आवश्यकताएँ बढ़ाकर दुःख-दारिद्र्य में न फँसें

January 1967

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आज हर ओर से ‘अभाव! अभाव!’ की ध्वनि आ रही है। मनुष्य दिन-रात मशीन की तरह काम में जुटा रहता है। तब भी उसके खर्च पूरे नहीं होते। हर समय कोई-न-कोई कमी उसे सताती ही रहती है। अभाव को पूरा करने के लिए लोगों ने आय के अनुचित साधन भी अपना लिए हैं, किन्तु अभाव से फिर भी पीछा नहीं छूटता है। गरीब तो गरीब है! उसे कोई भी अभाव रह सकता है, किन्तु जब आज बड़े-बड़े धनवानों को अभाव की शिकायत करते सुना जाता है, तो यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि अभाव का कारण धन की कमी नहीं है बल्कि इसका कोई दूसरा ही कारण है जो अमीर तथा गरीब दोनों को समान रूप से जकड़े हुए है। अभावों का मुख्य कारण है-आवश्यकता की बढ़ोतरी। आवश्यकतायें जिस तेजी तथा अनुपात से बढ़ती हैं, आय का उसी अनुपात से बढ़ सकना असम्भव है। फलतः मनुष्य के सम्मुख कोई-न-कोई अभाव बना ही रहता है।

यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए और विचारपूर्वक सोचा जाये तो पता चलेगा कि जीवन में वास्तविक अभाव बहुत कम होते हैं। वास्तविक अभाव की अवस्था में मनुष्य का जीना कठिन है। अधिकतर कृत्रिम अभावों की वेदना से व्यग्र रहते तथा मरते हैं। अन्न-वस्त्र आदि जीवन की निताँत आवश्यकता की आपूर्ति को ही वास्तविक अभाव कहा जा सकता है। समाज में मनुष्य की इन अनिवार्य आवश्यकताओं की किसी-न-किसी प्रकार पूर्ति होती ही रहती है। यह बात भिन्न है कि किसी की यह आवश्यकतायें सघन रूप में अतिपूर्ति पाती हों और किसी की केवल सीमाबद्ध।

आज संसार में जो कुछ भी दुःख, क्षोभ, अशाँति, असन्तोष अथवा व्यग्रता दृष्टिगोचर हो रही है, उसका मूल कारण मनुष्य की बढ़ी हुई कृत्रिम आवश्यकतायें ही हैं। मूल आवश्यकताओं को कोशिश करके भी बढ़ाया जा सकता है, किन्तु कृत्रिम आवश्यकताओं की वृद्धि का कोई अन्त नहीं। मनुष्य प्रयत्न करके भी पेट से अधिक भोजन नहीं कर सकता और तन से अधिक कपड़ा नहीं पहन सकता। यदि वह ऐसा करेगा तो रोगी तथा असभ्य बनेगा। जब इन्हीं मूल आवश्यकताओं के साथ कृत्रिमता अथवा अनावश्यकता जोड़ दी जाती हैं तब यह सीमित जरूरतें भी ईरान से तूरान तक बढ़ जाती हैं। पेट के लिए भोजन चाहिए। ठीक है। किन्तु भोजन के लिए मिर्च-मसाले, मक्खन-मलाई, कचौड़ी-पकौड़ी, अण्डा, मुर्गी, माँस-मज्जा और थाली भरे जंजाल आदि विभिन्न व्यंजन हों-ठीक नहीं है। भोजन की आवश्यकता मौलिक है किन्तु उसमें स्वाद अथवा प्रकारों का आरोप कृत्रिमता है। कृत्रिमता से कलुषित भोजन की जरूरत सामान्य रूप से पूरी नहीं की जा सकती है। सामान्य, सरल तथा साधारण भोजन-जो कि मनुष्य के स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए जरूरी हैं, आठ-दस आने में पूरा हो सकता है। वहीं कृत्रिमता और स्वादों से सजाया हुआ भोजन आठ-दस रुपयों में भी पूरा नहीं हो सकता है। अस्तु, अभाव का कारण मूल आवश्यकता की पूर्ति नहीं, भोजन के साथ जुड़ी हुई कृत्रिमता ही है।

वस्त्र एवं निवास के साथ भी यही बात है। शरीर ढ़कने के लिए कपड़ा चाहिए जिससे कि शरीर की भी रक्षा हो सके और सभ्यता की भी। यह काम साधारण मोटे कपड़ों की दो-तीन जोड़ी से आसानी से हो सकता है। इसके लिए मनुष्य को अधिक व्यग्रता अथवा व्यय की जरूरत नहीं पड़ती। बुद्धिमानी तथा सावधानी से थोड़े पैसों में ही काम चलाया जा सकता है। किन्तु जब कपड़े की यही सामान्य जरूरत मूल्यवान वस्त्रों, प्रकारों, फैशनों तथा अनेकताओं की कृत्रिमताओं से बोझिल कर दी जाती है तब उसका खर्च उठाना मुश्किल हो जाता है। पचास रुपये साल का खर्च बढ़कर पाँच सौ रुपये साल हो जाता है। ऐसी कृत्रिम जरूरत से मनुष्य का पैसा बरबाद होगा ही, फलस्वरूप वह अभाव की आग में जलेगा भी।

प्रकाश तथा वायु की सुविधा वाला एक स्वच्छ व साधारण-सा मकान साधारण रूप से थोड़े पैसों में बनवाया अथवा किराये पर पाया जा सकता है। किन्तु जब निवास की इस जरूरत के साथ आलीशान सजी हुई कोठी की कल्पना अथवा कृत्रिमता जोड़ दी जाती है तब वह साधारण जरूरत असाधारण बन जाती है। अपनी पूर्ति में या तो मनुष्य का पैसा व्यय करा देगी अथवा अभाव की पीड़ा से परेशान करेगी।

सामान्यतः मनुष्य की जरूरतों की तीन कड़ियाँ हैं। मूल जरूरतें, कृत्रिम अथवा विलास जन्य जरूरतें और व्यसन-रूप जरूरतें। जीवन-रक्षा से सम्बन्धित भोजन, वस्त्र और निवास की साधारण जरूरतें मूल जरूरतें हैं। इन्हीं जरूरतों का अनावश्यक स्तर बढ़ा देने से यही मूल जरूरतें कृत्रिम तथा विलास-विषयक हो जाती हैं। नशीली, प्रदर्शन परक तथा वासना बोधित जरूरतें व्यसन रूप जरूरतें हैं। यह तीसरे स्तर की आवश्यकतायें मनुष्य-जीवन के लिए जरूरी तो नहीं ही हैं वरन् हानिकारक भी हैं। यह न केवल कमाई को ही नष्ट कर देती हैं वरन् स्वास्थ्य एवं शक्ति को भी स्वाहा कर देती है। व्यसन-विषयक जरूरत तो मानव-जीवन की भयानक शत्रु है। इन्हें जरूरतों की कोटि में न रखकर दुर्भाग्य की कोटि में रखना ही उचित होगा।

जरूरतों के न्यूनाधिक्य के अनुपात से ही दुःख-सुख की वृद्धि होती है, जिसकी जरूरतें जितनी कम हैं वह उतना ही अधिक सन्तुष्ट एवं सुखी रहेगा। उसे अभाव की पीड़ा नहीं भोगनी होगी। जिसकी जरूरतें जितनी ही अधिक होंगी वह उतना ही असन्तुष्ट एवं दुःखी होगा और उसके सम्मुख हर समय अभाव का भूत खड़ा रहेगा। मनुष्य जरूरतों को तो बिना किसी कठिनाई के आसानी से बढ़ाया जा सकता है किन्तु उनकी पूर्ति के लिए अपनी आय को आसानी से नहीं बढ़ा सकता। जरूरतों की पूर्ति न होने की पीड़ा, आय बढ़ने की प्रतीक्षा तो करती नहीं, वह तो तत्काल सताने लगती है और तब तक सताती रहती है जब तक कि उसकी पूर्ति नहीं हो जाती। किन्तु इसके साथ एक मुसीबत यह है कि एक जरूरत की पूर्ति हुई नहीं कि दूसरी तैयार। जरूरतों की वृद्धि रक्तबीज की तरह होती रहती है। यदि कोई किसी प्रकार दस जरूरतों की पूर्ति कर पाता है तो उसके साथ उतनी ही और खड़ी हो जाती हैं। जरूरतों की वृत्ति का यह तार-तम्य किसी भी प्रकार रुकता नहीं। फिर एक जरूरत एक बार-पूरी होने के बाद दूसरी बार के लिए फिर तकाजा करने लगती हैं। जरूरतों की पूर्ति से उनकी वृद्धि नहीं रोकी जा सकती।

मूल जरूरतें, आवश्यकतानुसार आगे भी बढ़ सकती हैं। मनुष्य के सामाजिक अथवा स्थानीय स्तर के साथ इनका स्तर भी बढ़ाया जा सकता है, किन्तु केवल तब ही जब उसका बढ़ाया जाना अनिवार्य न हो जाये बल्कि उपयोगी भी हो जाये। समाज में प्रतिष्ठा बढ़ जाने अथवा स्थान के ऊँचा हो जाने पर किसी को अपने रहन-सहन का स्तर ऊँचा करना पड़ सकता है। कार्य-कुशलता अथवा बौद्धिकता के कारण भोजन का सामान्य तथा साधारण खर्च बढ़ाया जा सकता है। किन्तु यह बढ़ाया तब ही जाए जब उसकी नितान्त आवश्यकता हो जाए और उसके अनुरूप या तो उनकी आय में बढ़ोतरी हो गई हो अथवा बढ़ने की सम्भावना हो। प्रदर्शन अथवा अहं-प्रसन्नता के लिए ही साधारण स्तर को असाधारण रूप में बढ़ाना विलास एवं अपव्ययता होगी।

इसके साथ यह जरूरी ही नहीं है कि स्तर तथा स्थान बढ़ जाने पर भी जरूरतों का स्तर बढ़ाया ही जाये। रहन-सहन अथवा आहार-विहार का स्तर तो वास्तव में उसकी स्वच्छता, सादगी तथा व्यवस्था ही मानी जानी चाहिए, न कि बहुमूल्यता अथवा बहुतायतता। भारत में तो ऐसे महापुरुषों की परम्परा ही चलती रही है कि समाज में सर्वोपरि प्रतिष्ठा पा लेने पर भी उनके रहन-सहन तथा आहार-विहार का स्तर पूर्ववत् ही साधारण बना रहा, उसे उन्हें उठाने की न कोई आवश्यकता अनुभव हुई और न उनकी बढ़ी हुई सामाजिक प्रतिष्ठा ने ही इसके लिए दबाव डाला। फिर भी स्तर, स्थान तथा आय के अनुसार रहन-सहन को उठाने की छूट मानी जा सकती है, किन्तु यह हो जरूरत और उपयोगिता के अनुसार ही, प्रदर्शन या प्रसन्नता के लिए नहीं।

कृत्रिम एवं व्यसनमूलक जरूरतों की अनियन्त्रित वृद्धि ने समाज में शोषण का चक्र चला रखा है। यह सही है कि मनुष्य अपनी अनावश्यक तथा अनुचित जरूरतों की पूर्ति के लिए दूसरों का शोषण करने लगा है। किन्तु यह भी किसी प्रकार झूँठ नहीं है कि मनुष्य दूसरे की अपेक्षा स्वयं अपना शोषक अधिक है। कोई दूसरा तो उसका शोषण चार-छः अथवा दस-बीस प्रतिशत कर पाता होगा किन्तु आदमी अपनी पाली हुई निरर्थक जरूरतों को अपनी पूरी अथवा अधिकाँश कमाई चुगा देता है। अपनी अनावश्यक जरूरतों को बढ़ाकर फिर उनकी मजबूरन पूर्ति करने के लिए कमाई का अपव्यय करना अपनी आय का शोषण करना ही तो है। फिर व्यसन पालकर तो वह अपना आर्थिक शोषण ही नहीं करता, जीवनी-शक्ति एवं स्वास्थ्य का भी शोषण किया करता है। शोषण की शिकायत दूसरे से करने से पहले मनुष्य को जरूरतें घटाकर स्वयं अपना शोषण बन्द करना चाहिए। दूसरों के शोषण से त्रस्त मनुष्य यदि एक बार स्वयं अपना शोषण बन्द कर दें तो भी बहुत राहत पा सकता है।

यदि आप अभावों से दुखी रहते हैं, दिन-रात परिश्रम करते हैं फिर भी पूर्ति का सन्तोष नहीं पाते तो अपने जीवन पर नजर डालिए। अपनी आय की कमी की शिकायत करने के बजाय अपने व्यय की विवेचना कीजिए। अवश्य आप पायेंगे कि आपकी आय उतनी कम नहीं है जितनी कि आपकी जरूरतें बढ़ी हुई हैं। यदि आप बिना किसी विशेष उद्योग अथवा आय-वृद्धि के सुखी एवं संतुष्ट होना चाहते हैं और अभावों के चंगुल से छूटना चाहते हैं तो आज ही अपनी जरूरतें कम करना प्रारम्भ कर दीजिए। सर्वप्रथम व्यसन-मूलक जरूरतें तो ऐसे छोड़ दीजिये जैसे धोखे से हाथ में आ जाने पर आग को छोड़ देते हैं। इसके बाद देखिए कि ऐसी भी कोई जरूरत तो नहीं जो अनावश्यक सुख-सुविधा की द्योतक हो। इन स्तरीय जरूरतों को केवल वहीं तक रखिए जो आपके स्थान अथवा स्तर के अनुरूप हों और जीवनोपयोगी भी हों। प्रदर्शन या अहंप्रसन्नता के लिए जीवन-स्तर पर व्यय करना अपने परिश्रम के साथ अन्याय करना है। यह संचय कुछ समय में ही पुराने होकर आकर्षणहीन और निरर्थक हो जाते हैं।

आप अपनी केवल उन्हीं जरूरतों को रखिए और उन्हीं पर खर्च करिए जो मूल और जीवन के लिए नितान्त आवश्यक हों। जरूरतों को वश में कर लेने पर आपके जीवन में सुख-सन्तोष और सम्पन्नता निश्चित हो जायेगी। सुखी होने का यह उपाय सदा ही आपकी शक्ति में है। इसे कीजिए और सन्तोषपूर्ण अभावहीन जीवन-यापन करते हुए अपना आत्मिक विकास कीजिए।


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