यह विचार निश्चय ही भ्राँतिपूर्ण है कि धन-वैभव, मान-सम्मान तथा पद-प्रतिष्ठा पा लेने पर जीवन सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह उन उपलब्धियों की तुलना में तुच्छ एवं नगण्य है, जिन्हें आगे बढ़ कर और वर्तमान भूमिका से ऊपर उठकर अवश्य पाया जा सकता है।
विद्या-बुद्धि, पुत्र-कलत्र ऐश्वर्य एवं वैभव आदि समस्त साँसारिक उपलब्धियाँ अस्थिर तथा क्षणभंगुर हैं। हजारों लोगों को यह नित्य प्रति मिलती और मिटती रहती हैं। इनकी प्राप्ति होने से सुख हो जाता है और चले जाने से दुःख होता है। संसार की यह सारी अस्थिर उपलब्धियाँ मनुष्य को सुख-दुःख के दोलन में झुलाती रहती हैं जिससे चित्त क्षुब्ध एवं व्याकुल रहता है। इन उपलब्धियों के सुख में भी दुःख छिपा रहता है। मनुष्य अच्छी तरह जानता है कि यह सब विभूतियाँ नश्वर एवं गमनशील हैं। किसी समय भी नष्ट हो सकती हैं, छोड़ कर जा सकती है। इन्हें पाकर मनुष्य इनकी रक्षा, इन्हें अपने पास बनाये रहने के लिए दिन-रात व्यग्र एवं व्यस्त रहा करता है। ऐसी दशा में सुख संतोष अथवा निश्चिन्तता का होना सम्भव नहीं। इस प्रकार इन साँसारिक उपलब्धियों की प्राप्ति एवं अप्राप्ति दोनों ही दुःख का कारण हैं।
संसार में रह कर साँसारिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने का प्रयत्न करना बुरा नहीं। बुरा है उनके लोभ में उस महान लाभ का त्याग कर देना जो स्थिर एवं शाश्वत सुख का हेतु है। ऐसा सुख जिसमें न तो विक्षेप होता है और न परिवर्तन। इन उपलब्धियों के बीच से गुजरते हुए मानव-जीवन के सारपूर्ण सर्वोपरि लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही सच्चा पुरुषार्थ है मनुष्य को जिसे करना ही चाहिए।
मानव-जीवन का सर्वोपरि लाभ आध्यात्मिक लाभ ही है। साँसारिक लाभों के नितान्त अभाव की स्थिति में भी आध्यात्मिक लाभ मनुष्य को सर्वमुखी बनाने में सर्वदा समर्थ है जब कि आध्यात्मिक लाभ के अभाव में संसार की समग्र उपलब्धियाँ भी मनुष्य को सुखी एवं संतुष्ट नहीं बना सकतीं। बल्कि वे उल्टी जान के लिये जंजाल बनकर चिन्ता में वृद्धि किया करती हैं।
आध्यात्मिक लाभ के अतिरिक्त संसार की कोई भी उपलब्धि मनुष्य को क्षुद्रता से विराट की ओर और तुच्छता से उच्चता की ओर नहीं ले जा सकती। यह विशेषता केवल आध्यात्मिकता में ही है कि मनुष्य क्षुद्र से विराट और तुच्छ से उच्च हो जाता।
आध्यात्मिक जीवन आत्मिक सुख का निश्चित हेतु है। अध्यात्मवाद वह दिव्य आधार है जिस पर मनुष्य की आन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार की उन्नतियाँ एवं समृद्धियाँ अवलम्बित हैं। साँसारिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिये भी जिन परिश्रम, पुरुषार्थ, सहयोग, सहकारिता आदि गुणों की आवश्यकता होती है वे सब आध्यात्मिक जीवन के ही अंश है। मनुष्य का आन्तरिक विकास तो अध्यात्म के बिना हो ही नहीं सकता।
अध्यात्मवाद जीवन का सच्चा ज्ञान है। इसको जाने बिना संसार के सारे ज्ञान अपूर्ण हैं और इसको जान लेने के बाद कुछ भी जानने को शेष नहीं रह जाता। यह वह तत्वज्ञान एवं महा-विज्ञान है जिसकी जानकारी होते ही मानव-जीवन अमरता पूर्ण आनन्द से ओत-प्रोत हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान से पाये हुए आनन्द की तुलना संसार के किसी आनन्द से नहीं की जा सकती क्योंकि इस आत्मानन्द के लिए किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। वस्तु-जन्य सुख नश्वर होता है, परिवर्तनशील तथा अन्त में दुःख देने वाला होता है। वस्तु-जन्य मिथ्या आनंद वस्तु के साथ ही समाप्त हो जाता है। जब कि आध्यात्मिकता से उत्पन्न आत्मिक सुख जीवन भर साथ तो रहता ही है अन्त में भी मनुष्य के साथ जाया करता है। वह अक्षय और अविनश्वर होता है, एक बार प्राप्त हो जाने पर फिर कभी नष्ट नहीं होता। शरीर की अवधि तक तो रहता ही है, शरीर छूटने पर भी अविनाशी आत्मा के साथ संयुक्त रहा करता है।
ऐसे अविनाशी आनन्द की उपेक्षा करके जीवन को क्षणिक एवं मिथ्या सुखदायी उपलब्धियों में लगा देना और उनमें संतोष अथवा सार्थकता अनुभव करना अनमोल मानव जीवन की सबसे बड़ी हानि है। जब आनन्द ही मानव जीवन का वर्तमानकालिक लक्ष्य है तब शाश्वत आनन्द के लिये ही प्रयत्न क्यों न किया जाये? क्यों क्षणभंगुर सुख की छाया-वीथियों में ही भटकते रहा जाये?
मनुष्य साँसारिक उपलब्धियों को प्राप्त करे किन्तु आध्यात्मिक उपलब्धि का बलिदान देकर नहीं। यदि वह ऐसी भूल करता है तो निश्चय ही अपने को प्रवंचित एवं प्रताड़ित करता है। जीवन को आध्यात्मिक मार्ग पर नियुक्त कर देने से साँसारिक लाभ तो होता ही है साथ ही मनुष्य अपने परम लक्ष्य अक्षय आनन्द की ओर भी अग्रसर होता जाता है। अध्यात्मवाद में दोनों लाभ अपनी क्षमता भर प्राप्त ही करना चाहिए। यही उसके लिये लिये प्रेय भी है और श्रेष्ठ भी।
आध्यात्मिक जीवन कोई अप्राकृतिक अथवा आरोपित जीवन नहीं है। आध्यात्मिक जीवन ही वास्तविक एवं स्वाभाविक जीवन है। इससे भिन्न जीवन ही अस्वाभाविक एवं आरोपित जीवन है। दुःख, क्लेश, चिन्ता एवं विक्षोभ के बीच से बहते हुए जीवन प्रवाह को स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता है। जीवन का प्रसन्न प्रवाह ही वास्तव में स्वाभाविक जीवन है। अध्यात्मवाद का त्याग करके अपनाया हुआ जीवन प्रवाह किसी प्रकार भी निर्मल स्निग्ध धारा के रूप में नहीं बन सकता। एक मात्र साँसारिक जीवन में लोभ, मोह, काम-क्रोध आदि विकारों के आवर्त बनते ही रहेंगे जो कि मनुष्य को अशान्त एवं असंतुलित बनायेंगे ही। जब कि आध्यात्मिक जीवन सुख एवं शाँति के क्षणों में प्रसन्नता पूर्वक बहता हुआ मनुष्य को सुख शान्ति की शीतलता प्रदान करता रहेगा।
आध्यात्मिक जीवन अपनाने का अर्थ है असत् से सत् की ओर जाना। सत्य, प्रेम और न्याय का आदर करना, निकृष्ट जीवन से उत्कृष्ट जीवन की ओर बढ़ना। इस प्रकार का आध्यात्मिक जीवन अपनाये बिना मनुष्य वास्तविक सुख शान्ति नहीं पा सकता। धनवान, यशवान होकर भी यदि मनुष्य आत्मा की उच्च भूमिका में न पहुँचा सका तो क्या वह किसी प्रकार भी महान कहा जायेगा। सत्य की उपेक्षा और प्रेम की अवहेलना करके, छल-कपट और दम्भ के बल पर कोई कितना ही बड़ा क्यों न बन जाये, किन्तु उसका वह बड़प्पन एक विडंबना के अतिरिक्त और कुछ भी न होगा। महानता की वह अनुभूति जो आत्मा को पुलकित अथवा देवत्व की ओर प्रेरित करती है कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। यह दिव्य अनुभूति केवल आध्यात्मिक जीवन अपनाने से ही प्राप्त हो सकती।
वासनापूर्ण निकृष्ट जीवन त्याग कर शुद्ध सात्विक जीवन यापन करने की प्रेरणा देने वाला अध्यात्मवाद ही है। वह मनुष्य को तम से ज्योति और मृत्यु से अमृत की ओर ले जाने वाला है। बाह्य वस्तुओं के सुख की भाँति अध्यात्मवाद का आन्तरिक सुख अस्थिर नहीं होता। वह चिरन्तन स्थिर एकरस होता है। संसार की अशुद्धताएँ, इन्द्रिय भोग की लिप्सा और वस्तुवाद की असारता अध्यात्मवादी को प्रभावित नहीं कर पातीं। वह अन्तर बाहर एक जैसा तृप्त सन्तुष्ट तथा महान रहा करता है।
आत्मा में अखण्ड विश्वास रख कर जीवन यापन करने वाला आध्यात्मिक ही कहा जायेगा। आत्मा है यह मान लेना ही आत्मा में विश्वास करना नहीं है। आत्मा में विश्वास करने का आशय है इस अनुभूति से प्रतिक्षण ओत-प्रोत रहना कि ‘संसार में व्याप्त परमात्मा के अंश आत्मा द्वारा हमारा निर्माण किया गया है। हम यह पच भौतिक शरीर ही नहीं हैं बल्कि आत्मरूप में वही कुछ हैं जो परमात्मा है’। ऐसी अनुभूति होने से ही हम अपने को ठीक से पहचान सकेंगे और सत्य, प्रेम, सहानुभूति, दया, क्षमा आदि ईश्वरीय गुणों का आदर कर सकेंगे। जिस समय हममें इन गुणों के ठीक-ठीक मूल्याँकन तथा इनको अपने अन्दर विकसित करने की चाह जाग उठेगी हम अध्यात्म पथ पर अग्रसर हो चलेंगे।
अध्यात्म सदाचरण और सदाचरण अध्यात्म के प्रेरक मित्र हैं। सदाचरण अध्यात्मवाद का सक्रिय रूप है और अध्यात्मवाद सदाचरण की घोषणा है। सदाचारी आध्यात्मिक तथा आध्यात्मिक व्यक्ति का सदाचारी होना अवश्यम्भावी है।
भौतिक लोभ लिप्सा को त्याग कर निर्विकार अध्यात्म पथ को अवलम्बन करने से मनुष्य स्वभावतः आन्तरिक संतोष, प्रेम, आनन्द एवं आत्मीयता की दैवी संप्रदाएं प्राप्त कर लिया करता है। अक्षय दैवी सम्पदा पा जाने पर मनुष्य पूर्ण काम हो जाता है और तब फिर उसे और कुछ चाहने की अभिलाषा नहीं रह जाती। अध्यात्म जन्य दैवी सम्पदाओं में संसार के सारे भौतिक तथा अभौतिक सुख निहित हैं।
आध्यात्मिक जीवन का सबसे बड़ा लाभ आत्मोद्धार माना गया है। अध्यात्मवादी का किसी भी दिशा में किया हुआ पुरुषार्थ परमार्थ का ही दूसरा रूप होता है। वह प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य और परिणाम को उसका प्रसाद मानता है। पुरुषार्थ द्वारा परमार्थ-लगन व्यक्ति के ईर्ष्या, द्वेष, माया, मोह, लोभ, स्वार्थ, तृष्णा, वासना आदि के संस्कार नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर त्याग, तपस्या, संतोष, परोपकार तथा सेवा आदि के शुभ संस्कार विकसित होने लगते हैं। अध्यात्म मार्ग के पुण्य पथिक के हृदय से तुच्छता दीनता, हीनता, दैन्य तथा दासता के अवगुण वैसे ही निकल जाते हैं जैसे शरद ऋतु में जलाशयों का जल मलातीत हो जाता है। स्वाधीनता, निर्भयता, सम्पन्नता, पवित्रता तथा प्रसन्नता आदिक प्रवृत्तियाँ आध्यात्मिक जीवन की सहज उपलब्धियाँ हैं, इन्हें पाकर मनुष्य को कुछ भी तो पाना शेष नहीं रह जाता। इस प्रकार की स्थायी प्रवृत्तियों को पाने से बढ़कर मनुष्य जीवन में कोई दूसरा लाभ हो नहीं सकता।
संसार का कोई संकट, कोई भी विपत्ति आध्यात्मिक व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकती, उसके आत्मिक सुख को हिला नहीं सकती। जहाँ बड़ा से बड़ा भौतिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति तनिक सा संकट आ जाने पर बालकों की तरह रोने चिल्लाने और भयभीत होने लगता है, वहाँ आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला मनुष्य बड़ी से बड़ी आपत्ति में भी प्रसन्न एवं स्थिर रहा करता है। उसका दृष्टिकोण आध्यात्मिकता के प्रसाद से इतना व्यापक हो जाता है कि वह सम्पत्ति तथा विपत्ति दोनों को समान रूप से परमात्मा का प्रसाद मानता है और आत्मा को उसका अभोक्ता, जब कि भौतिकवादी अहंकार से दूषित दृष्टिकोण के कारण अपने को उनका भोक्ता मानता है। आध्यात्मिक व्यक्ति आत्म-जीवी और भौतिकवादी शरीर-जीवी होता है। इसी लिये उनकी अनुभूतियों में इस प्रकार का अन्तर रहा करता है।
सुख सम्पत्ति की प्राप्ति से लेकर संकट सहन करने की क्षमता तक संसार की जो भी दैवी उपलब्धियाँ हैं वे सब आध्यात्मिक जीवन यापन से ही सम्भव हो सकती हैं। मनुष्य जीवन का यह सर्वोपरि लाभ है इसकी उपेक्षा कर देना अथवा प्राप्त न करने से बढ़कर मानव-जीवन की कोई हानि नहीं है।