जो कुछ करिये पहले उस पर विचार कीजिये।

January 1967

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संसार के 80 प्रतिशत दुःख का कारण केवल यह है कि मनुष्य जो कुछ करता है उस पर या तो विचार नहीं करता या विचार द्वारा किसी ठोस निष्कर्ष तक पहुँचने के पूर्व ही कार्य आरम्भ कर देता है। नासमझी से किये जाने वाले कार्यों के परिणाम भी भोंड़े, अधूरे और दुःखदाई ही होते हैं। सन्त बिनोवा का यह कथन नितान्त सत्य ही है कि “विचार का चिराग बुझ जाने से आचार अन्धा हो जाता है।” इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है, कि यदि कार्य के परिणाम पर कुछ सोचने से पूर्व ही यदि मनमाने ढंग से या उतावली में कुछ करने लगें तो उससे विपरीत परिणाम ही उत्पन्न होते हैं। कई बार तो मनुष्य ऐसी उलझन में पड़ जाता है कि उसे यह भी सूझ नहीं पड़ता कि अब बचाव के लिये क्या किया जाए? इस दुःख से दुःखी होकर अधिकाँश व्यक्ति अपनी शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का अपव्यय किया करते हैं। किसी कार्य का आरम्भ करने के पूर्व यदि उसके व्यावहारिक पहलुओं पर विचार कर लिया जाए तो अनेक कठिनाइयों से बचा जा सकता है, शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों का अपव्यय रोका जा सकता है।

किसान इस बात को जानता है कि किसी खेत को कितनी बार पानी दें? उस की जुताई कैसे और कितनी बार की जाए? उसकी घास, पात और निराई कब हो? कौन-सा बीज किस ऋतु में बोने से फसल पैदा होगी? इन सभी संभावनाओं पर उसकी दृष्टि खुली हुई होती है तभी वह अच्छी पैदावार उगा पाता है। कार्तिक की फसल अषाढ़ में, अषाढ़ की कार्तिक में, सुखे-अनसूखे कैसे ही खेत में उल्टा-सीधा कोई भी बीज डाल देने से फसल हो जाना मुश्किल है। यदि किसी तरह हो भी जाए तो वह अच्छी भी न होगी और ठीक ढंग से उपजाई गई फसल से बहुत ही घटिया किस्म की होगी।

मनुष्य भी एक तरह का किसान है जो संसार में कर्म की खेती करते हैं। विचार कर्म का बीज है, यदि उसे उपयुक्त समय, उपयुक्त वातावरण न मिले तो लाभ होने की अपेक्षा हानि होने की ही संभावना अधिक रहेगी। इन दिनों ऐसे कर्मों की बाढ़ सी आ गई है जिन्हें लोग बिना विचार किये हुए करते हैं और जब उनके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं तो ईश्वर, भाग्य, समाज तथा सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाते रहते हैं। इतने पर भी उनका दुःख नष्ट नहीं होता, एक बार का उपजा कर्मफल चाहे वह दुःख दें या सुख उसे तो भुगतना ही पड़ता है।

सोचते भी हैं तो अपनी शक्ति और सामर्थ्य से बहुत चढ़ा बढ़ाकर। पर परिस्थितियों में एकाएक परिवर्तन तो हो नहीं जाता। कर्ज लिये हुये धन को चुकाने के लिये भी तो कमाई ही करनी पड़ेगी। फिर उस समय जब सारी कमाई ब्याज समेत उघाई में ही चली जायेगी तब अपना तथा बच्चों का क्या होगा? इन नासमझ लोगों का जीवन ही एक तरह से उधार हो जाता है। वे दूसरों का ही मुँह ताकते रहते हैं। अपनी शक्तियों का उपयोग कर कुछ अच्छी परिस्थिति प्राप्त करने की शक्ति व सामर्थ्य का उनमें अभाव होता है।

औंधे सीधे कार्य जिनका कोई पूर्वाकार नहीं होता वे मनुष्य को कठिन दुःख देते हैं। चोरी, भ्रष्टाचार, नशेबाजी आदि बुरी आदतें भी ऐसी ही होती हैं जिनके परिणाम जाने बिना या जानकर भी घृष्टता पूर्वक लोग उन्हें व्यवहार में लाते हैं, इनके परिणाम बड़े कष्टकर होते हैं। सबसे हानिकारक वस्तु अविचारिता ही है जिससे लोग गलत परिणाम भुगतते हैं।

इसलिये कोई भी कार्य करने के पूर्व उसे अच्छे बुरे दोनों दृष्टिकोण से परखें। सोना खरीदा जाता है तो उस की कीमत और असलियत दोनों पर विचार किया जाता है। इसी तरह कोई भी कार्य क्यों न हो उससे लाभ क्या होगा इतना सोचने के बाद यदि वे लाभदायक हों और उनसे अनिष्ट की संभावनायें न दीख पड़ती हों तो ही उन्हें क्रिया रूप देना चाहिए। नशा करना है तो यह भी सोचिये कि उससे शरीर पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है और सामाजिक स्थिति पर उसकी कैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। कुल मिलाकर यदि उसमें लाभ दिखाई देता हो तब तो कोई भी उसे बुरा न कहता पर सभी देखते हैं नशा मनुष्य के धन को बरबाद करता है, तन फूँकता है और सामाजिक शाँति व व्यवस्था को भंग करता है। इन परिणामों का एक काल्पनिक रूप जो बना लेगा उसके लिए अपमान, अपव्यय तथा उत्तेजनाओं से बच सकना असंभव हो जायेगा। यह बात एक नशे में ही लागू नहीं होती। संसार का कोई भी कार्य हो उसकी अच्छी-बुरी परिस्थितियों पर विचार करने के उपरान्त ही उसे मूर्तरूप देना समझदारी की बात होगी। जो इस समझदारी को जितना अधिक व्यवहार में उतारेगा वह उतना ही सफल व्यक्ति बनेगा यह निश्चित है।

यह भी ध्यान रहे कि अपने स्वार्थ या सुख प्राप्ति को ही प्रमुख मानकर आप विचार न करने लग जायें अन्यथा उसकी बुराइयों की ओर आपका ध्यान भी नहीं जायेगा। विचार उभय पक्षीय तथा निष्पक्ष होना चाहिये। अपने सुखों के लिये प्रायः लोग ऐसा ही करते हैं कि वे उसके हानिकारक पहलू पर दृष्टिपात नहीं करते। जुआरी आदमी यही सोचता है कि वही सारा धन जीत लेगा, पर ऐसी मान्यता तो उनमें से प्रत्येक की होती है, यह कोई नहीं सोचता कि जीत तो एक की ही होगी, शेष तो सब हारने वाले ही हैं। “हारने वालों में मैं भी हो सकता हूँ” ऐसा जो सोच सकता है वह जरूर बुराइयों से और उनके बुरे परिणाम से बच सकता है। कोई भी विचार एकाँगी होता है तभी बुराइयों को स्थान मिलता है, इसलिये हमारी विचार शक्ति निष्पक्ष व सर्वांगीण होनी चाहिए।

किसी कार्य को केवल विचार पर भी न छोड़ देना चाहिए। कार्य रूप में परिणित हुए बिना योजनायें चाहे वे कितनी ही अच्छी क्यों न हों लाभ नहीं दें सकतीं। उन्हें क्रिया-रूप भी मिलना चाहिये। विचार की आवश्यकता वैसी ही है जैसी रेलगाड़ी को स्टेशन पार करने के लिए सिगनल की आवश्यकता होती है। सिगनल का उद्देश्य केवल यह है कि ड्राइवर यह समझले कि रास्ता साफ है, अथवा आगे कुछ खतरा है? विचारों के द्वारा भी ऐसे ही संकेत मिलते हैं कि वह कार्य उचित और उपयुक्त है या अनुचित और अनुपयुक्त? यह समझ जाने पर उस विचार को क्रिया-रूप दें देना चाहिए। बुरे परिणाम की जहाँ आशंका हो उन कार्यों को छोड़कर शेष विचार आचरण में प्रयुक्त होने चाहिएं तभी कोई काम बन सकता है। महात्मा गाँधी का कथन है-”आचरण रहित विचार कितने ही अच्छे क्यों न हों उन्हें खोटे सिक्के की तरह समझना चाहिए।”

इससे यह सिद्ध होता है कि कोरा आचरण अपने आप में पूर्ण नहीं। उसी प्रकार केवल विचार से भी कोई काम नहीं बनता। आत्म सफलता के लिये दोनों की आवश्यकता समान रूप से है। कबीरदास की यह सम्मति किसी विचारक की शिक्षा से कम महत्वपूर्ण नहीं कि-

आचरण सब जग मिला, मिला विचारी न कोय।

कोटि अचारी वारिये एक विचारी जो होय॥

अर्थात्- इस संसार में आचरण करने वाले बहुत हैं पर उन पर विचार करने वाले बहुत कम हैं। जो मनुष्य विचारपूर्वक कार्य करता है वह केवल आचरण करने वाले हजार पुरुषों से अच्छा है।”


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