विवाह का स्वरूप एक धार्मिक कृत्य जैसा रहे

January 1967

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विवाह को प्रत्येक मानव-समाज में एक धार्मिक कृत्य ही माना गया है। लगभग सभी देशों एवं जातियों में इसे धार्मिक कृत्य के रूप में ही सम्पन्न किया जाता है। हिन्दुओं में तो यह विशेष रूप से धार्मिक कृत्य है ही। मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी आदि सभी जातियों में इसे अपने-अपने प्रकार से धर्म-कृत्य मानकर ही किया जाता है।

विवाह से बढ़कर दूसरा कोई धार्मिक कृत्य हो भी क्या सकता है? इस अवसर पर दो आत्मायें अपना स्वतंत्र अस्तित्व खोकर एक दूसरे में मिल जाती है। दो नवीन घटक एक नये परिवार की रचना का महान उत्तरदायित्व संभालने का व्रत लेते हैं। दो मानव प्राणी उस गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं जिसके द्वारा अन्य सारे आश्रमों का पालन होता है। पति-पत्नि के रूप में कन्या और कुमार एक सूत्र में आबद्ध होकर, दो जीवनों की अपूर्णता को पूर्णता में परिणत करते हुए समाज, राष्ट्र एवं संसार के लिये सुन्दर नागरिक देने के लिए व्रत-बद्ध होते हैं।

एक नये परिवार की रचना का उत्तरदायित्व ग्रहण करना और सफलतापूर्वक उसके प्रयोजन का सम्पादन करने के लिए वचन-बद्ध होना कम महत्वपूर्ण नहीं है। ऐसे दो व्रतधारियों को साहस, सम्बल, श्रद्धा तथा शिक्षा देने के लिए ही धर्मपूर्ण विवाहोत्सवों का आयोजन किया जाता है। अनेक लोग बारातियों एवं जनातियों के रूप में इस परिणय-सूत्र को समाज सम्मानपूर्वक मान्यता देता है और उनके इस व्रत की सफलता के लिये आशीर्वाद एवं सद्भावनायें प्रदान करता है। विवाह के अवसर पर बारातियों, जनातियों, मित्रों, परिचितों तथा बंधु-बाँधवों के एकत्र होने का मुख्य प्रयोजन यही है अन्यथा बिना किसी उत्सव-समारोह के वर-वधू को केवल गुरुजन ही आबद्ध कर नर-नारी के मिलनार्थक विवाह-कार्य को पूरा कर सकते हैं।

विवाह के अवसर पर इस सामाजिक समारोह से कहीं अधिक धार्मिक आयोजन का मूल्य एवं महत्व है। अतिथि, आमंत्रित एवं आगन्तुक तो शुभाशीष एवं सद्भावनायें देकर चले जाते हैं। विवाह-समारोह से उनका संबंध तो एक दो दिन का, सो भी औपचारिक रूप से सामाजिकता के नाते रहता है। पर वास्तविक संबंध तो पति-पत्नी के बीच ही होता है जो कि उन्हें संसार की हर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में समान रूप से सुख-शाँतिपूर्वक ही निभाना होता है। पति-पत्नी रूप में स्त्री-पुरुष का यह संबंध प्रत्येक स्थिति में तभी चिरस्थायी रह सकता है जब उसे व्रतपूर्वक धार्मिक व्रत के रूप में ग्रहण किया जाता है- आत्मावान मनुष्य उसे लौकिक एवं परलौकिक सुख-शाँति एवं सफलता के लिये प्राण-पण से निभाने की कोशिश करता है। धार्मिक आधार पर धारण किये हुए कर्त्तव्य का विश्वासघात कर सकना मनुष्य के लिए कठिन होता है। क्योंकि वह जानता है कि ऐसा करने से उसको पाप लगेगा और जन्म-जन्माँतरों तक उसकी आत्मा को नरक की यातना भोगनी पड़ेगी।

स्त्री-पुरुष का सहज-मिलन विवाह-संस्कार के रूप में धर्म-कर्त्तव्य बनकर पुण्य युक्त संबंध में बदल जायेगा। उनकी प्रत्येक दाम्पत्य क्रिया धार्मिक परिधि में प्रतिष्ठित हो जाती है। मानव-जीवन का इन सहजताओं का पवित्रीकरण हो सकना तभी संभव हो सका है जब विवाहित जीवन को धार्मिक उत्तरदायित्व माना जाये अन्यथा विषम-योनियों का मिलन तो पशु-पक्षियों में भी होता रहता है। किन्तु उसका न कोई मूल्य है और न महत्व। वह एक साधारण-सी जैविक प्रक्रिया है जो प्रकृति रूप से सृष्टि का प्रयोजन सिद्ध करती रहती है। न कोई धर्म होता है और न ही आदर्श। यह सौभाग्य केवल मानव को ही मिला है कि वह उस जैविक प्रक्रिया को धार्मिक रूप देकर आध्यात्मिक लाभ तक प्राप्त कर सकता है।

विवाह निश्चित रूप से एक यज्ञ है। इस अवसर पर दो आत्मायें देवताओं को साक्षी एवं यज्ञाग्नि को मध्यस्थ बनाकर एक-दूसरे का ग्रहण एवं वरण किया करती हैं और पंच-परमेश्वर की उपस्थिति में आजीवन एक-दूसरे का साथ निभाने के लिए शपथ लेते हैं। वर-वधू एक-दूसरे के प्रति अपने कर्त्तव्य को निवाहने लिए परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं। परमात्मारूप पुरोहित उन दो अनुभवहीन आत्माओं और दाम्पत्य-जीवन की सफलता के लिए शिक्षा एवं आशीर्वादों का संबल देता है, उन्हें पारिवारिक एवं गृहस्थ-जीवन के अधिकार व कर्त्तव्यों का ज्ञान कराता है। उपस्थित जन अपनी सद्भावनाओं एवं मंगल कामनाओं के फूल बरसाते हैं। इस प्रकार सभी और से कुछ ऐसी पवित्र एवं पुण्य क्रियायें-प्रक्रियायें होती हैं जिससे वर-वधू के मन-मस्तिष्क पर एक प्रबोधक प्रतिक्रिया होती है जो उनके संस्कारों को उन्नत, उदात्त एवं उत्तरदायित्व को बढ़ाने में सहायक होती है। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि वे एक महान कर्त्तव्यों को अपने कंधों पर धारण कर रहे हैं जिसका सही रूप में पालन करना उनका परम धर्म है। हमने जिसको अपनाया है, अपना बनाया है और इस दैवी वातावरण में जिन यज्ञीय प्रतिज्ञाओं को लिया है उनका उचित निर्वाह ही उनके जीवन का लक्ष्य है, जिसे पाने के लिये वे हर कठिनाई को उठाने के लिए तत्पर रहेंगे। उस धर्मपूर्ण विवाहोत्सव के अवसर पर जो छाप वर-वधू के मन-मस्तिष्क पर पड़ जाती है वह फिर आजीवन दूर नहीं होती और उसी के अनुसार उनका अधिकतर जीवन-क्रम चलता रहता है। यदि तात्कालिक वातावरण ने उनके मन-मस्तिष्क को कर्त्तव्यपूर्ण छाप से छापा है तो दंपत्ति आजीवन कर्त्तव्य के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे और एक सफल गृहस्थ-जीवन के अधिकारी बनेंगे अन्यथा प्रकट की छाप उनके दाम्पत्य प्रवाह को किस ओर मोड़ देगी कहा नहीं जा सकता। अतएव वर-वधू की मंगलकामना से विवाहोत्सव का वातावरण पूर्ण धार्मिक एवं अधिक-से-अधिक पवित्र बनाये रखना चाहिये। यही उस विवाहोत्सव का उद्देश्य भी है और शास्त्रों की आज्ञा भी।

किन्तु आज दुर्भाग्य अथवा अज्ञानवश अपने समाज में विवाहोत्सवों को धार्मिक अनुष्ठान की स्थिति से हटाकर एक खिलवाड़, एक कौतुक, एक मनोरंजन अथवा प्रहसन जैसा बना दिया गया है। विवाह-संस्कारों में आने वाला यह परिवर्तन बड़ा ही अवाँछनीय एवं आक्रमणकारी सिद्ध हो रहा है। विवाहोत्सव में अवाँछनीयताओं ने प्रवेश पाकर दाम्पत्य जीवन में असफलताओं के बीजारोपण करने शुरू कर दिये हैं, जिसके फलस्वरूप घर-घर कलह-क्लेश होता देखा जाता है।

जिस विवाह-संस्कार के अवसर पर अधिकाधिक धार्मिक वातावरण रखा जाना चाहिए जिससे नव-दम्पत्ति का हृदय पवित्रता एवं सात्विकता से ओत-प्रोत हो उठें, उस अवसर पर स्त्रियाँ अश्लील, असभ्य एवं विकारोत्पादक गीत गाती हैं। विवाहों के अवसर पर गीतों की आवश्यकता भी है। गीत उस समय के हर्ष एवं उल्लास की अभिव्यक्ति करते हैं। गाये जाने वाले गीत पवित्र एवं सामयिक भावों के अनुकूल ही होने चाहिएं। विवाहों के अवसर पर गाये जाने वाले गीत ‘मंगल गान’ कहे जाते हैं। उन गीतों को ‘मंगल-गान’ किस प्रकार कहा जा सकता है, जिनमें अश्लीलता, अभद्रता एवं अशिष्टता का समावेश हो। स्त्रियों द्वारा गाये गये उत्तेजक गीतों को सुनकर क्या वर-वधू और क्या उपस्थित व्यक्तियों, किसी की भी तो मनोवृत्ति बिना कुप्रभाव पड़े यथावत् नहीं रहती। यदि उनका कोई स्थायी प्रभाव न पड़े तो भी उस समय की वह गीतमयी अभद्रता असह्य होती है। गंदे गीतों को सुनकर हर भले आदमी को परेशानी होती है।

एक तो गंदे गीत यों ही अवाँछनीय हैं तिस पर उनको घर की बहू-बेटियाँ वहाँ उपस्थित पुरुष-समाज को सुनाकर गायें-यह एक घोर अनर्थ ही है। जब गंदे गीतों का प्रभाव सुनने वालों पर ही अवाँछनीय रूप से पड़ता है तब उनके गाने वाली महिलाओं पर कितना कुत्सित प्रभाव पड़ता होगा इसका अनुमान करने से हृदय क्षोभ से भर जाता है। उस पवित्र अवसर पर नारियों को गंदे गीत नहीं ही गाने चाहिये। यह असभ्यता, अशिष्टता का प्रदर्शन है जो किसी भी भारतीय महिला के लिए अशोभनीय ही है।

विवाह के अवसरों पर लेन-देन के झगड़ों, रीति-रिवाजों का झंझट कभी-कभी यहाँ तक बढ़ जाता है कि वह वाद-विवाद तथा कहा-सुनी की स्थिति उपस्थित कर देता है जिससे वह प्रसन्न एवं पवित्र संस्कार हाहाकार में बदल जाता है। विवाहरूपी यज्ञ का पुण्य ध्वंस हो जाता है। अशाँत, विक्षुब्ध तथा हाय-हाय से भरा वातावरण उन वर-वधू पर बड़ी ही अप्रिय छाप डालता है और विवाह अनुष्ठान से उन्हें जो उदात्तता प्राप्त करनी चाहिए, उसे वे प्राप्त नहीं कर पाते। उन्हें वह सत्कार एवं गरिमापूर्ण धर्मकृत्य के स्थान पर एक झंझट-सा विदित होने लगता है। विक्षुब्ध वातावरण की पड़ी हुई ओछी छाप उन्हें दाम्पत्य-कर्त्तव्यों में संकीर्ण एवं तुच्छ बना देती है। वर तथा कन्या पक्षों के लड़ने-झड़ने से वर-वधू पर भी अपने-अपने रक्त के अनुसार विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिससे उन दोनों में भी अनजान में मनोमालिन्य के बीज वपन हो जाते हैं, जो भावी जीवन में गृह-कलह के रूप में फलीभूत भी होते रहते हैं।

इसी प्रकार कभी-कभी माँस-मदिरा का सेवन कर उस धर्म-कृत्य को आसुरी आचरण में बदल देते हैं। बारातियों द्वारा नशा करके बकने-झकने और पागलों जैसे काम करने पर विवाह का वातावरण किस प्रकार पवित्र एवं सद्भावना युक्त रह सकता है? उस उल्लास एवं प्रसन्नतापूर्ण उत्सव के अवसर पर माँस के लिए जीवों की हत्या करना नव-दंपत्ति के भावी जीवन पर कौन-सा अभिशाप अवतरित न करेगा, नहीं कहा जा सकता। जिस अनुष्ठान में यज्ञ हो, वेदों की ऋचायें पढ़ी जायें और शास्त्रों के मंत्र उच्चारण किये जा रहे हों, उसमें नशा करके और माँस खाकर शामिल होने वाले बाराती अथवा जानती क्या उसे अपवित्र एवं आसुरी न बना देंगे? ऐसे भ्रष्ट यज्ञ द्वारा यदि कोई देवताओं को प्रसन्न कर वर-वधू के भावी जीवन की कामना करता है तो वह भूल करता है। इन अवांछनीय क्रियाओं से तो देवता प्रसन्न होने के स्थान पर रुष्ट ही हो जायेंगे। अस्तु आवश्यक है कि विवाह-यज्ञ की सफलता तथा वर-वधू के भावी जीवन के मंगल के लिए विवाहों में माँस-मदिरा का प्रयोग कदापि न किया जाये।

इन अवाँछित कुरीतियों के अतिरिक्त वेश्याओं के नाच, स्वाँग, नौटंकी आदि की मनोरंजन-व्यवस्था भी विवाह-अनुष्ठान पर कुत्सित प्रभाव डालती है? इस निम्न स्तर के मनोरंजन के कारण न जाने कितनी बार लड़ाई-झगड़ा तथा खून-खराबी तक हो जाती है। भला विवाह जैसे प्रसन्न तथा पवित्र संस्कार के अवसर पर इस प्रकार की अशिव घटनायें कहाँ तक उचित एवं सराहनीय कहीं जा सकती हैं?

इसी प्रकार व्यंग्य-विनोद, हंसी-मजाक, रंग-रोगन के व्यवहारों द्वारा विवाहोत्सव को न जाने कितना गंदा, अश्लील और असहनीय बना दिया है। कुछ लोगों के कपड़े खराब हो जाते हैं, चोटें लग जाती हैं और कभी-कभी लड़ाई-झगड़ा तक भी हो जाता है। विवाह जैसे विशुद्ध धार्मिक कृत्य के अवसर पर इस प्रकार की असभ्यतायें तथा अशिष्टतायें किसी प्रकार भी शोभा नहीं देतीं। इनको हर प्रकार से बंद करने और इनके स्थान सभ्य, श्लील तथा शालीन रीतियों का समावेश किया जाना ही उचित है। विवाह के अवसर पर किसी प्रकार की भी अभद्रता अथवा अधार्मिकता न तो क्षम्य ही है और न शोभनीय ही।


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