद्ध हुए। वे महर्षि अष्टावक्र का वंचित मूल्याँकन कर न केवल प्रशंसा के ही पात्र बने बल्कि दूसरों की दृष्टि में अपना महत्व बढ़ा गये।

आकार-प्रकार का नहीं मनुष्य का वास्तविक मूल्य उसके गुणों एवं आचार-विचार का होता है। बाहर के आधार पर मूल्याँकन करने वाले धोखा तो प्रायः खाया ही करते हैं, कभी-कभी मूर्ख भी सिद्ध होते हैं और तब उन्हें आत्म-ग्लानि, पश्चाताप तथा अपवाद का भी पात्र बनना पड़ता है। बाहर से स्वच्छ, शिष्ट तथा बहुमूल्य वेशभूषा देखकर बहुधा लोग प्रभावित होकर वञ्चकों तथा धूर्तों के चक्कर में फँस जाते हैं और बहुत बार बुरी तरह से ठगे जाते हैं। कई बार सन्तवेश से प्रभावित होकर कुटिल करनी वाले आडम्बरधारियों की पद-पूजा करने लगते हैं और बाद में विदित होने पर आत्म-ग्लानि की वेदना भी सहते हैं।

इसके विपरीत कभी-कभी निष्प्रभाव आकार-प्रकार अथवा वेश-भूषा देखकर लोग अनेक सन्तों, सत्पुरुषों तथा महापुरुषों का अपमान एवं अवमानना करके मूर्ख बनते और पश्चाताप की ज्वाला में जलते हैं। जैसा कि पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और महादेव गोविन्द रानाडे जैसे व्यक्तित्वों के साथ हुआ है। अस्तु, किसी का आकार-प्रकार देखकर ही उसका मूल्याँकन करना बुद्धिमानी नहीं है। महात्माओं के वेश में अपराधी और साधारण वेशभूषा में असाधारण पुरुष पाये जा सकते हैं। इस उलझन का हल यही है कि जब तक आवश्यकता अथवा प्रेरणा न हो, यों ही किसी के मूल्याँकन करने के लिये उत्सुक नहीं होना चाहिए। मनुष्य का मूल्याँकन एक अर्थ रखता है, केवल बौद्धिक कौतुक अथवा कुतूहल मात्र नहीं। आवश्यकता के अवसर पर ही मूल्याँकन करने का प्रयत्न कीजिए और यथासाध्य सही तथा ठीक रहने की कोशिश कीजिए।

किसी की बाह्य कृति कैसी भी हो, उसे मूल्याँकन का माप-दण्ड न बनाइए वेशभूषा एवं आकार-प्रकार से अप्रभावित रहकर निरपेक्ष भाव से उसके आचार-विचार का अध्ययन कीजिए। यदि उसके गुण मनुष्यता की कसौटी पर खरे सिद्ध होते हैं, वह अन्दर से महामना एवं आदर्श पुरुष सिद्ध होता है तो अवश्य ही आपके आदर का अधिकारी है। उसे आदर दिया ही जाना चाहिए। और यदि वह उस कसौटी पर खोटा उतरता है तो निश्चय ही उपेक्षा का पात्र है। सभ्यता के नाते निन्दा तो न करिये किन्तु तटस्थ अवश्य रहिए, फिर वह कितनी ही आकर्षक वेशभूषा का अथवा रूपवान क्यों न हो। इसे मनुष्य के मूल्याँकन की सही विधि कहा जा सकता है।

किसी के मूल्याँकन में उतावली करना मनुष्य की आन्तरिक क्षुद्रता का द्योतक में। किसी की बहुमूल्य वेशभूषा अथवा आकर्षक आकार-प्रकार देखते ही प्रभावित हो उठना अथवा वाह-वाह करते हुए प्रशंसा करने लगना इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि उक्त व्यक्ति की गति इसके आगे कुछ नहीं है। यह अन्दर से हीन अथवा दरिद्री है और अवश्य ही इसके लिए यह वस्तुयें जीवन की आकाँक्षा हैं। या तो वह इनके लिए लालायित है अथवा यह स्वयं ही इस प्रदर्शनपरक मनोवृत्ति का रोगी है। इसकी दृष्टि में वस्तुओं अथवा वेश-विन्यास का मूल्य मनुष्य की अपेक्षा अधिक है। ऐसी हीन तथा ओछी मनोवृत्ति वाले ही अनाकर्षक वेशभूषा के आधार पर गुणी व्यक्तियों तक पर दाँत बिचकाने और मुँह बनाने लगते हैं और इस सिद्धान्त को चरितार्थ करते हैं कि “गुणी का मूल्य गुणी ही समझता है, मूर्ख नहीं।”

किसी का मूल्याँकन करने से अपना-स्वयं का भी मूल्याँकन हो जाता है। जो जैसा होता है वह उसी प्रकार के व्यक्तियों से प्रभावित, प्रसन्न तथा उन्हीं का प्रशंसक हुआ करता है। एक अपव्ययी व्यक्ति किसी मितव्ययी का सही मूल्याँकन नहीं कर सकता। प्रदर्शनकारी के लिए यह सम्भव नहीं कि वह सरलता, सादगी तथा सामान्यता की प्रशंसा कर सके। बेईमान व्यापारी ईमानदार व्यवसायी को मूर्ख अथवा असहयोगी ही कहेगा। उच्छृंखल छात्र शिष्ट तथा अनुशासित छात्रों को बुद्धू समझ उनकी खिल्ली उड़ाया करते हैं। परोपकार एवं परमार्थ में संलग्न सत्पुरुष किसी भी स्वार्थी तथा अपकारी व्यक्ति से सही मूल्याँकन नहीं पा सकता। इस प्रकार जो व्यक्ति स्वयं जिस प्रकार का होता है, उसी प्रकार के गुणी-दुर्गुणी व्यक्तियों से प्रभावित होकर उनका अपेक्षाकृत बहुमूल्यन किया करता है। अतः आवश्यक है कि किसी का गलत मूल्याँकन करते ही हमारी असली तस्वीर सामने आ जायेगी। साथ ही वह एक सामाजिक एवं नैतिक अपराध होगा।

हमें मूल्याँकन के अपने मानदण्ड के आधार पर यह समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि कहीं हममें किसी का अनुचित मूल्याँकन करने की कमी अथवा दुर्बलता तो नहीं है? हमारा मानदण्ड अथवा कसौटी गलत तो नहीं है? यदि ऐसा है तो तुरन्त सुधार कर लेना चाहिए अन्यथा खोटी कसौटी के आधार पर समाज में हमारा स्वयं का मूल्य घट जायेगा जिसका परिणाम क्षोभ, ग्लानि, आत्महीनता अथवा अशाँति और असन्तोष के रूप में सामने आयेगा। सज्जनों के प्रति द्वेष और गुणियों के प्रति ईर्ष्या की अकल्याणकारी भावना का शिकार बनना पड़ेगा।

बहुत से व्यक्ति किसी का सुन्दर व्यक्तित्व देखकर पानी-पानी हो जाते हैं। उसे कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति मान लेते हैं और असुन्दर व्यक्तियों को बुद्धू तथा अतेजस्वी अनुमान कर लेते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि ढाक का सुन्दर फूल निर्गन्ध हो सकता है और चम्पा का असुन्दर फूल पूरी वाटिका को सुरभित कर देता है। हर चमकने वाली वस्तु सोना और हर मैली धातु लोहा ही हो, ऐसा सम्भव नहीं। इसका ठीक-ठीक पता तो परख के बाद ही लगाया जा सकता है। अस्तु, दर्शनमात्र से ही किसी का बहुमूल्यन अथवा किसी का अवमूल्यन करना अविवेकपूर्ण व अन्यायपूर्ण अभ्यास है। यदि हम इस प्रकार के अयोग्य अभ्यास के दोषी हैं तो शीघ्र ही अपना सुधार अपेक्षित है, जिसे कर ही लेना चाहिए।

इसी प्रकार धन-वैभव से प्रभावित होते लोगों को देर नहीं लगी। धनी को देखते ही उसके बहुमूल्यन में मन-ही-मन श्रद्धा के फूल चढ़ाने लगते हैं। ऐसे लोग यह नहीं देख पाते कि उसने जो यह प्रचुर सम्पत्ति संचय की है, इसमें इसने किस रीति-नीति का आधार लिया है। निश्चय ही अपार सम्पत्ति का संचय सन्मार्ग से नहीं हो सकता। ऐसी दशा में किसी धनी का धन मात्र देखकर बड़प्पन अथवा प्रतिष्ठा की भावना से मूल्याँकन करना कहाँ तक उचित है, जब वह आय-व्यय के अनुचित मार्गों के कारण मिट्टी के भी मोल का नहीं। वस्तुओं अथवा आकार-प्रकार के आधार पर व्यक्ति का मूल्याँकन करना उसके साथ अन्याय करना है, क्योंकि ऊपरी मूल्याँकन उस वस्तु अथवा आकार-प्रकार का ही होता है, व्यक्ति का नहीं। व्यक्ति एवं वास्तविक व्यक्तित्व, पदार्थ तथा आकार-प्रकार से परे है। मूल्याँकन यदि करना ही है तो उसी का करना चाहिए, उसकी साधन-सामग्री अथवा आकार-प्रकार का नहीं।


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