पाँच वर्ष तक हमें सहचर बनकर रहना है।

January 1967

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अखण्ड-ज्योति परिवार के अब इस अंक से बहुत कम सदस्य रह गये हैं। जो किसी दबाव संकोच के चंदा तो दे देते थे पर पत्रिका को पढ़ते नहीं थे, ऐसे सभी पाठकों को हटा दिया गया है। 40 हजार में से 4 हजार अब वे बचे हैं जो हमारे शरीर के प्रति नहीं, विचारों के प्रति श्रद्धा रखते हैं। जिन्हें हमारे आशीर्वाद पर नहीं, प्रेरणाओं की प्रखर सामर्थ्य पर विश्वास है। ऐसे थोड़े किन्तु सच्चे साथियों के साथ ही अब संपर्क रह गया है, इसका हमें बड़ा संतोष है और विश्वास है कि इन काम के साथियों द्वारा अधिक व्यवस्थापूर्वक वह कार्य सफलतापूर्वक कर सकेंगे-उस दिशा में अधिक तेजी के साथ चल सकेंगे, जो हमारे जीवन का लक्ष्य है।

वर्तमान अखण्ड-ज्योति परिजनों से यह आशा की गई है कि वे जिस विचारधारा को पत्रिका के पृष्ठों में पढ़ते हैं, उसे क्रियान्वित करने का भी प्रयत्न करें। विचार जब तक कार्यरूप में परिणित नहीं होते, तब तक वे संस्कार का रूप धारण नहीं करते। संस्कार स्वभाव का अंग बनकर व्यक्ति को दिशा देते और आगे बढ़ाते हैं। इसलिये सद्विचारों से लाभ उठाने की इच्छा रखने वाले के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि वे इन्हें कार्यरूप में परिणत करें।

आत्म-निर्माण और पुण्य परमार्थ का कार्य ‘सेवा-साधना’ बिना चल ही नहीं सकता। सेवा से रहित व्यक्ति पाषाण की तरह है। जिस प्रकार पुष्प पकता है तो उसकी पंखुरियाँ फैलती और सुगंध उड़ती है उसी प्रकार आध्यात्मिक उत्कृष्टता जिस किसी के भीतर भी विकसित होगी उसके स्वभाव में उदारता एवं सेवा की भावना झरने की तरह फूटेगी। यही सच्ची आध्यात्मिकता की एकमात्र कसौटी है। जो स्नान, ध्यान, भजन, दर्शन, पाठ की विद्या में तो प्रवीण है पर सेवा की हूक अन्तःकरण में नहीं उठती तो समझना चाहिये कि इनका धर्म और अध्यात्म अभी विडम्बना की कक्षा में ही भ्रमण कर रहा है। अन्तरात्मा तक अध्यात्म का प्रकाश नहीं पहुँचा। यदि पहुँचता तो लोक-मंगल के लिये कुछ-न-कुछ त्याग बलिदान करने की वैसी ही इच्छा उत्पन्न होती, जैसी कि उत्कृष्टता का, ईश्वर और धर्म का अवलम्बन करने वाले हर एक सच्चे साधक के मन में सृष्टि के आदि से लेकर अब तक सेवा-भावना उत्पन्न होती रहती है। इतिहास में एक भी ऐसे सच्चे आस्तिक का उल्लेख नहीं मिलता जो सेवा-रहित होकर जिया हो।

अस्तु, अखण्ड-ज्योति के परिजनों को सच्चे अध्यात्मवादी अपने साथी सहयोगी के रूप में देखने की आकाँक्षा के साथ यह इच्छा रहना भी स्वाभाविक है कि परिजनों के क्रिया-कलाप में सेवा-साधना का पुट अवश्य रहें। कहना न होगा कि अन्न, वस्त्र, जल, निवास आदि के दान तो बहुत ही स्थूल स्तर के शरीरों को थोड़ी देर के लिये लाभ पहुँचा सकने मात्र की सुविधा देते हैं। वास्तविक दान तो किसी की मनोदशा विचारधारा को सन्मार्ग की ओर मोड़ देने में ही है। अपनी सेवा भी इसी में है और दूसरों की सच्ची सेवा-सहायता भी इसी प्रकार हो सकती है। इसी दृष्टि से ज्ञान-दान को सबसे बड़ा दान और ज्ञान-यज्ञ को सबसे बड़ा यज्ञ माना गया है। ज्ञान ही इस विश्व ब्रह्माँड का सबसे बड़ा देवता है। इसी से विवेक की देवी-गायत्री को विश्वमाता, वेदमाता कहा गया है। गायत्री की साधना वस्तुतः सद्ज्ञान की ही साधना है।

गत गीता जयंती (23 दिसम्बर 1966) से अपने 4 हजार साथियों, अखण्ड-ज्योति के वर्तमान सदस्यों को साथ लेकर ज्ञान-सत्र-ज्ञान-यज्ञ का विधिवत् समारंभ किया है, यह आगामी 5 वर्ष तक चलता रहेगा। इसकी पूर्णाहुति करके हम योगी अरविंद एवं महर्षि रमण के स्तर की युगाँतर प्रस्तुत करने वाली साधना के लिए हिमालय चले जायेंगे। अपने वर्तमान निष्ठावान परिजनों से हम यह आशा करेंगे कि वे उपेक्षा, लापरवाही, ढील-पोल की आदत छोड़ दें और जो कुछ करना है उसे पूरे मन से ठीक तरह करने का स्वभाव बनायें। जो करना सो करना, न करना तो न करना। सत्पुरुषों की यही रीति-नीति रहती है। वर्तमान साथियों की गतिविधि यही रहनी चाहिए।

वर्तमान साथी-सहचरों से अकिंचन-सी आकाँक्षा की गई है, नगण्य-सा वजन उन पर डाला गया है। जिनमें निष्ठा न हो उनकी बात दूसरी है, पर जिनमें उत्कृष्टता की दिशा में थोड़ी भी सच्चाई होगी, वे सहज ही सोच लेंगे कि हर अध्यात्मवादी को परमार्थ के लिए, लोक-मंगल के लिये थोड़ा-बहुत योगदान अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। चौबीस घंटे स्वार्थ में ही डूबे रहा जाये, कानी कौड़ी भी लोक-मंगल में खर्च न की जाये तो आत्मा की सोई हुई महानता फिर आखिर जगेगी कैसे? इसलिए कुछ श्रम, कुछ समय, कुछ धन तो इस मार्ग के यात्री को लगाते ही रहना पड़ता है। इस रीति-नीति की उपेक्षा करके सस्ते, ‘शॉर्ट कट’ ढूँढ़ना बेकार है। अपने को भ्रम में रखने से कुछ लाभ नहीं है। आध्यात्मिकता और पारमार्थिकता एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। अतएव एक छोटा पारमार्थिक कार्यक्रम तो प्रत्येक वस्तुतः आत्मिक उन्नति चाहने वाले के सामने होना ही चाहिए। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए वर्तमान चार हजार साथियों के सामने एक सुव्यवस्थित योजना प्रस्तुत की गई है।

उपासना का एक व्यवस्थित कार्यक्रम हमने बना दिया है, जिसे अपनाकर पाँच वर्ष में वर्तमान साथी आशातीत प्रगति करेंगे। अगले अंक में उसे प्रस्तुत करेंगे। बसंत पंचमी से उसका आरंभ करना चाहिए और पाँच साल तक उसे चलाना चाहिए। प्रतिवर्ष इसी बसंत पंचमी को एक निरीक्षण दृष्टि डाली जाया करेगी कि किसने कितनी प्रगति की? यदि अभीष्ट प्रगति नहीं हुई तो उस कमी को पूरा किया जाये। यह उपासना क्रम सर्वसाधारण के लिए सर्वांगपूर्ण स्तर का है।

पञ्चकोशी उपासना का आधा पाठ्यक्रम हम पूरा कर चुके हैं। जो पूरा किया गया है, उसका अभ्यास भी आगामी पाँच वर्ष तक जारी रखें। जो शेष है, उसे कोई व्यक्ति अपने बलबूते पूरा नहीं कर सकता। उसमें मार्गदर्शक की शिक्षा ही काफी नहीं वस्तु शक्ति भी सम्मिलित होनी चाहिए। उन उच्चस्तरीय अध्यापकों को हम अपनी शक्ति-सामर्थ्य पर्याप्त मात्रा में देने की स्थिति में आज नहीं हैं, पाँच वर्ष बाद होंगे तब जो शेष साधना रही है उसे बहुत शीघ्र पूरा करा देंगे। अभी तो उन्हें सीखी हुई साधना का पाँच साल तक अभ्यास करते रहना है। धैर्यवान उसे जारी रखेंगे, उतावली वाले छोड़ बैठेंगे तो समझ लिया जायेगा कि इनका स्तर इतना विकसित नहीं हुआ कि पूर्णता तक पहुँचने की पात्रता सिद्ध कर सकें। पञ्च कोशी साधना के निष्ठावान साधकों के धैर्य की परीक्षा को यह पाँच साल का समय रखा गया है।

सामान्य उपासना का कार्यक्रम अगले अंक में प्रस्तुत होगा। वह सर्व-साधारण के लिए यहाँ तक कि व्यस्त व्यवसायी से लेकर छोटे बच्चों तक के योग्य, किन्तु अत्यन्त प्रभावपूर्ण होगा। उसे बसंत पंचमी से आरंभ करने की तैयारी की जाए। इसके अतिरिक्त सेवा साधना का जो कार्यक्रम परिजनों के लिये आवश्यक है उसे चालू कर देना चाहिए।

दि. अंक में ‘अपनों में अपनी बात’ स्तंभों के अंतर्गत जिस ब्रह्म विद्यालय के शुभारंभ की चर्चा की गई है, उसकी व्यवस्थित विधि व्यवस्था हर जगह-हर सदस्य द्वारा चालू हो जानी चाहिए। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार तीन चौथाई सदस्यों ने इस गीता जयन्ती से अपना ज्ञान-यज्ञ आरंभ कर दिया है। उनका ब्रह्म विद्यालय विधिवत् चलने लगा है। जो किसी कारणवश अभी उसे आरंभ नहीं कर सके, उन्हें आगामी बसन्त पंचमी की अवधि तक आरंभ कर ही लेना चाहिए। गीता जयंती (23 दिसम्बर 66) से लेकर बसंत पंचमी (14 फरवरी 67) तक का 40 दिन का समय संधिकाल है। उस अवधि में हमारे सभी सहचरों को गतिशील हो जाना चाहिए।

ज्ञान सत्र एवं ज्ञान-यज्ञ का जो छोटा-सा शुभारंभ अभी किया गया है वह अत्यंत सरल है। आध्यात्मिक निष्ठा का यह छोटा-सा अंकुर भी जिनके भीतर उदय हो गया होगा उन्हें वह हंसी-खेल जैसा लगेगा। बात इतनी भर है कि- ‘अपने परिवार के तथा प्रभाव क्षेत्र के सभी व्यक्तियों के नाम एक उसी प्रयोजन के लिए बनाई गई विशेष कापी में नोट कर लिए जायें। उन्हें ही अपनी अखण्ड-ज्योति या युग-निर्माण पत्रिकायें पढ़ने के लिए दी जाएं और ऐसी चतुरता पूर्ण रीति-नीति बरती जाए कि वे रुचिपूर्वक उन्हें पढ़ने को तैयार हो जायें।’

इस कार्य में प्रमुख कार्यवाही यह है कि लोगों में आमतौर से पढ़ने की रुचि नहीं होती, फिर नव-निर्माण जैसे रूखे विषय में तो मन जरा भी नहीं लगता। सत्-साहित्य के स्वाध्याय में लगन उत्पन्न कर देना एक जादूगर जैसी सफलता है। प्रयत्न से लोगों को कसैली चाय, मितली उत्पन्न करने वाली तम्बाकू और कड़ुई अफीम, शराब आदि का अभ्यस्त बना दिया गया तो कोई कारण नहीं कि चतुरता भरी तरकीबें काम में लाकर भावनात्मक नव-निर्माण का साहित्य पढ़ने के लिए लोगों को तैयार न किया जा सके। कुनैन की कड़ुई गोली खाने और कान छिदाने जैसे कष्टसाध्य कार्य के लिए छोटे बच्चों को फुसलाया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि समझदारी से प्रयत्न करने पर बड़ी आयु के पढ़े-लिखे लोगों को जीवन-कला की समग्र शिक्षा देने वाला कल्पवृक्ष, अमृत और स्वर्ण की तुलना में अधिक वजनदार, अधिक श्रेयस्कर साहित्य पढ़ने के लिए रजामन्द न किया जा सके। बिना हिम्मत हारे-बिना धैर्य छोड़े-जो प्रयत्न करते रहेंगे वे इस प्रयत्न में अवश्य सफल होंगे कि अपने परिवार के हर शिक्षित बाल-वृद्ध एवं नर-नारियों को अपने प्रभाव क्षेत्र के परिजनों एवं स्वजन संबंधियों को दोनों पत्रिकायें पढ़ने को सहमत किया जा सके।

हर परिजन का यह लक्ष्य होना चाहिए कि उसकी दोनों पत्रिकायें कम से कम दस व्यक्ति तो पढ़ेंगे ही, ज्यादा हों तो और भी अच्छा, नहीं तो न्यूनतम लक्ष्य 10 का तो रहना चाहिए। निर्धारित कापी में उनके नाम नोट रहें और कब उन्हें क्या पढ़ने को दिया और कब वापिस लिया इसका ब्यौरा होना चाहिए। यह कापी व्यवस्थित रीति से इस ज्ञान सत्र को चलाने में बड़ी सहायक सिद्ध होती है। इसलिए उसे रखना आवश्यक ही माना जाए।

जो पढ़े नहीं हैं, उन्हें सुनाने के लिए थोड़ा समय निकाला जा सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि छात्रों से या स्त्रियों से एक-एक लेख पढ़कर सुनाने के लिए कहा जाए और लोग सुना करें। इस प्रकार घर के अन्य लोगों को सुनाने की शैली भी आयेगी और जो पढ़ेगा उसमें समझने की प्रवृत्ति भी बढ़ेगी। पत्नी से एक लेख रात को सोते समय सुनाने की एक सेवा यों भी ली जा सकती है। सोते समय पतियों के पैर दबाने का नियम जिस प्रकार वह पत्नियाँ चलाती हैं, उसी प्रकार शिक्षित परिवारों में यह अन्तःकरण को दबाने की पति भक्ति किसी प्रकार भी कम महत्व की नहीं। बच्चे अपने बूढ़े पिता, ताऊ बाबा किसी की सेवा किया करें तो उन्हें आँख से कम दीखने के कारण जिस श्रेयस्कर सद्ज्ञान से वंचित रहना पड़ता है उसकी पूर्ति होने लगे।

पूजा की देवस्थली हर आस्तिक घर में होनी चाहिए। एक चौकी पर पूजा-सामग्री, देव-प्रतिमा, रहना और वहाँ नित्य उपासना क्रम चलना एक आवश्यक धर्म-कर्त्तव्य है। इसी प्रकार हर घर में एक अलमारी या सन्दूक ऐसा होना चाहिए जिसमें जीवन निर्माण की केवल जीवन-निर्माण की प्रेरणा भरी पुस्तकें सुसज्जित रूप से रखी जाया करें। यह ज्ञान-स्थली भी देव-स्थली की भाँति ही जरूरी है। जिन घरों में यह दोनों स्थापित नहीं, उन्हें अध्यात्मवादियों का घर नहीं कहा जा सकता। अतएव हर अखण्ड-ज्योति के परिजन को अपने घर में यह दोनों स्थापनायें कर ही लेनी चाहिए।

पूजा की चौकी सजी न हो तो अब सजा लेनी चाहिए और उसके समीप बैठकर नियमित उपासना आरंभ कर देनी चाहिए। इसी प्रकार यदि ज्ञान स्थली न हो तो उसकी स्थापना कर लेनी चाहिए। कूड़ा-करकट जैसी पुस्तकें उसमें नहीं भरनी चाहिए। चाहे थोड़ी ही हों, पर हों ऐसी जो जीवन की दिशा का नव-निर्माण करने में प्रभावपूर्ण मार्गदर्शन करती हों। धर्म के नाम पर बहुत जंजाल भरी पुस्तकें छपी हैं। केवल उनकी नाम-प्रसिद्धि के आधार पर यह स्थापना नहीं की जानी चाहिये वरन् इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए कि व्यक्ति की और आज के समाज की समस्याओं का व्यावहारिक हल उनमें है या नहीं। यदि है तो ही वे ज्ञान स्थली में स्थान प्राप्त करने योग्य मानी जाए, अन्यथा कोई पुस्तक पुराने जमाने की लिखी हुई है इसी आधार पर उस बेकार कूड़े से जगह न घेरी जाए। काम की पुस्तकें थोड़ी भी हों तो बहुत है। बेकार का कबाड़ा ढेर जितना होने पर भी व्यर्थ है। चुना हुआ साहित्य ही ज्ञान सत्र की पूर्ति कर सकता है। हवन में उत्कृष्ट पदार्थ ही आहुतियों का प्रयोजन पूरा करते हैं। गंदी चीजें होने से तो हवन भी गंदा हो जाता है। पुस्तकालयों में ज्ञान मन्दिरों में केवल चुनी हुई चीजें ही सोद्देश्य साहित्य ही-स्थान पा सके। इसका पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए।

देवस्थली का दैनिक खर्च थोड़ा-सा है, दीपक, पुष्प, अगरबत्ती, चावल, नैवेद्य आदि वस्तुओं के उपकरण घर में मिल जाते हैं। पर ज्ञानस्थली की सभी सामग्री बाहर से ही मंगानी पड़ती है। दोनों पत्रिकाएं तथा युगान्तर प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति परिवार तथा समाज को परिष्कृत बनाने की प्रेरणा से भरे-ट्रैक्ट, यह सब साहित्य को बाहर से ही खरीदना पड़ता है। इतने महान प्रयोजन के लिए 10 पैसा प्रतिदिन बचाने ही चाहिए। भले ही इसके लिए डेढ़ छटाँक आटा अपने भोजन में कम करना पड़े। रोटी में कटौती करके आत्मा का पोषण करना है। महंगा सौदा नहीं। वस्तुतः तो यही वास्तविक बुद्धिमानी और दूरदर्शिता है।

अगले अंक में उच्चस्तरीय साधना की प्रथम साधन प्रक्रिया प्रस्तुत करेंगे। उसे दो बार ध्यानपूर्वक पढ़ा जाए, ताकि जो विधि व्यवस्था समझाई गई है वह ठीक तरह समझ में आ जाए। उसका आरंभ बसंत पंचमी से किया जाना है। गायत्री तत्व ज्ञान का महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन करने वाले लेख तो अगले पाँच वर्ष तक छपे रहेंगे, कितनी ही साधनायें बताई जाती रहेंगी पर उनका उपयोग अधिकारी पात्र अनुभवी मार्ग दर्शकों के सहयोग से ही कर सकते हैं। सामान्य प्रशिक्षण जिसका मार्ग-दर्शन अखण्ड-ज्योति में होगा, हर साधक को एक अनुपम प्रकाश एवं आह्लाद प्रदान करेगा। उसकी तैयारी हमें करनी चाहिए। एक महीने का समय इसलिए दिया गया है कि जिनके घर में पूजा स्थली नहीं है वे उसकी व्यवस्था कर लें और जिनसे उपासना क्रम छोड़ रखा है या जिसने अभी आरंभ ही नहीं किया वे उसका आरंभिक उपचार तो चालू कर सकें।

ज्ञान-यज्ञ का संकल्प गीता-जयंती से किया जा रहा है। उस दिन अधिकाँश परिजन नव-निर्माण की विचारधारा का अपने क्षेत्र में प्रसार करने का संकल्प लेंगे। उस संकल्प को 40 दिन के भीतर कार्यान्वित कर लेना चाहिए। जिनमें थोड़ी भी विचार-शीलता का अंकुर हो ऐसे लोगों के नाम इस अवधि में ढूँढ़ लेने चाहिए और उन्हें पिछले अखण्ड-ज्योति तथा युग-निर्माण के अंक, ट्रैक्ट पढ़ाने आरंभ कर देने चाहिए।

मिथ्या, झिझक, झूठा संकोच इस मार्ग की प्रथम बाधा हैं। इन 40 दिनों में इस पर धीरे-धीरे विजय प्राप्त कर लेनी चाहिए। एक-एक, दो-दो करके लोगों से मिलना चाहिए और धीरे-धीरे अपना प्रयोजन उन पर प्रकट करके पहले धीमी पीछे तीव्र गति से प्रशिक्षण का कार्य आरंभ कर देना चाहिए। बसंत पंचमी के पुण्य पर्व पर उन 10 व्यक्तियों की नामावली हर परिजन को पूरी तरह तैयार कर लेनी चाहिए जिन्हें नियमित रूप से यह साहित्य पढ़ाना सुनाना प्रचलित रहेगा। आगे तो यह संख्या दस तक सीमित न रह कर और भी बढ़नी चाहिए, बढ़ेगी भी।

इस विधि-व्यवस्था के जमाने में जो समय खर्च हो, जो मनोयोग लगता हो, जो पैसा लगता हो उसे विशुद्ध ज्ञान-यज्ञ समझ लेना चाहिए। हमारे हर साथी को परिजन-को इस ज्ञान का होता होना चाहिए। हम इस ज्ञान यज्ञ के पुरोहित हैं तो 4 हजार सहचर हमारे यजमान। इस ब्रह्म विद्यालय के हम कुलपति हैं, तो 4 हजार सहचर सहायक अध्यापक। विश्व के नव-निर्माण के लिए देश, धर्म, समाज और संस्कृति का पुनरुत्थान करने के लिए जो यह उभयपक्षीय महा अभियान आरंभ किया गया है, अपने हर साथी को उसमें सम्मिलित देखकर ही हमें संतोष हो सकता है। हर स्वजन यही सोच कर अपने कर्त्तव्य और कार्यक्रम निर्धारित करें।

सच्ची आध्यात्मिकता की सरल साधना-


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