हमारे साँस्कृतिक कार्यक्रम का स्वरूप क्या हो?

January 1967

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आज के समय में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का बहुत बोल-बाला है। किसी भी उत्सव समारोह, स्वागत, पर्व अथवा विशेष अवसर पर कुछ रुचिकर कार्यक्रमों की योजना कार्यान्वित की जाती है और उसी को साँस्कृतिक कार्यक्रम मान लिया जाता है। नाच, गाना, नाटक, एकाँकी, गोष्ठी, कवि सम्मेलन आदि को विशेष रूप से साँस्कृतिक कार्यक्रम कहा जाता है। किन्तु यह विचार का विषय है कि क्या इस प्रकार के मनोरंजन साँस्कृतिक कार्यक्रम का उद्देश्य पूरा करते हैं? इस बात को समझने और हृदयंगम करने के लिये सबसे पहले ‘संस्कृति’ का आशय अथवा अर्थ समझना होगा। शब्द का अर्थ समझे बिना उसका तात्पर्य अथवा प्रयोजन समझ में नहीं आ सकता।

‘साँस्कृतिक’ शब्द ‘संस्कृति’ से और ‘संस्कृति’ शब्द संस्कार से बना है। संस्कार का अर्थ है परिष्कार, परिमार्जन, शोधन, सुधार अथवा संराधन! संस्कार किसी बुराई, गंदगी अथवा कुरूपता का ही किया जाता है। इस प्रकार जो कार्यक्रम अथवा आयोजन अपरूपता से सुरूपता, मलीनता से स्वच्छता, बुराई से अच्छाई, दुर्गुणों से गुणों और अशुद्धि से शुद्धि की ओर प्रेरित करें, उन्हें ही साँस्कृतिक कार्यक्रम कहना उचित होगा। केवल मनोरंजन अथवा हास-विलास के आयोजनों को साँस्कृतिक कार्यक्रम नहीं कहा जा सकता है।

आज ‘साँस्कृतिक’ शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया जाता है प्राचीन साहित्य में उस अर्थ में नहीं पाया जाता। आज का ‘संस्कृति’ शब्द अंग्रेजी के ‘कलचर’ शब्द के भाषान्तर अथवा समानार्थक अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है, और व्यापक रूप में लिया माना और समझा जाता है। आज किसी राष्ट्र, देश अथवा जाति के आचार-विचार को घेर कर चलने वाली जीवन पद्धति को प्रायः साँस्कृतिक-कार्यक्रमों का आयोजन उसी को व्यक्त करने का उपक्रम है। आज के साँस्कृतिक कार्यक्रम अधिकाँश में नाच-गानों, खेलकूद तथा अन्य मनोरंजनों तक सीमित होकर इतने ओछे, हीन तथा तुच्छ हो गये हैं कि वे देश की सभ्यता का निदर्शन नहीं कर पाते। बहुत बार तो इन कार्यक्रमों में इतनी वैदेशिकता, विजातीयता तथा परत्व का भाव सम्मिलित हो जाता है कि उससे किसी देश विशेष की ‘संस्कृति’ ठीक तथा स्पष्ट रूप से समझ सकने में कठिनाई होती है।

‘संस्कृति’ शब्द आधुनिक है। प्राचीन साहित्य में यह शब्द इस रूप अथवा अर्थ में प्रयुक्त नहीं पाया जाता। इस विषय में विचार करते-करते विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि आज का ‘संस्कृति’ शब्द जितना व्यापक है और आचार-विचार सहित जिस जीवन पद्धति को घेर कर प्रवाहित हो रहा है, पूर्व काल में व्यापक तात्पर्य को व्यक्त करने वाला शब्द ‘धर्म’ ही माना जाता था।

भारतीय साहित्य में धर्म शब्द का प्रयोग केवल उपासना अथवा पूजा-पाठ करने के आयोजन के लिये ही प्रयुक्त नहीं हुआ है। वह भारतीय आचार-विचार, आहार-विहार रहन-सहन के साथ जीवन पद्धति के लिये भी प्रयुक्त हुआ है। इससे प्रकट होता है कि हमारा धर्म ही हमारी ‘संस्कृति’ है और उसी से प्रभावित कार्यक्रम ही ‘साँस्कृतिक-कार्यक्रम’ कहे जाने चाहिये। भारतीय धर्म में जिन षोडश संस्कारों का निर्देश है वे सब एक प्रकार से साँस्कृतिक कार्यक्रम ही हैं।

जैसा कि ऊपर विचार किया जा चुका है कि संस्कृति शब्द का निर्माण संस्कार शब्द से हुआ है और संस्कार शब्द का अर्थ है शुद्धि अथवा शोधन। इसलिए साँस्कृतिक कार्यक्रम उसी आयोजन को कहना होगा जिससे जीवन का परिमार्जन, शोधन अथवा शुद्धि हो। इस शुद्धि अथवा शोधन का आशय यथार्थ में चित्त शोधन से ही है। मनुष्य के मन में जो दोष, दुर्गुण घर किये बैठे रहते हैं उन्हीं को दूर करने के विधान को संस्कार कहा गया है। मानसिक स्थिति का मनुष्य के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, मन की शुभ अथवा अशुभ अवस्था पर जीवन का उत्थान-पतन निर्भर है। उन्नति करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है। उन्नति करता हुआ ही वह एक दिन परमोन्नति मोक्ष तक पहुँच जाता है, जहाँ पर जाकर फिर न तो आगे कोई उन्नति की सीढ़ी शेष रह जाती है और न पतन का भय। मनुष्य आत्मा रूप में अपने अंशी परमात्मा से मिल कर सर्वदा के लिये स्थित होकर हर प्रकार से निवृत्त तथा मुक्त हो जाता है।

परिष्कार अथवा परिमार्जन के अर्थ में जहाँ ‘संस्कार’ क्रियापद है वहाँ क्रिया प्रेरक स्वभाव के अर्थ में वह संज्ञापद भी है। अभ्यास द्वारा ढलती-ढलती जब कोई प्रवृत्ति, स्थायी स्वभाव का रूप धारण कर लेती है तब उसे संस्कार भी कहा जाता है। संस्कारों का संचय आधुनिक जीवन से ही प्रारंभ नहीं होता। उनका संचय जन्म जन्मान्तरों से होता रहता है, जिन्हें पूर्व संस्कार अथवा पूर्वजन्म के संस्कार भी कहा जाता है। यही कारण है कि अनेक मनुष्य स्वभाव अथवा जन्म से ही सज्जन तथा सत्प्रवृत्ति के होते हैं और अनेक इसके विपरीत। अनेक लोग शुद्ध और सुन्दर वातावरण में रहते हुए भी तदनुकूल नहीं हो पाते जबकि बहुत से लोग असुन्दरता के बीच भी सुन्दरतापूर्वक रह लेते हैं। बहुत बार देखा जा सकता है कि अनेक लोग बहुत जल्दी ही किसी बात को ग्रहण कर लेते हैं और अनेक लोग जीवन भर किसी बात को ग्रहण नहीं कर पाते। इस विपर्यय अथवा विषमता का कारण पूर्व संस्कार ही होते हैं। मनोभूमि में जिस प्रकार के पूर्व बीजों को लेकर मनुष्य आता है वे बीज अपने अनुकूल परिस्थिति पाते ही उसी दिशा में फलीभूत होने लगते हैं। मनुष्य जीवन के साथ संस्कारों के आवागमन की एक परम्परा लगी हुई है। जिस प्रकार मनुष्य पूर्व जन्म से संस्कार लेकर आता है, उसी प्रकार वर्तमान जीवन के संस्कार लेकर अगले जीवन में जाता है।

संस्कारों का संबंध केवल व्यक्ति तक ही नहीं होता, उसका प्रभाव परिवार, कुटुम्ब, कुल तथा संपर्क प्राप्त व्यक्तियों पर भी पड़ता है। दो प्रतिकूल संस्कारों वाले व्यक्तियों के परस्पर मिलते रहने से उनके संस्कारों का प्रभाव एक दूसरे पर पड़ता रहता है। उनमें से जिस व्यक्ति के संस्कार जितने शक्तिशाली होंगे वे उतना ही दूसरे को प्रभावित कर लेंगे। अच्छे संस्कार वाला व्यक्ति अपनी संस्कार शक्ति के आधार पर दूसरे की बुराई दूर कर देता है जबकि निर्बल संस्कार वाला अपनी अच्छाई छोड़कर बुराई ग्रहण कर लेता है। संस्कारों का प्रभाव बच्चों में परम्परागत चलता हुआ एक जैसी प्रवृत्ति की पीढ़ी तक तैयार कर देता है। अस्तु संस्कारों का परिष्कार ही वह विधि है जिससे मनुष्य का जीवन शुद्ध, सुख-शाँतिमय तथा उन्नतिशील बन सकता है।

चित्त की शुद्धि अभ्यास द्वारा ही होती है। यह अभ्यास भी एकाँगी नहीं सर्वांगीण अर्थात् मन, वचन, कर्म , द्वारा ही करना होगा। एकाँगी अभ्यास से चित्त की अत्यन्त शुद्धि नहीं हो सकती। एक मनुष्य शरीर से तो धर्म, कर्म, पुण्य परमार्थ करता रहे और मन में उन कार्यों के प्रति कोई श्रद्धा आस्था न रखे तो उसका वह कार्य मात्रिक ही होगा। उसका कोई भी वाँछित फल निकलना निश्चित नहीं। इसी प्रकार कोई मन से तो सत्कर्मों का चिन्तन करता रहे और तदनुसार कार्य सम्पादित न करे तो उसकी वह क्रिया मनोरथ अथवा कल्पना तक ही सीमित रह जायेगी और उसका भी कोई वाँछित फल प्राप्त नहीं होगा। साथ ही मन तथा क्रिया दोनों का संयोजन कर लेने पर भी यदि कोई सत्कर्मी, वचनों से अश्लील, असद्, अवाँछनीय अथवा विपरीत भाषण करता और सुनता रहे तब भी इसका प्रभाव उसके मानसिक तथा शारीरिक सत्कर्मों के पुण्य फल पर पड़ेगा और चित्त का परिमार्जनपूर्ण प्रेरणा से न हो सकेगा। आवश्यक है कि चित्त शोधन के लिये मन, वचन, कर्म तीनों साधनों का समान नियोजन किया जाये।

शुद्धि अथवा परिष्कार किसी अशुद्धि अथवा मलीनता का ही होता है। चित्त के परिष्कार का अर्थ है उसकी मलीनता अथवा दोष दूर करना, ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, काम, कुत्सा, कुँठा आदि मन की मलीनता और क्रोध, लोभ, तृष्णा अहंकार, चंचलता, लोलुपता आदि उसके दुर्गुण हैं। इनको दूर करना ही चित्त का संस्कार करना है। जो चित्त अखण्ड एवं अबोध प्रसन्नता तथा प्रफुल्लता से रहित है, मानना होगा कि वह मलिन तथा दोषपूर्ण है। इसके विपरीत जिस चित्त में प्रसन्नता, प्रफुल्लता, आशा, उत्साह स्फूर्ति, प्रेम, दया, करुणा तथा सेवा भाव का निवास रहता है उस चित्त को शुद्ध तथा दोष रहित ही कहा जायेगा।

चित्त में वाँछित अवस्था उत्पन्न करने का जो उपाय है वह अभ्यास कहा जाता है। यह अभ्यास चिन्तन, मनन, क्रिया-कर्म, पठन, श्रवण तथा दृश्य द्वारा ही होता है। मन की स्वाभाविक गति पतनोन्मुख ही है।

मन को पतन की ओर ले जाने में किसी प्रकार का प्रयत्न नहीं करना पड़ता है, उसको शुभ एवं कल्याणकारी दिशा में चलाने के लिये। इसका उपाय यही है कि कुप्रवृत्तियों के स्थान पर बलपूर्वक सत्प्रवृत्तियों को स्थापित किया जाये। जो विचार अवनतिदायक अथवा जो काम अधोगति वाले हैं उनको प्रतिक्षण त्यागने का ही प्रयत्न करते रहना चाहिए। सत्साहित्य पढ़ना, सद्विचारों का चिन्तन मनन करना, कल्याणकारी दृश्य देखना और शुभ वाणी बोलना तथा सुनना ऐसा अभ्यास है जो धीरे-धीरे मन की दूषित प्रवृत्तियों को नष्ट कर सत्प्रवृत्तियों को समाविष्ट कर देता है। जब तक बुराई को अच्छाई और दुर्गुण को गुण से स्थानापन्न न किया जायेगा तब तक चित्त शुद्धि हो सकना संभव नहीं। केवल शुभ में आस्था रखना मात्र ही वह अभ्यास अथवा प्रयास नहीं है जिससे चित्त-शुद्धि की आशा की जा सके।

मन को वाँछित मोड़ देने के लिये ही विविध संस्कारों का विभाजन किया गया है। पर्वों, त्यौहारों तथा उत्सवों के पीछे भी यही मन्तव्य और साहित्य तथा कलाओं के पीछे भी यही उद्देश्य रहा करता है। इनका प्रतिपादन जितना कल्याणपूर्ण होगा मनुष्य जाति अथवा राष्ट्र उसी अनुपात से दोषरहित होगा। जिस पूर्व काल में धर्म ही संस्कृति का द्योतक था सारे संस्कार उसी के प्रकाश में किये जाते थे लोगों के चित्त अधिकाधिक शुद्ध तथा निर्दोष रहते थे। आज धर्म का अर्थ पतन अथवा संकोचन हो गया है और वह आज के ‘संस्कृति’ शब्द का व्यापक अर्थ नहीं दे पा रहा है। उसे पूजा पाठ, साधना, उपासना तक ही सीमित माना जाने लगा है। अस्तु आज के साँस्कृतिक कार्यक्रम धर्म की सीमा छोड़कर अन्य परिवेश में आ गये हैं। किन्तु उनका मूल उद्देश्य तो बदल ही नहीं सकता। साँस्कृतिक कार्यक्रमों का निश्चय ही ऐसा आयोजन है जिससे मनुष्य के मन का संस्कार हो।

क्या आज जिन नाच-गानों के रूप में साँस्कृतिक कार्यक्रमों की परम्परा चल पड़ी है वे मूल मन्तव्य का सम्पादन कर रहे हैं, अथवा कर सकते हैं? कदापि नहीं। माध्यम चाहे नृत्य, संगीत नाटक अथवा अन्य कार्यक्रम ही क्यों न हो किन्तु जब तक उनमें आदर्श, उदारता, शालीनता, सौम्यता, शुद्धता तथा पवित्रता का समावेश नहीं किया जायेगा, जब तक उनके द्वारा मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना, उनका महत्व सम्पादित नहीं किया जायेगा, उद्देश्य की पूर्ति न होगी। आज जैसे ओछे, तुच्छ, अभद्र मनोरंजन मात्र से मानव मन के संस्कृत करने का महान मन्तव्य पूरा करना तो दूर वह अधिकाधिक तुच्छ एवं मलीन बनता रहेगा।


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