सफलता का ही नहीं साधनों का भी ध्यान रखें।

January 1967

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संसार में उन्नति करने और सफलता पाने की असंख्यों दिशायें हैं। असंख्यों लोग उन में बढ़ते और सफल होने का प्रयत्न करते रहते हैं। किन्तु कुछ लोग देखते ही देखते मालामाल होकर सफल हो जाते हैं और कुछ चींटी की चाल से रेंगते और तिल-तिल बढ़ते हुए जीवन भर उतनी दूर तक नहीं जा पाते जितनी दूर अन्य बहुत से लोग दो-चार साल में पहुँच जाते हैं।

दो समान एवं सामान्य स्थिति के व्यक्ति व्यापार क्षेत्र में एक साथ उतरते हैं। एक घोड़े की चाल से दौड़ता हुआ शीघ्र ही बड़ा व्यापारी बन जाता है और दूसरा छोटा-सा दुकानदार ही रह जाता है। यदि इसे भाग्य-चक्र की गति कह दिया जाये तो कर्म, परिश्रम एवं उद्योग की मान्यता उठ जाती है, जिसे किसी अन्धविश्वासी, आलसी तथा अभाग्यवान भाग्यवादी के सिवाय कोई विवेकवान शक्ति स्वीकार करने को तैयार न होगा।

दोनों दुकानदार परिश्रमी तथा पुरुषार्थी रहे हैं। कभी कोई क्षण आलस्य अथवा प्रमाद में नहीं खोया। प्रत्येक क्षण अपनी उन्नति एवं विकास में लगाते रहे। तब भी एक छोटा-सा दुकानदार बना रहा और दूसरा आँधी तूफान की तरह बढ़ कर, एक बड़ा व्यवसायी, एक धनवान पूँजी-पति और लम्बे चौड़े कारोबार वाला बन गया। उसकी फर्म स्थापित हो गई, बैंकों में खाते खुल गये, टेलीफोन लग गया, और मुनीम रोकड़िये काम करने लगे। अभी एक बेचारा अपने छोटे-से मकान की नींव भी नहीं डाल पाया था कि दूसरे की कोठियों पर मंजिलें चढ़ने लगीं, दरवाजे पर कार खड़ी हो गई। निश्चय ही ऐसा लगता है कि उन दोनों में से एक सफल हो गया और दूसरा असफल रह गया।

स्वाभाविक है कि इस उन्नति एवं सफलता को देख सुन कर इच्छा हो कि उसकी उस गतिमान सफलता का रहस्य पता चल जाता जिसे अपना कर उन्नति की दिशा में अग्रसर होने का प्रयत्न किया जाये। धन सम्पत्ति और वैभव विभव के साथ जीवन को सफलता के ऊँचे शिखर पर कल्लोल करते देखा जाये। किन्तु विश्वास है कि इस घोड़े की चाल से आने वाली सफलता का रहस्य जान कर कोई भी स्वाभिमानी मनुष्य उसे दूर से ही हाथ जोड़कर उसके विपरीत असफलता को सहर्ष स्वीकार कर देगा।

आँधी तूफान की तरह आने वाली सफलता का रहस्य जानने के लिए सरकारी ठेकेदार का उदाहरण ले लीजिये। वह अपना कार्य किसी ठेकेदार के पास मजदूरों की कारगुजारी देखने और लिखने के काम से शुरू करता है। मालिक को दिखाने के लिये मेहनत करने का अभिनय तो करता है पर साथ ही मजदूरों से मिला रहता है। किसी को आराम देकर अथवा अधिक पैसा दिला कर कमीशन लेता है। इमारत के मसाले में गड़बड़ी करके मालिक के मुनाफे में सहायक होता है साथ ही मौका पाकर मालिक के सामान पर हाथ साफ करता है। मजदूरों की कारगुजारी और हाजिरी में हेर-फेर करके या तो उन्हें परेशान करके नाजायज लाभ उठाता है या सीधे-सीधे मजदूरी मार लेता है। सामान सप्लायरों से मिल कर कमीशन तय करता और घटिया माल की खपत कर देता है। अफसरों को खुश करने के लिए चाटुकारी तो करता ही है, साथ ही मालिक से रिश्वत दिलवा कर खुद भी फायदा उठाता है। इस प्रकार अपनी आर्थिक आय के अनेक स्रोत खोल कर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। इस बीच उसे हजारों बार मजदूरों के कोप तथा कोस का भाजन बनना पड़ता है। मालिक से डाट और अफसरों से अपमान प्राप्त होता है। नौकरी से अलग होने की नौबत आती है तो खुशामद करना, पैर पड़ना और गिड़गिड़ाना काम आता है।

धीरे-धीरे छोटे-मोटे ठेके लेकर काम आगे बढ़ाता है। रिश्वत, बेईमानी, असत्य और कपट की नीति से पैसा पैदा करके बड़ा ठेकेदार बन जाता है। फिर क्या राष्ट्र की सम्पत्ति हड़पता और सरकारी सड़कों भवनों आदि में खोटा माल लगा कर खरे पैसे लेता है। कमजोर और अनुपयुक्त निर्माणों को रिश्वत के बल पर पास कराता और मालामाल बन जाता है। यह है वह रहस्य जिसके आधार पर अनेक लोग घोड़े की चाल चल कर बड़े आदमी बन जाते हैं और कोठी, कार, रेडियो, बंगले की चमक-दमक में सफल दिखाई देते हैं। आत्मा से लेकर राष्ट्र तक और लोक से लेकर परलोक तक की हानि कर बढ़ने वाले व्यक्तियों को यदि सफल माना जा सकता है तो फिर संसार में असफल व्यक्ति किसे कहा जा सकता है-यह बात विचारणीय है। ऐसे आदर्श एवं आचरणहीन व्यक्तियों को वे लोग ही सफल मानकर प्रशंसा एवं स्पृहा कर कसते हैं जो या तो सफलता का अर्थ नहीं जानते या फिर उसी मनोवृत्ति के होते हैं। आर्थिक स्वार्थ के लिये आत्मा, स्वाभिमान, मनुष्यता, तथा राष्ट्र के हित को बलिदान कर देने के बाद भी जिसे संतोष और प्रसन्नता होती है उन्हें मनुष्य की श्रेणी में गिनने में संकोच ही होना चाहिए।

इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति जिस काम में उतरता है, उसे ईमानदारी से करता है। न तो स्वयं अनुचित लाभ उठाता है और न दूसरे के लिये सहायक हो पाता है। नौकरी में मालिक के प्रति ईमानदार रहता है, हर प्रकार से उसके हित का ध्यान रखता है किन्तु अनुचित लाभों में सहायक नहीं हो पाता। निदान कोई उन्नति किये बिना यथास्थान पड़ा रहता है। धीरे-धीरे अपनी शुभ कमाई से से मितव्ययिता पूर्वक कुछ बचाता रहता है और जब थोड़ा-सा पैसा हो जाता है तब काम को आगे बढ़ाता है। वह घूस देकर किसी दूसरे का अहित नहीं करता और न एक के बदले चार पाने का लोभ करता है, आत्मा, स्वाभिमान, राष्ट्र तथा मानवता की रक्षा करता, लोक-परलोक के रास्ते में काँटे नहीं बोता और थोड़े में सन्तोष करता है। ऐसे ईमानदार तथा आदर्श एवं आचरणवान व्यक्ति की उन्नति की गति धीमी होना स्वाभाविक है। वह कहीं जिन्दगी भर की कमाई में रहने योग्य एक अच्छा मकान बनवा पाता है। बैंक बैलेन्स, ऊँचा फर्म लम्बा चौड़ा कारोबार उसकी कल्पना एवं कामना के बाहर की बातें रहती हैं और यदि इनकी उपलब्धि होती भी है तो एक लम्बे अरसे और कठिनतम परिश्रम के बाद, देखते ही देखते नहीं। लगभग जीवन की पूरी अवधि सामान्य स्थिति और साधारण कारोबार में ही व्यय हो जाती है। देखने वालों को असफल एवं अनुन्नत व्यक्ति ही दीखता है। किन्तु वास्तव में वह कितना सफल व्यक्ति होता है इसे विवेकशील व्यक्ति ही समझ पाते हैं।

आर्थिक प्रचुरता, व्यापारिक उन्नति एवं सामाजिक स्थिति को उसी दशा में सफलता की सूचक कहा जा सकता है जबकि यह उपलब्धियाँ निष्कलंक तथा स्थिर सुख संतोष की देने वाली हों, जिन्हें देखकर अपने पवित्र पुरुषार्थ, निर्विकार आचरण, सत्य व्यवहार और आन्तरिक ईमानदारी का आत्म-गौरव अनुभव हो। यदि यह उपलब्धियाँ अपने अन्याय, अनौचित्य, असत्य अथवा अनाचरण की याद दिलाकर आत्मग्लानि, हीन भावना, अपराधी-भाव का कारण बनती हैं और उनसे वाँछित एवं वास्तविक हर्ष की प्राप्ति नहीं होती है तो निश्चय ही वे ‘सफलता’ जैसे शब्द की अधिकारिणी नहीं बन सकती हैं। सफलता की कसौटी आदर्श रक्षा है- आर्थिक प्रचुरता नहीं।

ठेकेदार की तरह ही सफलता असफलता का सच्चा स्वरूप समझने के लिये किन्हीं दो दुकानदारों का उदाहरण लिया जा सकता है। एक दुकानदार खाद्य पदार्थों में मिलावट करता है। कम तोल कर देता है। अधिक पैसे लेता है। चोरबाजारी करता है। उचित दाम देने वाले को न देकर वस्तुयें अधिक दाम देने वाले के हाथ बेचता है। होते हुए चीज के लिए इनकारी कर अभाव पैदा करता है और महंगाई बढ़ाता है। भोले अनजान व्यक्तियों को ठगता है। इस प्रकार के जानें कितने अनुचित उपायों द्वारा पैसा कमा कर कोठी खड़ी करता है। बड़ी फर्म का मालिक बनता है। अपनी अनुचित कार्यवाहियों के लिए समाज में शंका, संदेह तथा अपवाद का विषय बनता है। पुलिस का डर, कानून और हुक्कामों का भय उसे रात-दिन चैन नहीं लेने देता। आय एवं बिक्रीकर की चोरी करने के लिए दोहरा कागज रखता और उन्हें कहाँ रक्खूँ, कहाँ छिपाऊँ के चक्कर में परेशान रहता है। रहस्यविद् मुनीमों तथा नौकरों से अपराधी की तरह डरता है। कभी-कभी जेल हवालात की हवा भी खानी पड़ती है। सरेआम शोषित व्यक्तियों द्वारा अपमानित होने की हर समय सम्भावना बनी रहती है और इस प्रकार जिन्दगी एक बवाल बन जाती है। इतनी चिन्ताओं, भयों तथा अवहेलनाओं के साथ पाया हुआ धन, जमा की हुई सम्पत्ति यदि सफलता की सूचक हो सकती है तो फिर असफलता को किन लक्षणों से जोड़ा जायेगा।

इसके विपरीत एक दुकानदार ईमानदार, स्पष्ट तथा औचित्यवान रहता है। कमाई कम होती है किन्तु बाजार में साख है। ग्राहक विश्वास करते हैं। आत्म संतोष के साथ शिर ऊँचा करके चलता है। कोई उँगली नहीं उठा पाता। बाहर भीतर से साफ सुथरा है। उचित दामों पर उचित चीज ही देता है। न तो समाज में निन्दा का भय और हाकिम हुक्कामों का डर। स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सब प्रशंसा करते और सद्भावना रखते हैं। पहले उसी की दुकान पर जाते तब कहीं मजबूरी से दूसरे के पास। बाजार के बड़े किन्तु बेईमान व्यापारियों के बीच हीरे की तरह दमकता रहता, लोक रंजन और लोक प्रियता के बीच व्यापार करता। थोड़ा किन्तु शुद्ध सामान रखता, न कभी किसी को कम देता और न बुरा सुनता। ऐसे स्वच्छ तथा निर्लिप्त दुकानदार को यदि सफल नहीं कहा जा सकता तो फिर आर्थिक क्षेत्र में सफल कहा जाने योग्य कोई भी नहीं माना जा सकता। सफलता का वास्तविक मापदण्ड अधिकता नहीं औचित्य ही है। अधिकता को औचित्य की तुलना में सफलता कहने वाले अपनी अविवेकशीलता को ही व्यक्त करते हैं।

दो विद्यार्थी परीक्षा देते हैं। उनमें से एक पास हो जाता है और दूसरा फेल। फेल होने वाला विद्यार्थी सालों भर पढ़ता रहा यथासाध्य अध्ययन में कमी नहीं की। किन्तु किन्हीं विशेष कारणों अथवा संयोगवश फेल हो जाता है। दूसरा पास होने वाला विद्यार्थी सालों भर खेलता-कूदता अथवा मटरगस्ती करता रहा। किताब को हाथ नहीं लगाता। किन्तु परीक्षा में नकल द्वारा अथवा अन्य अनुचित उपायों से पास हो जाता है। तो क्या यह सफल और वह असफल माना जायेगा? नहीं ! ऐसा माना जाना गलत होगा। नकल द्वारा अथवा अनुचित उपायों के आधार पर पास हो जाने पर वह असफल ही माना जायगा और पढ़ने तथा परिश्रम करने के बाद भी संयोगवश फेल हो जाने वाला उसकी तुलना में सफल ही माना जायेगा।

सफलता की कसौटी परिणाम नहीं बल्कि वह मार्ग, वह उपाय, वह साधन और वह आधार है उन्नति एवं विकास के लिये जिन्हें अपनाया और काम में लाया गया है। इस विवेचना के प्रकाश में, सफलता के आकाँक्षी की अपनी समझ है कि वह सरल एवं क्षिप्रागत की स्वीकृति देता है अथवा पुरुषार्थ पूर्ण धीरे-धीरे आने वाली सफलता को।


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