सन्तानों की संख्या बढ़ाना व्यक्ति और समाज के लिये घातक है।

January 1967

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आखिर उन लोगों का इरादा क्या है जो सन्तान पर सन्तान उत्पन्न किये जा रहे हैं। छः सात बच्चे हो चुके हैं किन्तु प्रजनन अभी बंद नहीं है। प्रौढ़ावस्था पार कर चुके हैं किन्तु बच्चों का बोझ बढ़ाये चले जा रहे हैं। कभी यह विचार नहीं करते कि आखिर इसका परिणाम क्या होगा? होगा यह कि या तो वे अपनी विधवा पर, क्योंकि इस प्रयास में उन्हें जीना तो ज्यादा दिन है ही नहीं, अनेक अबोध बच्चों का भार छोड़ जावेंगे, जो बेचारी जीवन पर रो-रोकर, मर खप कर ढोयेगी या उस बड़े लड़के की जिन्दगी में आग लगा जायेंगे जो उनके शिथिल अथवा महायात्री होने तक किसी प्रकार छोटे-मोटे काम पर लग गया होगा और ज्यों-त्यों विवाह हो गया होगा। जरा सोचने की बात है कि वह विकासोन्मुख तरुण अपना और अपनी पत्नी का ही भरण-पोषण कठिनता से कर पायेगा, वह इतने भाई-बहिनों को कैसे तो पाल पायेगा और कैसे पढ़ा-लिखा कर योग्य बनायेगा। इसका तो धर्म यही होगा कि वह पिता से भी जल्दी अपनी जवानी चिन्ताओं की भेंट चढ़ा देगा। पिता का पाप पुत्र भोगे यह तो बात कुछ समझ में नहीं आती हैं।

यह बात सही है कि भले भाई जिस प्रकार भी होगा अपने छोटे भाई-बहिनों को पालें पोसेंगे ही, इसके लिये उन्हें क्यों न कोई भी कष्ट सहना पड़े, त्याग करना पड़े, पर पिता को तो समझदारी से काम लेकर संयम बरतना ही चाहिये। ऐसे परिवारों की भी कमी नहीं है जहाँ एक साथ पिता और पुत्र के सन्तान होती है। पिता के लिये यह प्रतियोगिता कितनी शोभनीय है यह बात सोचनीय है। किन्तु क्या कहा जाये पिता के उस उत्साह एवं नैतिक साहस को कि पुत्र और पौत्र का जन्मोत्सव एक साथ मनाकर भी समाज में शान से चलते हैं। कहना होगा कि इस प्रकार प्रजनन शील प्रौढ़ों को न तो परिवार और न समाज तथा राष्ट्र की कोई चिन्ता होती है। वे यह बात नहीं देख पा रहे हैं कि कुछ ही समय में यदि जनसंख्या की वृद्धि नियंत्रित न हुई तो संसार में प्रलय के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगेंगे। जिस संसार में हम रहते हैं, जिस देश के हम नागरिक हैं, जिस राष्ट्र का अन्नपानी खाते-पीते और जिस समाज की सहायता से जीते हैं, उसका हितचिन्तन करना हमारा पुण्य पवित्र कर्त्तव्य है और आज जनवृद्धि को नियंत्रित करना सबसे बड़ा देशहित साधन है। किन्तु क्या इस प्रकार के लोग इस ओर ध्यान दें पाते हैं?

कुछ लोग एक पुत्र को पाने के लिए लड़कियों से घर भर लिया करते हैं। दो लड़कियाँ हो गई। यही जिम्मेदारी काफी थी। लेकिन संतोष नहीं। एक लड़का भी हो जाता तो अच्छा था। लेकिन फिर कन्या आई। दुःख तो हुआ पर आशा एषणा का त्याग नहीं किया। पुनः लड़की, पुनः लड़की। फिर भी पुत्रेषणा नहीं जाती। देख रहे हैं कि लड़कियाँ ही हो रही हैं। उस अंधे सौदे का कोई विश्वास नहीं। ऐसा कोई साधन नहीं कि ठीक-ठीक लड़का-लड़की के बाबत जाना जाये। केवल आशा और ‘शायद’ के भरोसे प्रजनन नहीं रोकते आखिर नतीजा यह होता है कि जहाँ एक लड़की के विवाह में छक्के छूटते हैं वहाँ छः-छः, सात-सात लड़कियों से घर भर जाता है। इसका नतीजा सिवाय इसके और क्या हो सकता है कि किन्हीं एक-दो लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा और ब्याह-शादी ठीक से हो जाये और बाकी सब यों ही अधेड़ों, विधुरों, दूल्हा, तीजहा को उचित अनुचित स्थानों पर फेंका जाये। समाज की अभागी प्रथायें और कुरीतियाँ दो-एक लड़कियों के विवाह में ही कंगाल बना देती हैं तब भला छः-छः, सात-सात लड़कियों का ब्याह-शादी किस प्रकार ठीक से किया सकता है।

जब दो लड़कियाँ हो गई तभी संतान की प्यास बुझ जानी चाहिए थी और समझ लेना चाहिए था कि जिन्दगी के लिये काफी जिम्मेदारी और काम आ गया है। इन दो कन्याओं को ही सुयोग्य बनाने और अच्छे घर वर को सौंपने में ही इतना रुपया चाहिए जितना कठिनता से ही जमा हो सकेगा। अब अगर लड़का हो भी गया तो उसकी शिक्षा-दीक्षा और ब्याह-शादी के लिये रुपये के लाले पड़ जायेंगे। किन्तु मनुष्य की इस निरर्थक इच्छा को क्या कहा जाये जिसे पूरा करने की आशा में जिन्दगी पर बोझ पर बोझ रखता चला जाता है।

बहुत बार लोग अनेक बच्चे होने पर भी यदि विधुर हो जाते हैं तब भी दूसरी शादी कर लाते हैं और बच्चों की संख्या ड्यौढ़ी दोगुनी बना लेते हैं। यदि उन्हें कोई सुधारवादी, समाजसेवी अथवा हितचिन्तक इसका विरोध करता हुआ समझाने का प्रयत्न करता है तो उनका नपा-तुला उत्तर मौजूद होता है- ‘क्या करें भाई शादी तो दूसरी नहीं करने को था किन्तु इन बच्चों की देख-भाल के लिए तो प्रबंध करना ही है। क्योंकि बच्चों की परेशानी मुझसे देखी नहीं जायेगी।’ बड़ा सुन्दर बहाना है।भला ऐसा कौन-सा कठोर होगा जो यह सम्मति दें कि आप शादी न करें भले ही बच्चे परेशान होते रहें। किन्तु इस प्रकार के बहानेबाज़ इस बात का उत्तर देने में या तो रोष प्रकट करेंगे या फिर दाँत निकालेंगे कि विधाता भले ही बच्चों को तब तक ठीक से रखें जब तक उसके अपने बच्चे न हो। उसके अपने बच्चे होने पर इन दिवंगता जननी के लाड़िलों का क्या हाल होगा? जब दूसरा बच्चा होने पर सगी माँ का पहले बच्चे से सिमट कर प्रेम दूसरे बच्चे पर चला जाता है, तब वहाँ तो कुक्षि की विषमता भी है।

स्पष्ट है यदि विशुद्ध रूप से बच्चों की परेशानी का ही विचार हो तो किसी वृद्ध विधवा, रिश्ते नाते की दादी, बुआ, बहिन, भौजाई ऐसी किसी स्त्री को भी लाया जा सकता है जो बेचारी गरीब और निराश्रिता हो। इससे उपकार का पुण्य भी हो और बच्चों की देख-भाल भी। और यदि ऐसा नहीं बन पड़े और दूसरा विवाह करते ही बने तो आगे के लिए परिवार-नियोजन का प्रबंध किया जा सकता है। किन्तु सत्य बात तो यह है कि बच्चों की देखभाल तो बहाना मात्र है, प्रेरणा होती है उस विकार की जिसे उन्हें पहली पत्नी से ही एक दो बच्चे हो जाने पर दृढ़ता पूर्वक नियंत्रित कर लेना था। इससे जो पत्नियाँ अधिक प्रजनन के कारण खोखली होकर अकाल में मर जाती हैं वह परिस्थिति न आती और यदि आ भी जाती तो एक-दो बच्चों का जो कि सयाने ही हो चुके होते स्वयं भी प्रबंध किया जा सकता था। मुसीबत आती है क्रम से उत्पन्न हुए अनेक छोटे बच्चों के कारण।

अनेक रईस और शौकीन तबीयत लोग दो-दो तीन-तीन शादियाँ करते या शायद कानून के भय से एक को तलाक देकर दूसरी से शादी कर लेते हैं और बिना सोचे समझे जनसंख्या बढ़ाते चले जाते हैं। वे यह नहीं सोच पाते कि जब हम एक अकेले ने पाँच सात संतानें बढ़ाकर आबादी वृद्धि की है तब यदि इन चार-चार, पाँच-पाँच के भी इतनी-इतनी संतानें होंगी तो केवल एक पीढ़ी अथवा बीस साल में आबादी कितने गुना बढ़ जायेगी?

अधिक सन्तानों को सुयोग्य बनाया जाना संभव नहीं। निश्चय ही उनमें से अनेक आवारा, अनैतिक, अपराधी तथा अनुशासनहीन हो जायेंगे। इस प्रकार की विकृत संतानें अभिभावकों के लिए तो जान का बवाल बन ही जाती हैं समाज के लिए भी अभिशाप सिद्ध होती हैं। इसी सत्य को ध्यान में रखते हुए आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व जब कि जनसंख्या आज की अपेक्षा बहुत कम थी और भोजन वस्त्र तथा जीवन की अन्य आवश्यक वस्तुओं की प्रचुरता थी, दूरदर्शी यूनानी दार्शनिक व विचारक अरस्तू ने अपने देश वासियों को सावधान करते हुए चेतावनी दें दी थी-

‘जनसंख्या की अतिरिक्त वृद्धि हो जाने पर समाज का आर्थिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन हो जाता है। सामाजिक व पारिवारिक व्यवस्था बिगड़ जाती है। निरर्थक मनुष्य राष्ट्र का भोजन खा-खा कर नष्ट कर डालते हैं। धर्माचार का त्याग कर निरंकुश, स्वेच्छाचारी हो जाने से लोग अनैतिक मार्गों पर चलने लगते हैं। उद्दण्ड घोड़ों की तरह किसी कायदे कानून को नहीं मानते और समाज में अपराधों तथा आतंक का वातावरण उत्पन्न करते हैं जिससे प्रगति में बाधा पड़ती है। अधिकाँश नागरिक अविकसित, अशिक्षित और मूर्ख रह कर पशुओं जैसा जीवन व्यतीत करते और मक्खी की तरह मरते रहते हैं। मानसिक तथा सामाजिक बुराइयों का प्रधान कारण आबादी की अनियंत्रित वृद्धि ही है।’

अरस्तू ही क्यों भारतीय ऋषि मुनियों ने तो इससे भी पहले जन-वृद्धि के दुष्परिणामों से सावधान कर दिया था। राम को उपदेश देते हुए मुनि वशिष्ठ ने अपने ग्रंथ ‘योग वाशिष्ठ’ में कहा है- ‘जब किसी देश की जनसंख्या बहुत बढ़ जाती है तो अकाल, महामारी, युद्ध या भूकम्प आदि दैवी अथवा मानवीय आपत्तियाँ उठ खड़ी होती हैं जिससे कीड़े-मकोड़े की तरह मानव-जाति का विनाश हो जाता है।’

पहले जब किसी एक स्थान की जनसंख्या बढ़ जाती थी तो बहुत से लोग दूसरे स्थान पर चले जाते थे। किन्तु आज संसार का कौना-कौना मनुष्यों से खचाखच भरा हुआ है किसी को कहीं आने-जाने की सुविधा ही नहीं है। ऐसी दशा में सिवाय इसके कि देश भर की ईति-भीति में बरबादी हो अथवा सबल अपने अस्तित्व के लिए दूसरे निर्बलों को मार-काट कर अपने लिये स्थान बनायें इसके सिवाय और क्या हो सकता है? युद्ध का एक बहुत बड़ा कारण संसार में जनसंख्या की वृद्धि भी है।

भारत की बेतहाशा बढ़ती हुई जनसंख्या की चिन्ता संसार भर को है किन्तु स्वयं भारत वासियों को नहीं है। वे बराबर पीढ़ी-दर-पीढ़ी करोड़ों की आबादी प्रतिवर्ष बढ़ाते जा रहे हैं। जनसंख्या की यदि यही रफ्तार रही तो भारतवासियों को शीघ्र ही प्रलय के दृश्य देखने के लिये तैयार रहना चाहिए और अपनी बहुमूल्य सभ्यता एवं संस्कृति का मोह अभी से छोड़ने का अभ्यास करना चाहिए।

जो लोग वैज्ञानिक बल पर जनसंख्या और खाद्य सामग्री में अनुपात बने रहने की आशा करते हैं उन्हें सावधान करने के लिए विद्वान माल्थस के आधुनिक विज्ञान से सम्मत तथा तर्क व प्रमाणों से पुष्ट यह विचार कुछ कम सत्यपूर्ण नहीं है।

‘विज्ञान चाहे कितनी उन्नति क्यों न करता जाये जमीन की उपज और उससे मिलने वाले अनाज की पैदावार एक नियत सीमा के भीतर ही बढ़ सकती है। प्रत्येक पौधे की जड़ और पत्तियों को फैलने के लिए जितना स्थान, समय, वायु, धूप व जल इत्यादि की आवश्यकता है उसे जनसंख्या के अनुपात से खींचतान कर नहीं घटाया-बढ़ाया जा सकता। साथ ही यह भी अनुभव सिद्ध है कि जमीन की पैदावार को जब बहुत अधिक बढ़ाने की चेष्टा की जाती है तो शीघ्र ही ऐसा अवसर आता है कि परिश्रम के अनुपात से पैदावार घटने लगती है क्योंकि अप्राकृतिक ढंग से भूमि के साथ बलात्कार करने से उसकी उर्वराशक्ति नष्ट हो जाती है।

इन परिस्थितियों एवं तथ्यों के होते और जानते हुए भी जो लोग सन्तान वृद्धि का संयम नहीं करते उनके लिए तो यही कहना पड़ेगा कि ऐसे लोग जीवन में सुख-शंतिं, सत्सन्तान और सशक्त समाज का मूल्य, महत्व नहीं जानते और चाहते हैं कि जहाँ कल नष्ट होने को ही संसार आज नष्ट हो जाये।


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