आत्म कल्याण के लिए विचार ही नहीं कार्य भी आवश्यक हैं?

January 1967

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आत्मबल की अभिवृद्धि सत्कर्म करने में इतने साहस के रूप में सामने आती है कि दुनिया की भेड़चाल का कोई प्रभाव न पड़े। दुनियादार लोगों की अज्ञानग्रस्त बुद्धि प्रायः औंधी होती हैं, वे औंधा सोचते और औंधा करते हैं। इसलिए जो सीधा सोचता है वह उन्हें उल्टा एवं उपहासास्पद दिखाई देता है। परमार्थ मार्ग पर चलने वालों की आम तौर से दुनियादार लोग हंसी उड़ाते हैं। किन्तु जो कुमार्ग पर चल रहे हैं, उन्हें सहन करते रहते हैं। ऐसे अविवेकी लोगों के उपहास अथवा समर्थन का कोई मूल्य नहीं। मूल्य विवेक और सत्य का है। अध्यात्मवादी को केवल विवेक और सत्य का समर्थन करने का इतना साहस होना चाहिए कि औंधी बुद्धि के अविवेकी दुनिया वालों की परवाह न करता हुआ, अपनी मंजिल पर साहसपूर्ण कदम बढ़ाता रह सके।

अखण्ड-ज्योति के पाठकों के सामने सबसे प्रथम आध्यात्मिक साधना का ऐसा ही विधान रखा गया है जो आत्मबल की, साहस की अपेक्षा रखता है। अपने परिवार एवं परिजनों में नव-निर्माण की विचार-धारा फैलने में एकमात्र कठिनाई अपनी झिझक एवं संकोच-शीलता ही है। किसी से हुई बात कैसे कहें? कोई क्या समझेगा? इसमें अपनी हेटी होती है, हम क्यों किसी के पास जाएं? कोई कुछ पूछ बैठा तो क्या उत्तर देंगे? आदि-आदि न जाने कितने प्रश्न मन में उठते हैं, और एक झिझक एवं संकोच भरा वातावरण उपद्रव के रूप में खड़ा कर देते हैं। कदम उठाए उठता नहीं एकाध जगह गए, किसी से कुछ कहा और उपेक्षा जैसा उत्तर मिला, कोई हंस दिया, किसी ने व्यंग्य किया, तब तो पक्का बहाना ही मिल गया। दुनिया ऐसी है, वैसी है, लोग सुनना ही नहीं चाहते, आदि बातें सोच कर चुप बैठ जाते हैं और मिथ्या आत्म-प्रवंचना कर लेते हैं।

इस बाधा को दूर करने के लिए वैसे साहस की आवश्यकता है जैसी कि इन दिनों चल रहे चुनावों में उम्मीदवार लोग निधड़क होकर उनसे भी अनुरोध करते हैं जिनसे वोट मिलने की आशा नहीं है। अपनी बात कहने में आखिर हर्ज ही क्या? दस स्थानों पर असफलता की उपेक्षा कर हमें एक स्थान पर मिली सफलता को ही स्मरण रखना चाहिए और सत्प्रवृत्तियों के आत्मदर्शन में दुनिया वालों की उपेक्षा कर सकने का ‘आत्मबल’ साहस-परिपक्व करना चाहिए।

नव-निमार्ण के लिए आरंभ किया ज्ञान-यज्ञ वस्तुतः पाठकों के आत्मबल और आदर्शवाद को परिपुष्ट करने को एक छोटी किन्तु महत्वपूर्ण साधना है। इसमें मनोबल एवं साहस उपेक्षित है। सन्मार्ग पर चलने में जो आलस, प्रमाद एवं संकोच आदि आता है, उसे भी परास्त करने की बात है। परिजन सारा साहस बटोर कर इस दिशा में कदम बढ़ावें। अपने घर वालों में शिक्षितों को नव-निर्माण का साहित्य-पढ़ाने और सुनाने का कार्यक्रम आरंभ करें। आरंभिक उपेक्षा अशिक्षा, उपहास, व्यंग्य, प्रतिक्रियाओं से डरें, घबरायें नहीं। वरन् सहते-सहते, धीरे-धीरे प्रयत्न जारी रखें और उनमें आवश्यक अभिरुचि उत्पन्न करें। यही नीति मित्र, संयमी और परिजन के बारे में रखें। सद्विचार में अभिरुचि उत्पन्न करना मानव प्राणी की सर्वोपरि सेवा है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए-झिझक, संकोच की ओर नहीं देखना चाहिए और ज्ञान-यज्ञ की लहरें प्रज्ज्वलित करनी चाहिए।

दस व्यक्तियों को अपना नव-निर्माण साहित्य नियमित रूप से पढ़ाते रहने की साधना आरंभ करने वाले अपने साहस और आत्मबल में महत्वपूर्ण अभिवृद्धि हुई देखेंगे और इससे दूसरों की ही नहीं अपनी भी भावनात्मक प्रगति होगी। यह प्रगति व्यक्ति और समाज के नव-निर्माण की आधार शिला होगी।

*समाप्त*


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