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January 1967

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परावलम्बी पुरुष ही होनहार या दैव ऐसे शब्दों का सहारा अधिक लिया करते हैं। वे पुरुषार्थ तो करना नहीं चाहते, सारा काम भाग्य, होनहार या दैव के सहारे छोड़कर चलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि पुरुषार्थी व्यक्ति को स्वावलम्बी अवश्य होना चाहिये या यों कहिए कि स्वावलम्बी वही हो सकता है जो पुरुषार्थ करता है। पुरुषार्थ में जिसका अद्भुत विश्वास है, पुरुषार्थ जिसके जीवन का एक प्रमुख अंग है, पुरुषार्थ से जो पीछे नहीं हटना जानता, वही स्वावलम्बी हो सकता है तथा वही सफल भी हो सकता है।

महात्मा गाँधी ने एक स्थान पर कहा कि देश के हर बालक को पहले स्वावलम्बी बनाने का पाठ पढ़ाना चाहिए। हमें यह गुण पाश्चात्य देशवासियों से सीखना चाहिये। व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि जिन परिवारों के बालक परावलम्बी हो जाते हैं, उनमें स्वावलम्बन बहुत कम मात्रा में पाया जाता है। इसके विपरीत पाश्चात्य देशों में धनी से धनी पुरुष अपने कार्य को अपने हाथ से करने से संतोष, गर्व व सुख का अनुभव करता है। वह उसे कर्तव्य समझकर करता है और इस कारण कठिन से कठिन परिस्थिति में वह दृढ़ रहता है।

मस्तिष्क को पक्षपात से दूर रखिए।

मस्तिष्क मनुष्य का मित्र माना गया है। वह जीवन पर अग्रसर होने में सहायक होता है। मस्तिष्क ही राह दिखलाया करता है और उस पर चलने की प्रेरणा भी दिया करता है। अच्छाई-बुराई की सूचना देना भी उसी का काम होता है। मनुष्य को अपना वास्तविक नेता अपने मस्तिष्क को ही समझना चाहिए।

मनुष्य के मस्तिष्क में उलझाव तब पैदा होता है जब वह अपने अन्दर किन्हीं बातों को स्थायी रूप से स्थापित कर लेता है और उनके विषय में सोचना-समझना छोड़ देता है। जो बात जिस प्रकार स्थापित हो गई है उसको उसी प्रकार माने रहने से मस्तिष्क की अपनी मौलिकता समाप्त हो जाती है। वह तब किसी बात पर सोचता भी है तो उसकी विचारधारा पूर्व स्थापित रेखाओं के बीच से ही बहती चलती है, जिससे वह सोचता तो है किन्तु उन्हीं के अनुरूप सोचने को मजबूर हो जाता है।

यद्यपि ऐसा वह जान बूझकर अवश्य नहीं करता तब भी उसकी विचारधारा रहती है एक ढ़ार पर, जिस प्रकार पटरी में फँसे हुए रेलगाड़ी के पहिए स्वयं चलते हुए अपनी गति में स्वतन्त्र नहीं रहते और जो दिशा पटरी की होती है वही दिशा पहिए भी ग्रहण कर लिया करते हैं, उसी भाँति पूर्व मान्यतायें बनी रहने से मस्तिष्क भी उन्हीं के अनुरूप सोचा करता है।

जिस प्रकार रेल के पहिए फँसे रहने से पटरी के अधीन होते हैं, उसी प्रकार पूर्व निर्धारित मान्यताओं में फँसे रहने से मस्तिष्क की गति उनकी गुलाम बनी रहती है। वह जो कुछ भी सोचता, कहता अथवा प्रतिपादित करता है उसमें मान्यताओं के प्रति पक्षपात का आग्रह रहा करता है।

इस प्रकार का एकांगीय अथवा पक्षपाती मस्तिष्क कभी भी अच्छा मित्र नहीं रहता। जिस प्रकार किसी मित्र के प्रभाव में रहने से कोई उसका परामर्श मानने का अभ्यस्त रहा करता है उसी प्रकार मस्तिष्क के प्रभाव में रहने से मनुष्य उसकी आज्ञा मानता ही है। ऐसी दशा में पक्षपाती मस्तिष्क परामर्श देने में सक्षम नहीं होता।

अपने इसी पक्षपात जन्य विश्वास के कारण वह कभी-कभी अपनी मान्यताओं को दूसरे पर थोपने की अनाधिकार चेष्टा भी किया करता है जिससे अनेक प्रकार के संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं। अपनी मान्यतायें मनाने का मनुष्य को बड़ा चाव रहता है। उनके प्रति प्यार होने के कारण उसकी इच्छा रहती है कि सारा संसार उन्हें प्यार करे, उनका आदर करे और उसी की तरह अपनाये भी। इस अनधिकार चेष्टा में उसको लोकप्रियता अथवा नेतृत्व का लोभ भी रहता है। यही नेतृत्व की लोकेषणा कभी-कभी वास्तविक मूल्य जानते हुए भी अपनी मान्यताओं के अधिक मूल्याँकन की दुर्बलता पैदा कर देती है।

संसार में फैले हुए संघर्षों के मूल में बैठकर यदि विचार किया जाए तो पता चलेगा कि वर्तमान अशाँति का मुख्य कारण अपनी-अपनी मान्यताओं के प्रति मनुष्य का पक्षपात ही है। कोई साम्राज्यवाद में संसार का कल्याण देखता है तो कोई समाजवाद में। कोई स्थायी सुख-शाँति को मानता है तो कोई सहअस्तित्व को। कोई हिंसा में विश्वास करता है तो कोई अहिंसा में। कोई आस्तिकता की दुहाई देता है तो कोई नास्तिकता को जरूरी समझता है। किसी की उपासना-पद्धति निराकार की ओर जाती है तो किसी की साकार की ओर। कोई ईश्वर, प्रकृति, जीव, जीवन, परलोक, धर्म, सृष्टि आदि के प्रति एक प्रकार की मान्यता रखता है तो दूसरा अन्य प्रकार की। कहने का तात्पर्य यह है कि संसार में मान्यताओं का कोई बारम्बार नहीं और उनके बीच मित्रता एवं विचित्रता की भी कमी नहीं है। साथ ही सबको उनके प्रति मोह और पक्षपात की दुर्बलता भी रहती है। तब भला कोई किसी की मान्यता को अपनी मान्यता से श्रेष्ठ मानने अथवा अपनी मान्यता के स्थान पर अन्य के विश्वास को किस प्रकार स्वीकार करने को तैयार हो सकता है? और ऐसी दशा में जब कोई अपनी मान्यताओं की श्रेष्ठता का अनुचित दुराग्रह करेगा तो कलह-क्लेश और लड़ाई-झगड़े की परिस्थितियाँ आयेंगी ही।

यह सत्य है कि किसी एक विषय में संसार की सारी मान्यतायें समान रूप से सही नहीं हो सकतीं। सब में ही सत्य और असत्य का कुछ-न-कुछ अंश होगा ही। किसी एक की मान्यता की सचाई के विषय में पूछा जाए तो वह उसको इस प्रकार से एकाँगी प्रतिपादन करेगा कि सुनने वाले को उसके सत्य होने का विश्वास हो सकता है। अपनी मान्यताओं के पक्ष में मानव-मस्तिष्क ऐसे-ऐसे तर्क, ऐसी-ऐसी दलीलें प्रस्तुत करता है कि जिनको सुनकर मान लेने को जी करता है।

इस प्रकार एक को सुनने के बाद जब दूसरे पक्ष को सुना जाए तो ऐसा लगेगा कि पहले व्यक्ति ने जो कहा है वह बिल्कुल गलत है। ठीक तो यह है जो कि यह व्यक्ति कह रहा है। इस प्रकार किसी एक को अलग सुनकर सही निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकता। सही निर्णय पर पहुँचने के लिए आवश्यक है कि उभय पक्ष को तटस्थ होकर सुना जाए और उनके कथन पर स्वतन्त्र मस्तिष्क से सोचा जाए, तभी किसी सही निर्णय पर पहुँच सकने की सम्भावना हो सकती है।

किन्तु कठिनाई तो यह है कि संसार का हर आदमी अपनी कुछ मान्यतायें रखता है और उनके प्रति आग्रह भी। ऐसी दशा में सत्य-शोधियों का सर्वथा अभाव ही है। सत्य की शोध करने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी पूर्व निर्धारित मान्यताओं का पक्षपात छोड़कर अपने मस्तिष्क को मुक्त करे और तब आपस में बैठकर उपयोगी एवं हितकारी तत्व की खोज का दृष्टिकोण लेकर एक, दूसरे को सुने और समझे। ऐसी दशा में आग्रहरहित विचार-विनिमय से ही किसी सत्य की आशा की जा सकती है, अन्यथा मान्यताओं की भिन्नता के आधार पर संसार में यह संघर्ष होता ही रहेगा और क्लेश, कलह बढ़ते ही रहेंगे।

पारस्परिक विचार-विनिमयता का यह गुण मस्तिष्क में तभी आ सकेगा जब उसको पूर्व निर्धारित मान्यताओं के पक्षपात से मुक्त किया जाए। उसकी विचारधारा को लीकों और लकीरों के बन्धन से अलग किया जाये। सत्य की खोज में दुराग्रह को बाधक मानकर उसका त्याग कर दिया जाये।

धैर्यपूर्वक समक्ष पक्ष को जब तक तटस्थ होकर नहीं सुना जायेगा और अपनी कमियों को जानकर उनको दूर नहीं किया जायेगा तब तक अविश्वास-संघर्ष की सम्भावना कम नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, अपने व्यक्तिगत जीवन में भी सुख और शाँति लाने के लिए भी यही आवश्यक है कि हर बात को करते समय उसकी विधि तथा त्रयकालिक प्रभाव एवं परिणाम के प्रति प्रकाशित रहा जाए तभी किसी ठीक तथा वाँछित सन्तोष की प्राप्ति हो सकना सम्भव हो सकेगा। पूर्व निर्धारित मान्यताओं के प्रति पक्षपात से उत्पन्न अन्धकार से मनुष्य भूले और भटकेगा ही और तब उसका परिणाम शोक-सन्ताप के रूप में ही सामने आयेगा।


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