मानव-जीवन और उसका महान् प्रयोजन

January 1967

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प्रत्येक कार्य का कुछ-न-कुछ प्रयोजन होता है। बिना प्रयोजन संसार का कोई कार्य नहीं होता। पृथ्वी का परिभ्रमण, सूर्य का निकलना, रात का आना, वायु का चलना, तारों का टूटना, नदी का बहना, पहाड़ों का स्थिर रहना-आदि सब कार्यों में कुछ-न-कुछ प्रयोजन अथवा ध्येय छिपा रहता है।

जन्म, जीवन तथा मरण आदि सभी प्रति क्रियाओं का एक प्रयोजन रहा करता है। परमात्मा की इस सृष्टि में कोई काम निष्प्रयोजन अथवा निरुद्देश्य नहीं होता। कार्य के इस प्रयोजन को समझ लेना ही ज्ञान है। जिसमें संसार की प्रक्रियाओं को समझ सकने की सामर्थ्य आ जाती है, उसे तत्वज्ञानी कहा जाता है। जन्म, जीवन, जरा और मृत्यु का यही प्रयोजन समझने के कारण ही महात्मा लोग उनसे प्रभावित नहीं होते। उनको हर्ष और शोक की प्रतिक्रियायें विचलित नहीं कर पातीं। इन प्रक्रियाओं का ठीक-ठीक प्रयोजन न समझने के कारण ही साधारण जन जरा-जरा-सी हर्ष और शोक की घटनाओं से प्रभावित हुआ करते हैं।

प्रयोजन के सिद्धान्त के अनुसार मानव-जीवन का भी एक प्रयोजन, एक उद्देश्य होता है। किन्तु ऐसे कितने लोग होते हैं जो मानव-जीवन के सही प्रयोजन को समझने और उसे पूरा करने का प्रयत्न किया करते हैं? अधिकाँश लोग मानव-जीवन का प्रयोजन खाना, कमाना, जीना तथा मर जाना ही समझते हैं और रात-दिन इसी हाय-हाय में पड़े रहते हैं। इतने मात्र प्रयोजन के लिए ही परमात्मा ने इतना बहुमूल्य, दुर्लभ तथा सर्वशक्ति सम्पन्न मानव-जीवन नहीं दिया है। यदि केवल खाना, कमाना और मर जाना मात्र ही मानव-जीवन का लक्ष्य होता है तो उसमें और अन्य कीट-पतंगों में कोई अन्तर न रह जाता। कीट-पतंग तथा पशु-पक्षी भी तो यही करते हैं। जन्म लेते, निरुद्देश्य जीते, खाते-पीते और मर जाते हैं। मानव-जीवन का मात्र इतना ही उद्देश्य रहा होता तो न तो उसे बुद्धि दी जाती और न विवेक। वह प्रगति, उन्नति व विकास की भावना से शून्य होता। ज्ञान, गौरव व आत्म-अस्तित्व की जिज्ञासा उसे न मिली होती। विषय-भोगों को जीवन का प्रयोजन मानने वाले भ्रम में रहते हैं-ऐसा मानना होगा। खाने, कमाने और मर जाने जैसे तुच्छ प्रयोजन के लिए यह विलक्षण मनुष्य-देह नहीं मिली है। मानव-शरीर की विलक्षणता तथा उसके भीतर भरी हुई अद्भुत शक्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि पशुओं की तरह खाने, पीने और मर जाने के लिए यह मानव-जीवन नहीं मिला है, अवश्य ही इसके अनुरूप इसका कोई महान प्रयोजन है। खाने-पीने और मर जाने को मानव-जीवन का प्रयोजन समझने वाले यह नहीं जानते कि यह प्रक्रियायें जीवन पाने और उसको बनाये रखने के साधन उपाय हैं, उसका मुख्य प्रयोजन नहीं है। किसी इंजन को कोयला, पानी, तेल, ग्रीस देने का उद्देश्य है उसे चलने योग्य बनाए रखना। पानी, कोयला, और तेल आदि खाते, जलाते रहना उसका उद्देश्य नहीं है। उसका वास्तविक तथा मुख्य उद्देश्य कुछ और ही होता है। किन्तु साधारण लोग इसी भ्रम-जंजाल में पड़े जीवन के मुख्य प्रयोजन को भूले रहते हैं और इसीलिए अधिकतर उनका जीवन असफल रहा करता है।

यह कम खेद का विषय नहीं है कि मनुष्य धन कमाना, घर बनवाना, नौकरी करना, खाना-पीना आदि के विषय में तो जानने की जिज्ञासा रखता है किन्तु मानव-जीवन और उसके प्रयोजन के सम्बन्ध में जानने के लिए जरा भी जिज्ञासु नहीं होता।

मानव-जीवन का वास्तविक प्रयोजन है उस पूर्णता को प्राप्त करना जिसको पाने के बाद कुछ पाना न तो शेष रह जाये और न इच्छा हो। एक बार यदि विचारपूर्वक देखा जाये तो पता चलेगा कि मनुष्य जिन बातों को लक्ष्य बनाकर चलता है उनमें भी तो पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता। एक ओर धन कमाता है, दूसरी ओर घाटा हो जाता है। एक ओर जीवन पाता है, दूसरी ओर मृत्यु की तैयारी शुरू हो जाती है। एक ओर मोद मनाता है दूसरी ओर खेद और शोक की परिस्थितियाँ खड़ी रहती हैं। एक ओर अभावों को दूर करने का प्रयत्न करता है तो दूसरी ओर अनेक प्रकार के अभाव दीखने लगते हैं। मनुष्य किसी बात के लिए कितना ही प्रयत्न क्यों न करता रहे किन्तु पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता।

इस अपूर्णता का कारण यही है कि वह जिन-जिन बातों को पूर्णता की स्थिति में पाकर सदा-सर्वदा के लिए सन्तुष्ट हो जाना चाहता है, वे सब नश्वर एवं असत्य हैं। अपूर्णता ही उनका स्वरूप है। कभी भी वे पूर्णता की दशा में नहीं आ सकतीं। पूर्ण केवल परमात्मा है। वह नित्य एवं अपरिवर्तनीय है। उसको पाकर उसका ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य पूर्णता की उपलब्धि कर सकता है। उस शाश्वत को पा लेने पर मनुष्य हर प्रकार से पूर्ण एवं संतुष्ट हो जाता है। परमात्मा को पाकर न तो कुछ पाना शेष रह जाता है और न फिर आगे के लिए कोई जिज्ञासा होती है। मनुष्य स्वयं ही तद्रूप होकर परमपद में स्थित हो जाता है। मानव-जीवन का यही तो प्रयोजन है। किन्तु कितने ऐसे होते हैं जो इस प्रयोजन, इस उद्देश्य और इस ध्येय की ओर ध्यान देते अथवा पूरा करने का प्रयत्न करते हैं ? यही कारण है कि बहुत कुछ साधन-सामग्री के होते हुए भी वह असन्तुष्ट एवं अभावग्रस्त बना रहता है।

पूर्णता की प्राप्ति यों ही बैठे-ठाले नहीं हो सकती और गलत दिशा में प्रबल पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। पुरुषार्थ वही है जो वाँछित लक्ष्य की ओर बढ़ता चला जाये और सही दिशा वही है जिसमें इस उन्नति एवं प्रगति के लक्षण मिलते और दीखते चले जायें। इसी लक्ष्य, पुरुषार्थ तथा पथ को निर्देश करते हुए यजुर्वेद में कहा गया है-

‘देवस्य चेततो महीभ्य सवितुर्हवामहे।

सुमतिœ सत्यराधसम्॥’

अर्थ-हे मनुष्यों ! जिस परम देव ने अपनी चेतन-स्वरूप क्षमता से इस विशाल सृष्टि-कानन को उत्पन्न किया है, उसकी नित्य उपासना कर सुन्दर विनिश्वयात्मक बुद्धि धारण करो जिससे जीव सत्यरूपी ब्रह्म को सिद्ध और साक्षात कर मोक्ष की ओर अग्रसर होगा।

उपयुक्त श्रुति में उपासना करने का निर्देश दिया गया है। परमात्मा की उपासना क्या है उसकी पूजा का तात्पर्य क्या है ? इसको ठीक से समझे बिना काम नहीं चल सकता। उपासना का प्रयोजन है परमात्मा की प्रसन्नता प्राप्त करना, उसे अपने अनुकूल बनाना, क्योंकि उसकी अनुकूलता एवं अनुकम्पा के अभाव में किसी भी श्रेय में सफलता मिलना सम्भव नहीं। अधिकाँश लोग उपासना का अर्थ पूजा-पाठ करना ही मानते हैं। भजन, कीर्तन, नाम, जप, भोग, आरती अथवा कुछ कर्मकाँड की व्यवस्था कर देना ही उपासना मानते हैं और आशा करते हैं कि इससे परमात्मा की अनुकम्पा एवं अनुकूलता प्राप्त हो जायेगी, किन्तु यह उनका भ्रममात्र है। परमात्मा की अनुकम्पा तथा अनुकूलता प्राप्त करने के लिए उसके आदर्शों पर चलना और आदेशों का पालन करना होगा। कोई पुत्र अपने पिता की प्रशंसा तो करता रहे उसकी पद-पूजा और प्रशस्ति में तो लगा रहे किन्तु न तो उसकी आज्ञा माने और न उस पथ पर चले जिसका वह निर्देश दें तो क्या वह पुत्र पिता की अनुकम्पा एवं अनुकूलता प्राप्त कर सकता है? नहीं, वह इस प्रकार अपने ध्येय में सफल नहीं हो सकता। इसके विपरीत एक पुत्र पिता की पूजा-प्रशस्ति तो नहीं करता किन्तु उसकी आज्ञायों का पालन करता और निर्दिष्ट मार्ग पर चलता है- निश्चय ही वह पिता के अनुग्रह अधिकारी बनेगा।

जीवन-ध्येय में सफलता पाने, उसके प्रयोजन को पूरा करने के लिए परमात्मा को जिस अनुकम्पा की आवश्यकता है उसकी प्राप्ति, उसकी आज्ञाओं का पालन करने और आदर्शों पर चलकर ही हो सकती है। पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन आदि के कार्यक्रम तो इसलिए जरूरी हैं कि इनकी सहायता से मनुष्य में उस योग्यता की वृद्धि होती है जिसके बल पर वह परमात्मा द्वारा प्रशस्त पथ पर चल सकने और उसकी आज्ञाओं का पालन कर सकने की सामर्थ्य पाता रहता है। यह परमात्मा के प्रति अपनी अनुकूलता प्रकट करने का एक ढंग भी है। क्योंकि जिसकी अनुकूलता अपेक्षित होती है उसके प्रति स्वयं भी अनुकूल होना होगा, आत्म प्रतिकूलता की दशा में किसी की अनुकूलता प्राप्त नहीं की जा सकती।

पूजा-अर्चना और भजन-कीर्तन द्वारा पथ पर चलने की शक्ति तो प्राप्त की जाती है, किन्तु चला न जाये तो उस शक्ति का परमात्म-पथ पर चलने के लिए क्या उपयोग हुआ? कितनी ही सामर्थ्य क्यों न एकत्रित कर ली जाए, अपने को कितना ही सक्षम तथा योग्य क्यों न बना लिया जाए, जब तक क्रिया का आश्रय न लिखा जाएगा कोई काम बनने वाला नहीं। कर्म के अभाव में किसी लक्ष्य की पूर्ति नहीं की जा सकती।

मनुष्य के कर्म ही उसकी शुभाशुभ गति के हेतु होते हैं। कर्मों द्वारा ही मनुष्य सुख-दुःख पाता है, बन्धन तथा मुक्ति का अधिकारी बनता है। मनुष्य के दुष्कर्म उसे जन्म-जन्मान्तरों में अन्धकार के बीच भटकाते रहते हैं और उसके सत्कर्म ही उसे अन्धकार से निकालकर प्रकाश की ओर, और बन्धन से मुक्ति की ओर ले जाते हैं।

मन, वचन और शरीर से सत्कर्मों में रत रहने वाला ही परमात्मा की अनुकूलता एवं अनुकम्पा प्राप्त कर सकता है। सत्कर्म ही परमात्मा की वह उपासना है जिससे वह प्रसन्न होता है। अपने उपासक को अनायास ही मोक्षपद का अधिकारी बना देता है। मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न तथा बढ़कर बुद्धि, विवेक तथा शक्तियों का पुञ्ज देने, उसकी आत्मा में श्रद्धा तथा जिज्ञासा को भरने तथा आत्मशक्ति का ज्ञान कराने में इस बात का प्रमाण निहित है कि परमात्मा की निश्चित इच्छा है कि ‘मनुष्य ध्येय-पथ पर आगे बढ़े संसार में बिखरे पड़े अनन्त ऐश्वर्य का अधिकारी बने। अपने स्वरूप तथा मेरे रूप को पहचाने और प्राप्त करने में सफल हो। वह अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ कर सदा-सर्वदा के लिए सन्तुष्ट तथा सम्पन्न हो जाए।’ पर ईश्वर की यह इच्छा भी तभी पूर्ण होगी जब मनुष्य उसके बतलाये हुए परमार्थ-पथ पर उसकी आज्ञाओं एवं आदर्शों के अनुकूल चलेगा, अन्यथा मनुष्य के कर्मफलों में परमात्मा भी एक निश्चित विधान के अनुसार हस्तक्षेप करने में असमर्थ है। उसकी विशालता, महानता और न्यायप्रियता अनुचित हस्तक्षेप को कदापि स्वीकार न करेगी।

सत्कर्म ही मनुष्य को मोक्ष अथवा परमात्मा के साक्षात्कार की ओर अग्रसर करते हैं। मनुष्य को अवश्य ही परमार्थ-पथ का अवलम्बन लेकर पूर्णता की ओर बढ़ना चाहिए। यही प्रगति इस मानव-जीवन का मुख्य प्रयोजन तथा उद्देश्य है।


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