आपका सहायक-
युवक का उत्साह कठिनाइयों को धूल में मिला देता है। वही उत्साह बुढ़ापे तक बना रहे तो आश्चर्यजनक काम करके दिखाता है। विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ अस्सी वर्ष के हो जाने पर भी वैसे ही उत्साहपूर्ण थे, जैसे कि वे जीवन के आरम्भ के दिनों में देखे गये थे। मृत्यु के कुछ घण्टे पूर्व तक वे बराबर कवितायें लिखते रहे थे और उनमें वही स्फूर्ति और वही उत्साह दिखाई देता था जैसा कि उनकी युवाकाल की रचनाओं में था। यही कारण है कि उनकी अन्तिम रचना में, जिसमें उन्होंने मृत्युरूपी मल्लाह से कहा है-”सामने अगाध समुद्र है। कर्णधार “नाव बढ़ाओ”, उत्साह की एक उद्दाम लहर दिखाई देती है जो मृत्यु की भीषणता का उपहास-सी करती जान पड़ती है।
महात्मा गाँधी के वे शब्द-”अभी तो मैं नवयुवक हूँ, मेरी अवस्था ही कितनी है-केवल 65 वर्ष की” उत्साह का सजीव चित्र उपस्थित करते हैं। हाथ में लिए कार्य को पूरा करने के लिए वे जिस उत्साह से अग्रसर होते थे, वह हमें सदैव नया पाठ पढ़ा सकता है। वे कभी पराजय स्वीकार नहीं करते थे। उत्साह उनका सहायक रहता था। जो उत्साही हैं, उनके मन में पराजय की भावना नहीं आ सकती। पराजय तो उत्साह-हीनता का लक्षण है और हतोत्साह का परिणाम है।
-स्माइल्स