भारत को ईसाई बनाने का षड़यन्त्र

January 1967

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‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ अर्थात् अति का हर क्षेत्र में निषेध है। बुरी बात तो बुरी बात ही होती है, उसमें अति या अनति का प्रश्न ही क्या? अच्छी बात भी जब अपनी वाँछित मर्यादा का उल्लंघन कर जाती है, तो वही बुराई की कोटि में पहुंच जाती है।

धार्मिक सहिष्णुता एक महान गुण है। किसी दूसरे के धार्मिक विचारों तथा कार्यों में हस्तक्षेप न करना स्वयं ही एक धार्मिकता है। हिन्दुओं ने इस गुण का जितना व्यापक परिचय दिया है, उसका हजारवाँ भाग भी संसार की कोई अन्य जाति न दें सकी। बल्कि यह कहने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि वेद-धर्म के अनुयायियों को छोड़कर संसार की अधिकाँश जातियों ने असहिष्णुता का ही परिचय दिया है।

किन्तु बहुत समय से हिन्दुओं की धार्मिक सहिष्णुता अति की सीमा में पहुँच गई है, जिसके फलस्वरूप गुण, अवगुण बन गया है। अतिशयता हो जाने से हिन्दुओं की सहिष्णुता धार्मिक उपेक्षा के दोष से दूषित हो गई है। होते-होते वे इतने धर्म-निरपेक्ष बन गये कि अपने धर्म पर किये जाने वाले आघात भी इस प्रकार सहन करने लगे हैं, मानो यह अन्य धर्मावलम्बियों का धार्मिक अधिकार हो, जिसमें हस्तक्षेप न करना उनका कर्त्तव्य है।

हिन्दुओं की इस सहिष्णुता से प्रोत्साहित होकर अन्य धर्मावलम्बियों ने क्या-क्या किया और इससे हिन्दू राष्ट्र को कितनी क्षति हुई है? यह बात किसी से छिपी नहीं है। विगत हानियों तथा अत्याचारों की चर्चा करना बेकार है। किन्तु वर्तमान में हिन्दू-जाति पर ईसाइयों का जो आक्रमण हो रहा है, उसकी ओर से आँखें बंद नहीं की जा सकती है।

भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है और भारत-सरकार धर्मनिरपेक्षिता की संरक्षिका। विधान की इस धारा के अनुसार भारत में सभी धर्मों को फलने फूलने और फैलने और विकसित होने का अधिकार है। किन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं कि कोई धर्म दूसरे किसी धर्म को मिटाकर फूल-फल सकता है। ईसाई पादरी भारतीय विधान की इस धारा का दुरुपयोग करके हिन्दू धर्म को मिटाकर अपने ईसाई धर्म का विस्तार करने में बुरी तरह जुटे हुए हैं।

भारत में पादरियों का धर्म-प्रचार हिन्दू धर्म को मिटाने का एक खुला षडयंत्र है जो कि एक लम्बे अरसे से चला आ रहा है, अब उपेक्षावश और भी तीव्र तथा प्रबल हो गया है। ईसाई पादरियों के इस धर्म-प्रचार का क्या उद्देश्य है? यह समय-समय पर किए उनके कथनों, लेखों तथा वक्तव्यों से सहज ही पता लग जाता है।

‘लाइट आफ लाइफ’ कैथोलिक पत्रिका के 1964 के जुलाई अंक में ईसाई नवयुवकों को परामर्श देते हुए निर्देश किया गया-’ईसाई छात्रों तथा स्नातकों का यह कर्त्तव्य है कि वे ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखा करें और इस विषय में वे धर्म-निरपेक्ष नीति वाली पत्र-पत्रिकाओं का लाभ उठा सकते हैं। किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि वे शुरू-शुरू में ही अपने लेखों में ईसाईयत का प्रचार करने लगें। अच्छा तो यह होगा कि पहले वे सामान्य लेख लिखकर आगे चलकर के पत्रों में खुलकर ईसाई विचारधारा का प्रचार करें।’

यह क्या है? ईसाई नवयुवकों को धर्मनिरपेक्ष पत्र-पत्रिकाओं में घुसने और उनके माध्यम से भारत में ईसाईयत फैलाने के लिए खुला प्रोत्साहन तथा आह्वान है। इसे धर्मनिरपेक्षता का अनुचित लाभ उठाने के लिए एक षड़यंत्र के सिवाय और क्या कहा जायेगा? जहाँ धर्मनिरपेक्षता की नीति भारत के हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी को एक समान तथा सामान्य राष्ट्रीय विचारधारा में लाने का प्रयत्न कर रही है, वहाँ विदेशी मिशनरी ईसाई नवयुवकों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर उन्हें अपने षड़यंत्र का सहायक अस्त्र बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या भारत के राष्ट्रीय हित में यह सहन करने योग्य बात है?

ईसाई पादरियों तथा मिशनरियों का ऐसा ज्वलन्त अभियान और भयानक विचार न केवल भारत के हिन्दुओं वरन् सारी, गैर-ईसाई जनसंख्या की आँखें खोल देने को एक खुली चुनौती है। अपने धर्म की रक्षा तथा भारतीय राष्ट्र की एकता के लिए क्या यह आवश्यक प्रतीत नहीं होता कि भारत की गैर-ईसाई जनता विदेशी मिशनरियों के अनुचित इरादों को असंभव बना देने के लिए आवाज उठाये। यदि भारत की ईसाई जनसंख्या यों ही विदेशी मिशनरियों की गतिविधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखकर प्रमाद में ही पड़ी रही तो यह असंभव बात न होगी कि ईसाई ‘ईसाई भारत’ के अपने ध्येय के बहुत कुछ समीप जा पहुँचे और तब क्या हिन्दू, क्या मुसलमान और क्या सिक्ख सभी धर्मों के मिट जाने का खतरा पैदा हो सकता है।

यह बात सही है कि ईसाई मिशनरियों को हिन्दुओं की अपेक्षा अन्य धर्म वालों पर अपना प्रपंच चलाना आसान नहीं पड़ता। वे मुख्यतः हिन्दुओं को ईसाई बनाने में जुटे हुए हैं, इसके दो कारण हैं-पहला, अति धर्म-सहिष्णुता- वे धर्म बन्धुओं के बीच इसी अति के दोष से ईसाइयत का प्रचार सहन करते जा रहे हैं। दूसरा यह कि गैर-ईसाई अहिन्दुओं की धार्मिक रूढ़िवादिता के कारण ईसाई मिशनरियों को उनके बीच जाल बिछाने का अधिक अवसर नहीं मिलता। अहिन्दू, गैर-ईसाइयों की रूढ़िवादिता उन्हें अपने बीच धंसने का साहस नहीं करने देती। किन्तु इसका यह अर्थ लगाना गलत होगा कि अहिन्दू गैरईसाई ईसाइयों के धार्मिक षड़यंत्र से सुरक्षित हैं और यदि वे ऐसा सोचते हैं तो गहरी भूल करते हैं। अहिन्दू गैर-ईसाइयों को भी इस षड़यन्त्र की, जो ईसाइयों ने हिन्दुओं के बीच प्रचार-प्रपंच चला रखा है, उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि हिन्दुओं पर किया जा रहा आघात परोक्ष रूप में उन पर भी एक आघात है।

कैथोलिक ईसाई पत्रों के कथनों से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि भारत के गैर-ईसाई समुदाय से ईसाई मिशनरियों को ईर्ष्या है और वे उनकी विशाल जनसंख्या को फूटी आँखों भी नहीं देख पा रहे हैं। वे सम्पूर्ण भारत के गैर-ईसाइयों को ईसाई बनाकर ‘ईसाई-भारत’ का स्वप्न देखते हैं और उसके लिए हर उचित-अनुचित उपाय करते जा रहे हैं।

ईसाइयों से अपने को सुरक्षित समझने वाले बौद्ध, सिक्ख, पारसी, मुसलमान और यहूदी आदि को पर इस बात पर गहराई से विचार करना चाहिए कि भारत की धर्म-निरपेक्षता तथा हिन्दुओं की उपेक्षापूर्ण धार्मिक सहिष्णुता का अनुचित लाभ उठाते हुए यदि ईसाई मिशनरी इसी तेजी से हिन्दुओं को अपने जाल में फंसाने में सफल होते रहे तो शीघ्र ही उनकी जनसंख्या भारत में बहुत अधिक हो जायेगी और तब ऐसी स्थिति में भारत के सारे गैर-ईसाई उनकी तुलना में अल्पसंख्यक हो जायेंगे। क्या ईसाइयों का यह बहुमत तब शक्ति पाकर सम्पूर्ण भारत को ईसाई देखने के लिए व्यग्र पोप, पादरियों तथा प्रचारकों को अल्पसंख्यक गैर ईसाइयों को अपने में आत्मसात करने के प्रपंचों के लिए साहस, अवसर तथा प्रोत्साहन नहीं देगा? इसलिए भारत की धर्म-निरपेक्ष नीति, धार्मिक सहिष्णुता तथा राष्ट्रीय स्वरूप को सुरक्षित रखने और लोकतंत्र की गरिमा बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि भारत के सारे गैर ईसाई जन-समुदाय एक साथ होकर ईसाइयों के इस बढ़ते हुए धार्मिक साम्राज्य को रोकने का प्रयत्न करें।

हिन्दुओं का तो यह धार्मिक कर्त्तव्य है कि वे ईसाइयों के षड़यंत्र से आत्मरक्षा में अपना तन-मन-धन लगा दें और गैर ईसाई मिशनरियों की अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों को रोकने में अपना नैतिक समर्थन देकर हिन्दुओं की हिमायत को आगे बढ़ें और आज जो हिन्दुओं को लपेटती हुई ईसाइयत की लपट परोक्ष रूप से उनकी ओर बढ़ रही है, उसे यहीं पर बुझा दें। ऐसा करने से ही भारत में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक बन्धुत्व तथा सच्चे लोकतंत्र की रक्षा हो सकेगी, अन्यथा पुनः आजादी को खतरा की संभावना हो सकती है।

यह स्पष्ट है कि पाश्चात्य देशों की ईसाई-सरकारें तथा संस्थायें भारत में मिशनरियों को एजेंट-रूप में भेजकर ईसाइयत को बढ़ावा दें रही हैं और एक प्रकार से वे धर्म का आधार लेकर उन देशों का साम्राज्य ही भारत में स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। विदेशों के इस धर्मधारी साम्राज्यवाद से बचाव हेतु सम्पूर्ण गैर ईसाइयों को एक मंच पर आकर ईसाइयों के मलीन मन्तव्यों को असफल होने से रोकने के लिए भरसक प्रयत्न करना ही चाहिए।


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